उत्तराखंड के एक छोटे-से क़स्बे नानकमत्ता के एक स्कूल में छात्रों को परंपरागत शिक्षा के साथ-साथ सिनेमा को एक पढ़ाई के ही एक नए माध्यम के रूप में जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है.
एक दौर था जब सिनेमा देखना सिर्फ मनोरंजन का माध्यम मात्र माना जाता था लेकिन आज ऐसा नहीं है. अब सिनेमा मनोरंजन से आगे बढ़कर हमारे बीच तार्किक बहसों को शुरू करने का जरिया भी बन रहा है. इसी कड़ी में बीते 26 और 27 मार्च 2023 को उत्तराखंड के एक ग्रामीण क़स्बे ‘नानकमत्ता’ में दो दिवसीय ‘फिल्म फेस्टिवल’ का आगाज़ हुआ. इसका नाम ‘नानकमत्ता फिल्म फेस्टिवल’ रखा गया.
फेस्टिवल को आयोजित करने में इसी क्षेत्र से ‘नानकमत्ता पब्लिक स्कूल’ के छात्रों ने अग्रणी भूमिका निभाई. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में किसी स्कूल के छात्रों द्वारा आयोजित यह पहला फिल्म फेस्टिवल है.
सिनेमा को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि यह हमारे समाज का दर्पण है क्योंकि सिनेमा में हम जो कुछ भी देखते हैं वह समाज का प्रतिरूप है और अलग-अलग रूपों में ही सही लेकिन इसका कथानक, चरित्र व घटनाएं हमारे समाज से ही प्रेरित हैं. इसी संदर्भ में जब हम दृश्यों के जरिये समाज की भिन्नताओं को देखते हैं, समझते हैं व उन पर बात करते हैं तो समाज को और अधिक बेहतर तरीके से समझ पाते हैं. साथ ही बातचीत का एक तर्कशील आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी बना पाते हैं. इसी उद्देश्य से इस फिल्म फेस्टिवल की नींव रखी गई.
इस फेस्टिवल को सफल बनाने में छात्रों ने एक अहम भूमिका निभाई लेकिन छात्रों को इस स्तर तक पहुंचाने में नानकमत्ता पब्लिक स्कूल ने एक लंबी यात्रा तय की है. इस यात्रा में अनेकों ऐसे प्रयोग शामिल हैं जिससे छात्र हमेशा कुछ नया सीखते रहे हैं. स्कूल में समय-समय पर विज्ञान, भाषा, कला, थिएटर, संगीत, शिक्षा, खेल, मीडिया, लेखन, परिचर्चा, और सिनेमा जैसे अनेकों विषयों पर संबंधित क्षेत्र के अनुभवी व्यक्तियों द्वारा छात्रों की कार्यशाला कराई जाती रही है.
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल पिछले एक दशक से ग्रामीण उत्तराखंड में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा है. परंपरागत शिक्षा से इतर, यहां सीखने के सरल, सहज और खेल संबंधी तरीकों की ओर कदम बढ़ाया जा रहा है. यहां शिक्षक और शिक्षार्थी साथ मिलकर शिक्षा को मज़ेदार बनाने का काम करते हैं. इसी कड़ी में नया प्रयोग सिनेमा को लेकर हो रहा है. यह बात भी प्रमाणित है कि ऑडियो-विजुअल माध्यम बहुत शक्तिशाली है जो दर्शकों पर एक गहरी छाप छोड़ता है इसलिए सिनेमा को अध्ययन में शामिल करना बहुत प्रभावी है.
यहां छात्र समय-समय पर सिनेमा देखते रहे हैं. साथ ही सिनेमा क्षेत्र से जुड़े अनुभवी व्यक्तियों द्वारा आयोजित कार्यशाला में भाग लेते रहे हैं. यहां एक व्यक्ति ‘संजय जोशी’ का जिक्र करना जरूरी है जो डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति व फिल्म एक्टिविस्ट हैं, जो पिछले बीस वर्षों से इस क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे हैं.
जोशी पूरे देश भर के अलग-अलग शहरों में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करते रहे हैं. साथ ही साथ गांवों, कस्बों, शहरों और मोहल्लों तक में सिनेमा ले जाकर दिखाने और उस पर बातचीत करने का एक दौर शुरू किया है. इन्होंने यहां के छात्रों के लिए सिनेमा को लेकर कई कार्यशालाओं का आयोजन किया है. जिसमें सिनेमा को कैसे देखें?, उनके संदर्भों को कैसे समझें, व उस पर बातचीत कैसे करें? जैसे विषय शामिल हैं. साथ ही डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को भी छात्रों ने इन कार्यशालाओं में बख़ूबी सीखा और समझा है.
इस तरह के प्रयासों और अभ्यासों से प्रेरित होकर स्कूल के छात्रों ने दो डॉक्यूमेंट्री- ‘गुर्जर और तराई’, ‘गोल्ड इन द नेट’ जैसे फिल्में भी बनाई हैं.
