अमेरिका हो या भारत, पाठ्यपुस्तकों को बैन करने, उन्हें संशोधित करने या उन्हें चुनौती देने की प्रक्रिया स्वतःस्फूर्त नहीं होती. इसके पीछे रूढ़िवादी, संकीर्ण नज़रिया रखने वाले संगठन; समुदाय या आस्था के आधार पर एक दूसरे को दुश्मन साबित करने वाली तंज़ीमें साफ़ दिखती हैं.
‘टू किल ए माॅकिंग बर्ड’- हार्पर ली नामक लेखिका का यह इस उपन्यास (प्रकाशन वर्ष 1960) विश्वभर में चर्चित है. उपन्यास का फोकस श्वेत युवती के साथ बलात्कार के फर्जी आरोप में फंसाए गए एक अश्वेत युवक को दोषमुक्त साबित करने के लिए एटिकस फिंच (Atticus Finch) नामक श्वेत वकील के लगभग अकेले संघर्ष की कहानी बयां करता है.
एक ऐसे वक्त़ में जबकि अमेरिका में अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए सरगर्मियां धीरे-धीरे बढ़ रही थीं, उन दिनों प्रकाशित इस उपन्यास ने पाठकों की कई पीढ़ियों का प्रभावित किया है और तमाम लोगों को प्रेरित किया है कि वह नस्लीय शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाएं.
कुछ साल पहले दुनिया के अग्रणी लाइब्रेरियनों द्वारा इस किताब को सबसे जरूरी पठनीय किताब घोषित किया गया है, लेकिन इस वजह से अमेरिका के अलग-अलग स्कूलों में विभिन्न वजहों से इस पर पाबंदी लगने या उसे चुनौती देने के मामले में कोई कमी नहीं आई है. कहा जाता है यह किताब आज भी इस फेहरिस्त में टाॅप पर बताई जाती है.
जानकारों के मुताबिक, किताबों पर पाबंदी लगाने या उन्हें चुनौती देने के मामले में अमेरिका के अंदर हाल के समयों में तेजी आई है. बहुचर्चित किताबों को अदालती कार्रवाइयों को झेलना पड़ा है कि वह युवा पाठकों के लिए अनफिट है. जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि इसने स्कूलों में दमघोंटू वातावरण को निर्मित किया है, अलग-अलग मसलों पर विचारों के मुक्त आदानप्रदान को कुंद किया है और स्कूल के अंदर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के छात्रों के संवैधानिक अधिकार को गंभीरता से बाधित किया है.
भारत के अंदर की स्थिति, जिसके शासक इन दिनों अपने आप को ‘मदर आफ डेमोक्रेसी’ अर्थात जनतंत्र की मां के तौर पर पेश करने में फख्र महसूस करते हैं- उसकी स्थिति दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र के बरअक्स गुणात्मक तौर पर अलग नहीं है, बल्कि बदतर है.
छात्र क्या पहनें या न पहने से लेकर वह क्या खाएं या न खाएं या स्कूल के परिसर में कौन से गाने/प्रार्थनाएं गाएं या किन उत्सवों को मनाए, छात्र जीवन के हर पहलू को विवादास्पद बना दिया गया है और स्कूली वातावरण को विषाक्त बनाया जा रहा है. पाठ्यक्रमों में मनमाने किस्म के बदलाव, जिनमें ने शिक्षाशास्त्रीय (पेडागाॅगिकल) मानदंडों का ध्यान रखा जाता हो या क्षेत्र के विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा किया जाता हो- आम हो गए हैं, जिस रास्ते एक तरह से केंद्र में सत्ताधारी हिंदुत्व वर्चस्वववादी जमातों के नज़रिये का सामान्यीकरण किया जा रहा है.
एनसीईआरटी, जिसका गठन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के जमाने में एक स्वायत्त संस्थान के तौर पर हुआ और जिसके जरिये स्कूली शिक्षा की बेहतरी के लिए नीतिगत और कार्यक्रमगत सलाह-मशविरे का सिलसिला शुरू किया गया, वह इन दिनों विवादों के केंद्र में है.
वजह यह है कि उसके द्वारा तैयार की गई छठवीं से 12 वीं तक की कक्षाओं की समाजविज्ञान और राजनीतिविज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को बिना जानकारों, विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा किए संपादित कर छात्रों के सामने नए संस्करण के तौर पर पेश किया गया है. और तर्क दिया गया है कि यह पूरी कवायद ‘छात्रों का बोझ कम करने’ और पाठ्यक्रम का ‘रैशनलायजेशन’ (सुव्यवस्थीकरण) के नाम से की जा रही है.
आखिर इस पूरी कवायद को लेकर असंतोष के स्वर, असहमति की आवाज़ें क्यों उठ रहे हैं? एक पहलू प्रक्रियाओं के पालन का है, दूसरा पहलू कंटेट का है और तीसरा पहलू पुनर्लेखन के पीछे की प्रणाली से जुड़ा है.
किसी महान पेंटर की कलाकृति को किसी साधारण चित्रकार से ‘सुधारने’ की कवायद!
