उत्तराखंड में अंग्रेज़ी की किताब में ‘अम्मी-अब्बू’ क्यों? वो भी दूसरी कक्षा की किताब में? बड़ा वाजिब सवाल था और अब भी है, लेकिन इसकी आड़ में उर्दू को निशाना बनाकर धार्मिक आस्था पर हमले की बात कहकर आप सियासी नफ़रत की वही दीवार अपने आंगन में भी खड़ी कर रहे हैं, जिसको हमारी सियासत अक्सर मज़बूत करने को तत्पर रहती है.
यूं ही कुछ हल्की-फुल्की बातें कहने आया हूं और मुझे मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का लिखा याद आ रहा है कि ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी…’
और मुश्किल ये है कि मैं चाहते हुए भी सीधे-सीधे अपनी बात नहीं कह पा रहा हूं और ऐसा भी नहीं है कि कोई गुत्थी सुलझाने बैठा हूं.
बहरहाल, आपको अपनी उलझन में शरीक करता हूं.
दरअसल, जिस वक़्त से उत्तराखंड से आने वाली ये ख़बर पढ़ी है कि दूसरी कक्षा की अंग्रेज़ी की पाठ्यपुस्तक में ‘मदर-फ़ादर’ के लिए ‘अम्मी-अब्बू’ कथित तौर पर ‘उर्दू शब्दों’ के इस्तेमाल पर आपत्ति के बाद जांच के आदेश दिए गए हैं; मेरी ज़ेहनी हालत ग़ालिब के लफ़्ज़ों में कुछ यूं है कि; ‘हैरां हूं दिल को रोऊं कि पीटूं जिगर को मैं…’
ये मातम सा कुछ, इसलिए नहीं है कि किसी शब्द के प्रयोग पर ‘सवाल’ उठाए गए हैं, शायद मैं भी अपने बच्चे की किताब में संदर्भ से अलग ‘अम्मी-अब्बू’ या किसी और ग़ैर-ज़रूरी शब्द का प्रयोग देख लूं तो अपनी आपत्ति पूरी ताक़त के साथ दर्ज करवाऊंगा.
मेरी झुंझलाहट इस मामले में ‘आपत्ति’ के अंदाज़ और तौर-तरीक़े पर है, असल में दूसरी कक्षा की अंग्रेज़ी में ‘अम्मी-अब्बू’ के इस्तेमाल को ‘अनुचित/शरारतपूर्ण’ कहना कई मायनों में जायज़ हो सकता है और है, लेकिन जब इन शब्दों के प्रयोग को ‘धार्मिक आस्था पर हमला’ और ‘धर्म-विरोधी प्रथा’ बताते हुए धूर्तता के साथ एजेंडा सेट करने के लिए ‘उर्दू शब्द’ कहा गया, तब महसूस हुआ कि अब लोग हर मसले को ‘मज़हबी रंग’ देकर अपनी प्रायोजित विचारधारा के सहारे सियासी रोटी सेंकने का कोई अवसर गंवाना नहीं चाहते.
हमें समझना होगा कि अपने जायज़ ऐतराज़ को भी सियासी विरोध और नफ़रत का रंग देकर कई बार हम अपना ही नुक़सान कर लेते हैं.
अंग्रेज़ी की किताब में ‘अम्मी-अब्बू’ क्यों? वो भी दूसरी कक्षा की किताब में? बड़ा वाजिब सवाल था और अब भी है, लेकिन इसकी आड़ में उर्दू को निशाना बनाकर धार्मिक आस्था पर हमले की बात कहकर आप सियासी नफ़रत की वही दीवार अपने आंगन में भी खड़ी कर रहे हैं, जिसको हमारी सियासत अक्सर भाषा और कपड़े के नाम पर मज़बूत करने को तत्पर रहती है.
इस मामले में जब बच्चे के पिता कहते हैं कि हिंदी की किताबों में ‘माता-पिता’ और उर्दू की किताबों में ‘अम्मी-अब्बू’ का इस्तेमाल होना चाहिए, तब लगता है कि वो भाषा के स्वभाव की बात कर रहे हैं और हमारी भाषा के मिज़ाज के हिसाब से ये बात उतनी ग़लत भी नहीं है.
लेकिन, यहां समझना होगा कि वो पहले ही ‘धार्मिक आस्था’ और ‘धर्म-विरोधी प्रथा’ की बात कहकर भाषा को कहीं न कहीं धार्मिक (हिंदू और मुसलमान) मुद्दा बना चुके हैं.
और अगर कहीं कोई कोर-कसर रह गई थी तो ‘हिंदू वाहिनी’ ने इस ‘विरोध’ के सुर में सुर मिलाकर उसकी भी पूर्ति कर कर दी है.
अब आप कहेंगे कि उन्होंने ‘धार्मिक आस्था’ और ‘धर्म-विरोधी प्रथा’ की बात कही है, इन शब्दों को ‘उर्दू’ कहा है, लेकिन कहीं भी ‘मुसलमान’ या ‘हिंदू’ जैसी बात नहीं कही है, तो मैं कहूंगा आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन ज़रा ठहरिए कि ‘अम्मी-अब्बू’ अगर उनके लिए सिर्फ़ ‘उर्दू शब्द’ होता तो उनकी आपत्ति का अंदाज़ ज़रा सा सभ्य और सौम्य होता, लेकिन ऐसा है नहीं, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचने वाली उनकी व्याख्या और उनके हिसाब से इसके ‘धर्म विरोधी प्रथा’ होने के कारण हमारी कथित सांस्कृतिक खाई का अंधेरा भले से यहां नज़र न आए, उस सियासी इरादे को तो कोई भी पहचान सकता है जो पाठ्यपुस्तकों से महात्मा गांधी और आरएसएस संबंधी टेक्स्ट को हटाना चाहता है या मुग़लों के इतिहास को मिटा रहा है.