इस प्रयास को अधिक मज़बूत करने और एक ढांचागत रूप देने के लिए स्कूल ने ‘सिनेमा इन स्कूल’ नाम की संस्था के साथ साझेदारी की है. यह संस्था स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सिनेमा को एक नए माध्यम के रूप में पाठ्यक्रम से जोड़ने का प्रयास कर रही है. इस संस्था में मुख्य रूप से चार लोग कार्यरत हैं जो संस्था के संस्थापक भी हैं. संस्थापक सदस्यों में फिल्म एक्टिविस्ट संजय जोशी, शोधकर्ता, पूर्व प्रोफेसर व फिल्मकार फ़ातिमा नज़रुद्दीन, स्वतंत्र पत्रकार व फिल्म मेकर सौरभ वर्मा और सिनेमा अध्ययनकर्ता अतुल कुमार शामिल हैं.
संस्था का मकसद स्कूलों में सिनेमा के जरिये बच्चों के भीतर एक ऐसी मजेदार गतिविधि को शुरू करना है जो उन्हें देश-विदेश के सिनेमा से परिचित कराते हुए एक बेहतर मनुष्य बनाने के काम को भी संजीदगी के साथ पूरा करे. इस पहल का मकसद फिल्म स्क्रीनिंग के जरिये बच्चों के अंदर लोकतंत्र, विविधता और बहुलतावाद जैसी अमूर्त अवधारणाओं की क्रिटिकल समझ विकसित करना भी है.
यह संस्था अपने इस प्रयास को सफल बनाने के लिए देश के दो राज्यों बिहार और उत्तराखंड के स्कूलों के साथ कार्य कर रही है. बिहार के किशन गंज में सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन जिसे साक़िब अहमद चलाते हैं और उत्तराखंड में नानकमत्ता पब्लिक स्कूल इसी प्रयास का एक हिस्सा है. संस्था की ओर से अतुल कुमार नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में छठी से बारहवीं कक्षा तक के छात्रों को पढ़ा रहे हैं.
संस्था ने शुरुआती पड़ाव में सामाजिक अध्ययन को अपने विषय क्षेत्र के रूप में चुना है. पाठ्यक्रम को इस तरह तैयार किया गया है कि कक्षा में छात्रों को उनके पाठ्यपुस्तक से गुजरते हुए सिनेमा के जरिये एक तर्कसंगत बातचीत का स्थान तैयार किया जा सके. पहले छात्रों को किताब का अध्याय पढ़ाया जाता है, उस पर चर्चा की जाती है फिर संबंधित डॉक्यूमेंट्री दिखाई जाती है और उसके संदर्भों के जरिये चर्चा को आगे बढ़ाया जाता है. इसके बाद छात्रों ने विषय के बारे में क्या समझा, क्या जाना, चर्चा को अपने समुदाय या समाज से कैसे जोड़- इन सभी बिंदुओं पर लिखने के लिए कहा जाता है. अगले दिन पुनः छात्रों के लिखे फीडबैक पर चर्चा होती है.
इस सिलसिले को जारी रखते हुए ‘सिनेमा इन स्कूल’ के मार्गदर्शन से स्कूल में एक एनपीएस फिल्म क्लब बनाया गया. फिल्म क्लब में छठी से बारहवीं कक्षा तक के छात्र शामिल हैं. इस क्लब को बनाने का उद्देश्य यह था कि छात्र सिनेमा से जुड़ी अन्य गतिविधियों का हिस्सा बन सके, जैसे स्कूल में सभी छात्रों के लिए फिल्मों की स्क्रीनिंग करना, छात्रों द्वारा फिल्म से जुड़ी मासिक पत्रिका तैयार करना व आसपास के गांवों में समुदाय के लोगों के लिए फिल्म स्क्रीनिंग आयोजित करना. यह सभी जिम्मेदारी फिल्म क्लब के सभी छात्रों की है जिन्हें अतुल कुमार मेंटर करते हैं.
इस तरह छात्रों द्वारा फिल्म देखने और दिखाने के प्रयास से छात्र फिल्म की शब्दावली व फिल्म स्क्रीनिंग की प्रक्रिया को भी सीख रहे हैं. जैसे, फिल्म के चित्र, कथानक, चरित्र, घटनाओं और विषय के संदर्भों को समझना, फिल्म स्क्रीनिंग के लिए एक सिनेमेटिक स्पेस का निर्माण करना, फिल्मों के चयन से संबंधित पहलुओं को समझना, फिल्म के जरिये बातचीत करना, संचालन करना व समूह में कार्य करना आदि. एनपीएस फिल्म क्लब द्वारा स्कूल में हर रविवार को एक सामूहिक फिल्म स्क्रीनिंग भी आयोजित कराई जाती है जिसमें सभी कक्षा के छात्र व शिक्षक आमंत्रित होते हैं.