अगर हम थोड़ा पीछे मुड़कर देखें, तो एनसीईआरटी की इन किताबों को इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के मध्य में प्रोफेसर यशपाल जैसे जाने-माने शिक्षाविद की अगुआई में बनी कमेटी के सलाह के बाद निर्मित किया गया. शिक्षा के केसरियाकरण के आरोपों से घिरी रही वाजपेयी सरकार की केंद्र से बेदखली के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में बनी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की अगुआई में यह काम शुरू हुआ (2004), जब शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह थे.
इन किताबों के निर्माण में देश के अग्रणी समाजविज्ञानी और राजनीतिविज्ञानी, इतिहासकार तथा अन्य विषयों के जानकारों को शामिल किया गया. कई दौर के बातचीत के सत्र चले तथा उसके बाद ही इन किताबों को अंतिम रूप दिया गया.
याद रहे, रिवाज यही है कि अग्रणी अकादमिकों तथा एनसीईआरटी के विशेषज्ञों के आपसी संवाद के बाद खास विषय के पाठ्यक्रम तय होते हैं तो क्षेत्र के विशेषज्ञों और प्रोफेसरों की एक कमेटी बनती है, जो पाठ्यक्रम पर विचार करती है और फिर किन पहलुओं पर जोर दिया जाए, कैसे नई-नई बातें शामिल की जाए और फिर अलग-अलग अध्यायों को आपस में बांटकर उसका लेखन होता है.
एक मसौदा पाठ्यपुस्तक तैयार हो जाए तो पाठ्यपुस्तक निर्माण से संबंधित शिक्षकों की सहायता से कार्यशाला चलती है, सैंपल कक्षाओं में उसे पढ़ाया जाता है और अंततः सभी से आने वाले फीडबैक को लेकर उसे अंतिम रूप प्रदान किया जाता है.
ध्यान रहे कि पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में जिस सख्ती की जरूरत होती है, उसी किस्म की प्रक्रिया उसके संशोधन की होती है. ऐसा नहीं हो सकता है अकादमिकों, विशेषज्ञों, अध्यापकों के आपसी विमर्श के बाद जो पाठ्यपुस्तक तैयार कर दी गई, उसमें सुधार करने की प्रक्रिया को एडहाॅक ढंग से अर्थात तदर्थ ढंग से अंजाम दिया जाए.
विडंबना यही है कि पाठ्यपुस्तकों के सुव्यवस्थीकरण (रैशनलायजेशन) के नाम पर चलाई गई ताज़ा इस प्रक्रिया में इन पहलुओं की पूरी तरह अनदेखी की गई.
आम तौर पर होता यही है कि ऐसे संशोधनों के पहले एनसीईआरटी की तरफ से यह संकेत भी दिया जाता है कि वह क्या चाह रही है, जो बातें फिर विशेषज्ञों, अकादमिकों के लिए गाइडलाइन का काम करती है. काउंसिल की तरफ से कोई बैठक बुलाने या आपसी विचार-विमर्श की प्रक्रिया चलाना तो दूर रहा, पाठ्यपुस्तकों में संभावित सुधारों के बारे में भी क्षेत्र के जानकारों को कुछ नहीं बताया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि काउंसिल के चंद कर्मचारी अध्यापकों ने गुपचुप तरीके से अंजाम दिया और संपादित किताब मुद्रण के लिए भेज दी.
क्या इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि देश विदेश के स्तर पर अपने क्षेत्र के अग्रणी विद्वानों ने समय निकालकर जिन पाठ्यपुस्तकों को तैयार किया, उन्हें दफ्तर में बैठा छोटा क्लर्क संपादित कर सकेगा. यह उसी तरह से होगा कि किसी महान पेंटर की कलाकृति को किसी मामूली चित्रकार से सुधारा जाए.
अगर एक क्षण के लिए मान लें कि एनसीईआरटी किताबों की मोटाई, उसके पन्नों को कम करना चाह रही थी, तो वह उन सभी विद्धानों को लिख देती कि आपने मिलकर जिस अध्याय को बच्चों के लिए लिखा है, उसमें से अपने हिसाब से दस या बीस फीसदी हिस्सा हटा दें और हमें संशोधित कर भेज दें, क्या इस क्षेत्र के विद्वान इससे दूर रहते? नहीं!
दरअसल, सरकार को इस बात का डर था कि अगर यह काम उन्हीं विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाए, तो सरकार जिन-जिन हिस्सों को छांटना चाह रही है, वह हिस्से हट नहीं सकेंगे!
और वही हुआ जिसका अंदेशा था.
विद्वतजनों की लिखी किताबों को सरकार समर्थक नौकरशाहों ने हिंदुत्व वर्चस्ववादी संगठनों के हिमायतियों की सहायता से छांट दिया गया, जिसे लेकर दुनिया भर में उसकी आज हंसी उड़ रही है और लोगों को इसमें साफ दिख रहा है कि इस कांटछांट का असली एजेंडा हिंदुत्व के विचार को नई मजबूती देना है.