बहरहाल, मैं इस सोच की सियासत और उसकी व्याख्या में पड़ना नहीं चाहता, हां, ‘उर्दू शब्द’ ‘अम्मी-अब्बू’ के धर्म विरोधी होने पर दो एक बातें ज़रूर कहना चाहता हूं और उसमें पहली बात तो यही है कि उर्दू मुसलमानों की या इस्लामी ज़बान नहीं है और ये किसी भी हिंदुस्तानी भाषा से कम हिंदुस्तानी नहीं है, मतलब इस भाषा में ‘धर्म-विरोधी प्रथा’ के बारे में सोचना कम से कम मेरे लिए मुश्किल है.
हमारे बड़ों ने तो उर्दू लिपि में भी ख़त लिखते हुए ‘पिता जी’ ‘बाबू जी’ जैसे शब्दों के अलावा तमाम हिंदी समझे जाने वाले शब्दों का ख़ूब इस्तेमाल किया है, आप कह सकते हैं कि ये उनकी अपनी आज़ादी रही होगी.
जी, ये सिर्फ़ उनकी आज़ादी नहीं थी, बल्कि भाषाओं और हमारे रहन-सहन के लिए भी किसी क़दर खुला आसमान था. इसलिए आज हम अपने-अपने धर्म की किताबें उर्दू में भी पढ़ सकते हैं, ये और बात है कि हमारे बड़ों ने जिन-जिन भाषाओं में अपने धर्म और जीवन को आत्मसात किया, हमने उनसे जी भर नफ़रत करना सीख लिया है.
खैर, एक हिंदुस्तानी भाषा की हैसियत से उर्दू की ख़ूबियां भी वही हैं, जो मिसाल के तौर पर इस मुल्क की हैं, इसका कोई एक रंग नहीं है, इसमें सारे रंग और मौसमों का जश्न मनाया गया है.
अब ‘अम्मी-अब्बू’ जैसे शब्द में ‘अम्मी’ को ही देख लीजिए कि उर्दू ने इसको कहां से हासिल किया? आप किसी भाषाविद से बात कर लीजिए या फिर कुछ अच्छे मानक शब्दकोष उलट लीजिए पता चलेगा कि इस शब्द का अरबी के ‘उम्म’ या ‘उम्मी’ से कोई लेना देना नहीं है, ये विशुद्ध रूप से ‘प्राकृत’ भाषा से आया है, जिसमें ‘अंबा’, ‘मां’ और ‘माई’ जैसे शब्दों की अपनी यात्रा शामिल है और कुछ लोगों ने तो इसे सीधे-सीधे हिंदी शब्द भी कह दिया है.
हालांकि, अगर किसी को इसे अरबी शब्द साबित करने की ज़िद हो तो भी इसे हम धर्म-विरोधी बताने के लिए ‘इस्लामी शब्द’ तो नहीं ही कह सकते.
इसी तरह ‘अब्बू’ का ‘अब’ अरबी से आया है, कुल-मिलाकर उर्दू ने दुनिया-जहान की सैर की है, और विशुद्ध हिंदुस्तानी परंपरा ने इसे रूप और आकार दिया है.
अगर ‘अम्मी-अब्बू’ इस्लामी शब्द होते तो दुनिया के सारे मुसलमान इसका इस्तेमाल कर रहे होते? कम से कम अरब के मुसलमान तो कर ही रहे होते.
मगर अफ़सोस ऐसा है नहीं.
हां, ‘मां’ जैसे एहसास शब्द नहीं – के सिलसिले में कुछ जानकारों ने भाषा के बनने और रूप लेने से इतर इसे यूनिवर्सल-साउंड की उत्पत्ति बताया है. उनके मुताबिक़, बच्चा जब आवाजें निकालने लगता है तब ‘अम अम, मम मम…’, जैसी आवाज़ें निकालता है, इसलिए दुनिया की कई ज़बानों में ‘मां’ के लिए बोला जाने वाला लफ़्ज़ एक जैसा लगता है.
बहरहाल, मैं यहां किसी भाषाविद की तरह बातें करके उर्दू की तरफ़ से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश नहीं करना चाहता और न ही इतनी मेरी हैसियत है. लेकिन हमें समझना होगा कि हम अपने जायज़ सवालों के साथ भी उसी समय तक सच्चे और ईमानदार हो सकते हैं, जब तक कि हमारा कोई ऐसा छिपा हुआ सियासी एजेंडा न हो, जिसमें किसी दूसरे के लिए नफ़रत हो और हम अपने ‘धार्मिक’ होने का बे-मतलब ही ढोल भी पीट रहे हों.
बात बहुत साफ़ है कि किताब अंग्रेज़ी में है और अगर किसी ख़ास संदर्भ में बात नहीं कही जा रही है तो ‘अम्मी-अब्बू’ या ‘माता-पिता’ नहीं ‘मदर-फ़ादर’ ही होना चाहिए, लेकिन ये क्या कि हम अपने विरोध और नफ़रत में अंधे होकर तिल का ताड़ भी बनाने लग जाएं.