पाकिस्तान: लाहौर हाईकोर्ट ने औपनिवेशिक युग के राजद्रोह क़ानून को रद्द किया

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में राजद्रोह से संबंधित विवादास्पद क़ानून पर भारतीय कार्यकर्ताओं और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार आपत्ति व्यक्त की है, यह देखते हुए कि असंतुष्टों के ख़िलाफ़ सरकार द्वारा इसका ग़लत तरीके से उपयोग किया जा सकता है.

लाहौर हाईकोर्ट. (फोटो साभार: मरियम आफताब/विकिपीडिया कॉमन्स, CC BY-SA 4.0)

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में राजद्रोह से संबंधित विवादास्पद क़ानून पर भारतीय कार्यकर्ताओं और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार आपत्ति व्यक्त की है, यह देखते हुए कि असंतुष्टों के ख़िलाफ़ सरकार द्वारा इसका ग़लत तरीके से उपयोग किया जा सकता है.

लाहौर हाईकोर्ट. (फोटो साभार: मरियम आफताब/विकिपीडिया कॉमन्स, CC BY-SA 4.0)

दिल्ली: लाहौर हाईकोर्ट ने पाकिस्तान के राजद्रोह कानून को यह कहते हुए रद्द कर दिया है कि यह देश के संविधान के साथ खिलाफ है. इस प्रकार पाकिस्तान दंड संहिता की धारा 124ए को अमान्य कर दिया गया है.

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में ठीक यही धारा राजद्रोह से संबंधित है. इस विवादास्पद कानून पर भारतीय कार्यकर्ताओं और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार आपत्ति व्यक्त की है, यह देखते हुए कि असंतुष्टों के खिलाफ सरकार द्वारा इसका गलत तरीके से उपयोग किया जा सकता है.

भारत में  शीर्ष अदालत ने 11 मई 2022 को एक अभूतपूर्व आदेश के तहत देश भर में राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी, जब तक कोई ‘उचित’ सरकारी मंच इसका पुन: परीक्षण नहीं कर लेता.

भारत की तरह पाकिस्तान में इस कानून की उत्पत्ति औपनिवेशिक युग में हुई और इस प्रकार इसके माध्यम से कई बार सरकार के खिलाफ उपजे असंतोष को दंडित किया ​जाता है.

पाकिस्तान के डॉन अखबार के अनुसार, लाहौर हाईकोर्ट के जस्टिस शाहिद करीम ने यह फैसला दिया, जिन्होंने राजद्रोह कानून को रद्द करने की मांग करने वाली समान याचिकाओं पर सुनवाई की.

इसके खिलाफ दायर याचिकाओं में से हारून फारूक की याचिका में कहा गया था कि राजद्रोह कानून पाकिस्तान के संविधान के तहत स्वतंत्रता के कई मौलिक अधिकारों का हनन करता है.

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पाकिस्तान में इस कानून का ‘लापरवाही से’ इस्तेमाल किया गया है. इसका इस्तेमाल ‘असंतोष के दमन के लिए एक कुख्यात उपकरण’ के रूप में किया गया है और पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा गारंटीकृत मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार पर भी अंकुश लगाया गया है.

पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राजनेताओं, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह कानून के तहत मामला दर्ज किया गया था. इनमें पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान भी शामिल हैं, जिनकी गिरफ्तारी को लेकर हाल ही में उनके समर्थकों और सुरक्षा बलों के बीच हिंसक झड़प हुई थी.

फारूक की याचिका में इमरान खान के सहयोगी शाहबाज गिल के साथ-साथ पूर्व विधायक मोहसिन डावर, पश्तून तहफ्फुज आंदोलन के अली वजीर और अरशद शरीफ, खावर घुम्मन, आदिल राजा और सदफ अब्दुल जब्बार जैसे पत्रकारों के मामले का उल्लेख किया गया है.

द न्यूज़ वेबसाइट में प्रकाशित एक संपादकीय में इस घटनाक्रम पर कहा गया है:

‘हमने देखा है कि कैसे फैज अहमद फैज और हबीब जालिब से लेकर बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी से लेकर पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, नागरिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं तक एक अंतहीन सूची है, जिन पर इस कानून के तहत आरोप लगाया गया है, जिन्होंने उस समय की सत्ता व्यवस्था के खिलाफ बोलने का दुस्साहस किया था. महात्मा गांधी ने एक बार राजद्रोह के बारे में कहा था कि इसे ‘नागरिक की स्वतंत्रता को दबाने के लिए डिज़ाइन किया गया है’ और यह वही है, जो पाकिस्तान में नागरिकों के साथ किया जा रहा है.’