मुग़लों का इतिहास तो पढ़ाए न जाने के बावजूद इतिहास ही रहेगा- न बदलेगा, न मिटेगा. लेकिन छात्र उससे वाक़िफ़ नहीं हो पाएंगे और उनका इतिहास ज्ञान अधूरा व कच्चा रह जाएगा.
उत्तर प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों व शिक्षा संस्थानों पर यह तोहमत बहुत पुरानी है कि उनमें पढ़ाई-लिखाई छोड़कर सब-कुछ होता है. लेकिन पिछले दिनों योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश की इंटर कक्षाओं में मुगलों का इतिहास नहीं पढ़ाने के फैसले के बाद उस पर एक चर्चा में मैंने इस तोहमत का जिक्र किया तो एक ‘समझदार’ ने गुस्साते हुए कहा- ‘अपनी राय बदल लो. पढ़ाई-लिखाई नहीं होती तो पढ़ाई में यह ‘कटौती’ ही क्योंकर होती?’
मेरी ढिठाई कि मैंने राय नहीं बदली और पूछने लगा- ‘इस कटौती का हासिल बताइए. इससे छात्रों का ज्ञान बढ़ेगा या अज्ञान?’
समझदार ने चौंककर पूछा- ‘क्या मतलब?’
मैंने कहा- ‘यही कि पढ़ाए न जाने के बावजूद मुगलों का इतिहास तो इतिहास ही रहेगा- न बदलेगा, न मिटेगा. लेकिन छात्र उससे वाकिफ नहीं हो पाएंगे और उनका इतिहास ज्ञान अधूरा व कच्चा रह जाएगा. सरकार थोड़े से विवेक से काम लेकर उन्हें इससे बचा सकती थी- बस, इस इतिहास को जिस भी नजरिये से पढ़ाती पर पढ़ाती रहती.’
मैंने सोचा था कि समझदार को इशारा काफी होगा. पर एक तो वह पहले से भरा हुआ था, दूसरे निरुत्तर हो जाने पर भी उसे खाली होना गवारा नहीं हुआ. उसने बात ही बदल दी. कहने लगा, ‘इस देश के मुस्लिम बुद्धिजीवियों को मुगलकाल में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों के लिए माफी मांगनी चाहिए.’
मुझे लगा कि अब उससे उसी की बात करनी चाहिए. पूछा- ‘सिर्फ अत्याचारों के लिए? लूट के लिए नहीं? ‘लुटेरे’ भी तो थे मुगल?’
समझदार चुपचाप मेरा मुंह देखता रहा तो मैंने नया प्रश्न पूछा- ‘यह बात आप मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बजाय मुझसे क्यों कह रहे हैं? न मैं मुस्लिम हूं, न बुद्धिजीवी.’ अब समझदार बोला- ‘तुम्हें मुगलों के राज में कोई बुराई नहीं दिखती?’
मैंने कहा- ‘दिखती है भाई, बहुत दिखती है और उन्हीं के राज में क्यों, दूसरे साम्राज्यों में भी दिखती है. साम्राज्य बुरे नहीं होते तो हम उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में क्यों डालते भला? लोकतंत्र क्यों अंगीकार करते? ईवीएम से सरकारें क्यों निकालने लगते?’
समझदार प्रतिरक्षात्मक हो उठा- ‘योगी सरकार भी ईवीएम से ही निकली है. फिर उसके फैसले की बखिया क्यों उधेड़ रहे हो?’
मेरा जवाब था- ‘ताकि उसे सन्मार्ग पर ला सकूं. नागरिक के तौर पर यह मेरा हक भी है और कर्तव्य भी. रेलगाड़ियां लेट चलने लगें तो उन्हें वक्त की पाबंद बनाने में लगने के बजाय चुपचाप बैलगाड़ियों के युग में लौट जाना या ईवीएम से निकली सरकारें सताने लगें तो रानियों के जाए राजाओं की वापसी चाहने लग जाना मुझसे नहीं होगा.’
समझदार थोड़ा झेंप गया और बरबस बोलने की कोशिश में उसके शब्द उसके गले में ही अटके रह गए. अलबत्ता, मैंने पूछा कि क्या उसने नानाजी देशमुख का नाम सुना है, तो लगा कि ‘मोगैम्बो खुश हुआ’.