नानकमत्ता फिल्म फेस्टिवल भी इसी सिनेमा प्रयोग का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य है कि नानकमत्ता जैसे ग्रामीण कस्बे के लोग वैकल्पिक सिनेमा भी देखें. साथ ही फिल्मों के जरिये समाज, राजनीति, संस्कृति और शिक्षा पर तार्किक बातचीत का नया मंच तैयार हो सके. इन्हीं उद्देश्य के साथ फिल्म क्लब के सभी छात्रों ने मिलकर फेस्टिवल का आयोजन किया.
फिल्म फेस्टिवल की तैयारियों में भी छात्र कार्य करते हुए अनेक चीजें सीखीं, जैसे- छात्रों ने कार्यों को कई समूह बनाकर आपस में बांट लिया. एक समूह पोस्टर बना रहा था, दूसरा समूह फिल्मों का चयन कर रहा था, तीसरा समूह तकनीकी जरूरतें पूरी कर रहा था, चौथा फिल्म स्क्रीनिंग के लिए कमरा तैयार कर रहा था, पांचवां समूह सभी कक्षाओं के छात्रों को अनुशासन में स्क्रीनिंग कमरे तक लाने-ले जाने का कार्य देख रहा रहा था, छठा समूह सोशल मीडिया पर प्रचार-प्रसार का कार्य देख रहा था, सातवां समूह कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी संभाल रहा था और आठवां समूह यूनिवर्स ऑफ सिनेफाइल्स (Universe of Cinephile) नाम से एक पत्रिका तैयार कर रहा था जिसमें छात्रों ने फिल्मों के बारे में समीक्षा आलेख व अपने विचार लिखे थे.
फेस्टिवल में प्रदर्शित फिल्मों का चयन भी बहुत रोचक था, जिसमें चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी द्वारा 2006 में निर्मित संकल्प मेश्राम की फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ थी, जिसमें महाभारत की गाथा का इस्तेमाल करते हुए समाज के वर्गीकरण, सत्ताधारी वर्ग द्वारा शोषण और भ्रष्ट अफसरशाही जैसे विषयों पर सांकेतिक तौर पर बात रखती है.
कुंदन शाह द्वारा 1983 में निर्मित फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ दिखाई गई, जो भ्रष्टाचार जैसे विषय पर हास्य और व्यंग्यात्मक तरीके से बहस छेड़ती है. गीतांजलि राव की लघु फिल्म ‘चाय’ बेरोजगारी, महिला शिक्षा, महिला सुरक्षा, प्रवास, हिंसा और कश्मीर की राजनीतिक स्थिति जैसे कई मुद्दों की तरफ ध्यान आकर्षित करती है. टीजे ग्नानावेल की 2021 में निर्मित फिल्म ‘जय भीम’ समाज में फैली जातिगत भेदभाव, संवैधानिक अधिकार व न्याय व्यवस्था जैसे विषय पर बहुत ही आक्रामक दृश्यों और संवादों के जरिये मन को झकझोरते हुए कई सवाल उठाती है.
साथ ही, छोटी कक्षा के छात्रों के लिए भी कुछ फिल्मों का चयन किया गया था जैसे, रिधम जानवे की ‘कंचे और पोस्टकार्ड’(2013), चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी की एनिमेटेड फिल्म ‘चिड़ियारानी चतुर बहादुर (1991)’, डायने जैक्सन की एनिमेटेड फिल्म ‘द स्नोमैन (1982)’ और फिल्म डिविजन द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री ‘आई एम 20 (1967)’.
इन दो दिनों के फेस्टिवल के बाद छात्रों का उत्साह और बढ़ गया है. छात्र अगले वर्ष भी फिल्म फेस्टिवल आयोजित करने की योजना बना रहे हैं. इस बार यह फेस्टिवल सिर्फ छात्रों को समर्पित था लेकिन आने वाले दिनों में गांव के लोगों को भी शामिल करने की योजना बन रही है. साथ ही अब छात्र फिल्मकारों को भी बुलाना चाहते हैं. कुछ छात्र मोबाइल से फिल्म बनाने के बारे में भी चर्चा कर रहे हैं.
हमारे लिए छात्रों का इस तरह से सोच पाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है. अब लगातार सिनेमा को पाठ्यपुस्तक से जोड़कर पढ़ाते हुए एक बदलाव दिखने लगा है. जब छात्र अपने अध्याय से संबंधित फिल्म देख रहे हैं तो विषय को जल्दी समझ भी पा रहे हैं. ये परिणाम हमें भी उत्साहित कर रहे हैं कि छात्रों को सिनेमा के जरिये पढ़ाना कारगर है.
इस सफलता को देखते हुए ‘सिनेमा इन स्कूल’ संस्था सिनेमा प्रयोग को अन्य स्कूलों से जोड़ने की योजना बना रही है. शिक्षा क्षेत्र में इस तरह के प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है जिससे छात्रों को पढ़ने और सीखने के नए-नए आयामों से जोड़ा जा सके.
(लेखक फिल्म अध्ययन के छात्र रहे हैं और बीते कुछ समय से ‘सिनेमा इन स्कूल’ अभियान के तहत नानकमत्ता पब्लिक स्कूल के लिए सिनेमाई पाठ्यक्रम बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं.)