मैंने उसे बताया- ‘नाना जी का कहना था कि भले ही वे राम मंदिर के लिए आंदोलित हैं, कभी लोकतंत्र व रामराज्य के बीच चुनाव की नौबत आई तो लोकतंत्र को ही चुनेंगे. क्योंकि रामराज्य भी अंततः प्रजा का नहीं राजा का ही राज होगा. उसमें प्रजापालक होना राजा की बाध्यता नहीं, सदाशयता होगी, जबकि प्रजा को हर हाल में राजाज्ञाएं मानी होंगी.’
समझदार कहने लगा- ‘नाना जी की मिसाल देकर मुझे मुश्किल में डालना चाहते हो?’
मैंने कहा- ‘नहीं, मैं खुद बड़ी मुश्किल में फंसा हुआ हूं. वैसी ही मुश्किल में, जिसमें कभी मेरे शहर के मेरे प्रिय कवि कुंवर नारायण फंसे थे.’
गनीमत थी कि उसने ‘कौन कुंवर नारायण?’ नहीं पूछा.
उसके आग्रह पर मैंने उसे कुंवर नारायण की कविता सुनाई:
एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों—
मेरी भरपूर नफ़रत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रहीअंग्रेज़ी से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैंमुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरुनानक आंखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाताऔर ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना उन्हें अपनाएऔर वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका ख़ून कर दूं!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी मां
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता
हर समयपागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हल्का कर लूं
पर होता है इसका ठीक उलटाकोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता
फिर कहा- ‘गजब का कलेजा है आपका. आपको कभी ऐसी मुश्किल में नहीं डालता.’
उसने कहा- जो भी हो, एक दिन तुमको मुसलमानों से नफरत करनी ही पडे़गी. वरना इससे भी बड़ी मुश्किल में फंस जाओगे.’
मैंने कहा- ‘इस धमकी को मुंह पर लाने की क्या जरूरत थी आपको? उसके अंदेशे तो यों भी मुखर हैं. लेकिन क्या करूं, मुझे मेरा पड़ोसी माली भी खुद से नफरत नहीं करने देता. करने चलूं तो राह रोककर खड़ा हो जाता है. हालांकि है वह भी मुसलमान ही.’
समझदार ने ऐसा जताया कि जैसे उसे कुछ समझ में नहीं पाया. तब मैंने उसे तफ्सील से समझाया.
इस माली का मुगलों से निकट या दूर का कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन एक दिन जाने किस फितूर में मैंने सोचा कि उसे जबरदस्ती उनका वारिस मानकर उससे नफरत करना शुरू करूं. फिर जाकर कह दिया उससे कि मेरी निगाह में अब वह हिंदूविरोधी भी है और रामविरोधी भी. इसलिए श्रीमती जी ने तय किया है कि अब उसके उगाए फूल अपने भगवान को अर्पित नहीं करेंगी. सो, हर सुबह उनके लिए फूल पहुंचाने का कई सालों से चला आ रहा सिलसिला अब वह बंद कर दे. घर आकर अपना हिसाब कर ले और किस्सा खत्म करे. जिसके हृदय में न राम न वैदेही, वह हमारा वैरी ही हो सकता है, स्नेही नहीं.
लेकिन किस्सा कैसे खत्म होता! न वह गुस्साया, न झगड़ने पर उतरा, न चिरौरी-विनती पर. यह भी नहीं पूछा कि भौजाई उसके पेट पर लात क्यों मार रही हैं? हालांकि इससे पहले वे हिसाब के वक्त उसके दो-चार रुपये भी कम कर देतीं तो पापी पेट को बीच में घसीट लाता था.
एक पल को मुझे लगा कि अभी रो देगा. मगर वह अपनी रुलाई को अंदर ही अंदर पी गया. फिर बोला- ‘छोड़िए साहब, रिश्ता ही नहीं रखना तो कैसा हिसाब-किताब. सारा हिसाब साफ समझ लीजिए और कहा-सुना माफ. भगवान जैसे भौजाई को दूसरा माली देंगे, मेरे फूलों के लिए ग्राहक भी देंगे ही देंगे.’
फिर तो मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि कहूं- नहीं, श्रीमती जी के भगवान हिंदू हैं, तुम्हारे मुसलमान, और हिंदू भगवान तुम्हारे जैसे मुसलमान की जिम्मेदारी नहीं लेंगे. कैसे होती? मुझे लगा कि यह जिम्मेदारी उठाना भगवान की मजबूरी है. वैसे ही जैसे हर किसी के हृदय में वास करना. क्योंकि इसे उठाए बगैर वे न सर्वव्यापी हो सकते हैं, न ही सर्वशक्तिमान.
समझदार ने भगवान की इस मजबूरी में कोई रुचि नहीं दिखाई. पूछा- ‘फिर क्या हुआ?’ मैंने बताया- ‘क्या बताऊं, भगवान की तरह मैं भी बहुत मजबूर महसूस कर रहा हूं. ऐसा कोई हृदय ढूंढ नहीं पा रहा, जिसमें राम-वैदेही न हों. श्रीमती जी कहती हैं कि मैं ऐसा हृदय ढूंढकर भगवान राम को ही छोटा कर रहा हूं.’
समझदार हाथ जोड़ने लगा, लेकिन मैंने कहा कि बात अभी पूरी नहीं हुई, पूरी बात सुनकर जाए.
मैंने बताया, ‘कल मैं दोबारा माली के घर गया. उससे कहा कि उस दिन मैं तुमसे नफरत करने आया था. इस पर उसने मुझे याद दिलाया- 1947 में मेरे दादा डर के मारे पाकिस्तान जाना चाहते थे, लेकिन आपके दादा ने उन्हें यह कहकर रोक लिया था कि उनके रहते किस बात का डर है उन्हें? जब तक दोनों इस दुनिया में रहे, उनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती रही और किसी को भी उनका हिंदू या मुसलमान होना याद नहीं आया. उनके बेटों को भी नहीं. अब आपको याद आ रहा है तो जरूर आप अपने दादा से ज्यादा या अलग तरह के हिंदू हो गए होंगे.’
समझदार भुनभुनाने लगा- ‘उस बाबर की औलाद की यह मजाल!’
मैंने कहा- ‘बाबर नहीं, औरंगजेब कहिए. शिबली नोमानी का उलाहना याद कीजिए: तुम्हें ले-दे के, (मुगलों/मुसलमानों से सदियों लंबे वास्ते की) सारी दास्तां में याद है इतना, कि औरंगजेब हिंदुकुश था, जालिम था, सितमगर था!’
समझदार बोला- ‘जालिम और सितमगर तो वह था ही. उसने हिंदुओं पर फिर से जजिया टैक्स लगा दिया था.’
मेरा मन हुआ कि मैं उसे औरंगजेब की कुछ और कारस्तानियां बता दूं. यह कि उसने अपने साम्राज्यविस्तार के आड़े आने वाले मराठों और मुस्लिम राज्यों से लगभग एक जैसा सलूक किया. यह कि उसने सती प्रथा, जुआ, शराबखोरी और वेश्यावृत्ति रोकने के बहुत से जतन किए. यह भी कि उसने कई नशीले पदार्थो की खेती प्रतिबंधित की. लेकिन सिर्फ इतना कहा- ‘यह बात कि औरंगजेब ने हिंदुओं पर फिर से जजिया टैक्स की है, आप इसलिए जानते हैं कि आपने मुगलों का इतिहास पढ़ रखा है. अब आप उसे पढ़ाएंगे ही नहीं तो अगली पीढ़ियां कैसे जानेंगी भला? औरंगजेब क्या, वे तो अकबर के बारे में भी नहीं जानेंगी. उसके सुलहेकुल के बारे में भी नहीं. यह भी नहीं कि उसने फतेहपुर सीकरी में एक ऐसा इबादतखाना भी बनवाया था, जहां हर तरह का मजहबी खयाल और फलसफा रखने वालों का मजमा लगता था.’
अचानक समझदार ने आपा खो दिया. गुर्राकर बोला, ‘बस भी करो. हमको सम्राट अशोक तक बर्दाश्त नहीं और तुम अकबर व औरंगजेब की बात करते हो.’
मैं देर तक कभी अशोक, कभी अकबर, कभी औरंगजेब तो कभी समझदार की बाबत सोचता रहा. हां, समझदार की जमातों की बाबत भी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)