गांधी के हत्यारे अतिवादी और उसके पीछे खड़े संगठन के साफ-सुथरीकरण के मायने
अगर हम अलग-अलग अख़बारों में इससे संबंधित समाचारों को पलटें तो पता चलता है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगल काल तक के महत्वपूर्ण अंशों, जाति के इर्दगिर्द पहले के संस्करणों में चली चर्चा या महात्मा गांधी के हत्यारे हिंदुत्व अतिवादी नाथूराम गोडसे या इस हत्या की साजिश में शामिल हिंदुत्व वर्चस्ववादी जमातों को अधिक तटस्थ रूप में, सैनिटाइज अर्थात साफ-सुथराकृत रूप में पेश किया गया है.
वर्ष 2002 के गुजरात दंगे, जिसमें राज्य की अकर्मण्यता और निरपराध नागरिकों के खिलाफ बहुसंख्यक संप्रदायवादी संगठनों के सुनियोजित हिंसाचार की देश और देश के बाहर भी जबरदस्त आलोचना हुई, यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्य में उन दिनों कायम उनकी ही पार्टी की सरकार को राजधर्म का पालन करने का निर्देश दिया और एक तरह से सार्वजनिक तौर पर इस सूबाई सरकार की आलोचना, इन सब चर्चाओं को ताज़ा संस्करण से गायब कर दिया गया है.
यहां नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात की इन हिंसक घटनाओं को लेकर देश और विदेश के 45 से अधिक नागरिक अधिकार संगठनों ने अपनी अपनी फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट जारी की थी और इन घटनाओं के चलते देश की बेहद नकारात्मक छवि दुनिया के पैमाने पर बनी थी.
जिन अध्यायों या जिन हिस्सों को छांटा गया है, उन पर सरसरी निगाह भी डालें तो हड़बड़ाहट के साथ, आनन-फानन में चलाई गई इस प्रक्रिया की झलक मिलती है कि इसमें किस तरह सुसंगति का अभाव रहा है, जिसके चलते भारत के संविधान के माध्यम से भारत की जो छवि प्रतिबिंबित होती है, जिस साझी विरासत, आपसी समुदायों के सद्भावपूर्ण रिश्तों की बात करते हुए हम बड़े हुए हैं, यह छवि तार-तार होती दिखती है और भारत की एकांगी छवि प्रोजेक्ट होती है.
पाठ्यक्रमों की कांट-छांट का दायरा सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों तक भी फैला है, जिसमें फिर नक्सलवाद से नर्मदा आंदोलन, चिपको आंदोलनों से संबधित हिस्सों को काट-छांट दिया गया है या हटा दिया गया है. ‘द हिंदू’ अख़बार ने इस बात की चर्चा भी की है कि किस तरह कुपोषण से जुड़ी चर्चाओं को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.
जितनी हड़बड़ाहट में चीजों को संपादित किया गया है, उसमें दो अन्य दिक्कतें हैं. पहली समस्या शिक्षाशास्त्र से संबंधित है, दूसरी समस्या इसमें है कि क्या काउंसिल के अग्रणी इस बात से बेख़बर हैं कि किताबों के संपादित हिस्से बच्चों को देकर वह उन्हें वास्तविक जानकारी पाने से वंचित कर सकेंगे, निश्चित ही नहीं.
दरअसल, इंटरनेट के जमाने में अगर कोई हुकूमत यह सोचे कि बच्चों तक वह सही जानकारी नहीं पहुंचने देगी तो यह उसकी मुगालता है, उससे अधिक कुछ नहीं. लोकतंत्र के आवरण में लिपटी हर अधिनायकवादी हुकूमत ऐसे ही भ्रम में जीती है और एक दिन सत्ता के गलियारों से अपने आप को बेदखल पाती है.
हिंदुत्व: औपनिवेशिक आख्यान का वाहक?
क्या हम यह कहना चाहते हैं कि इतिहास का पुनर्लेखन नहीं होना चाहिए?
ऐसी अहमक जैसी बात कौन कर सकता है. प्रख्यात इतिहासकार ईएच कार की किताब है ‘इतिहास क्या है?’(ह्वाट इज़ हिस्ट्री?), जिसमें वह एक जगह इतिहास की बेहद सरल मगर बेहद गहरी व्याख्या करते हैं. ‘इतिहास अतीत के साथ वर्तमान के संवाद का दूसरा नाम है’.
जाहिर है ऐसा संवाद पत्थर की लकीर की तरह हो ही नहीं सकता. नए तथ्य आएंगे, देश दुनिया को देखने के नए फलसफाई नज़रिये विकसित होंगे और हम बार-बार अपने इस अतीत से अपनी गुफ्तगू जारी रखेंगे.
प्रोफेसर केएन पन्निकर अपने बेहद सारगर्भित निबंध ‘आउटसाइडर एज एनीमी’ (अर्थात दुश्मन के तौर पर बाहरी व्यक्ति) इसी बात को दूसरे अंदाज में बयां करते हैं, इतिहास सतत चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है ‘जहां इतिहासकार पद्धतिविज्ञान संबंधी या विचारधारात्मक नए-नए दृष्टिकोणों से रूबरू होता है या इसके पहले के अनजान तथ्यों के आधार पर नए ढंग से विश्लेषित करने की कोशिश करता है.’
एनसीईआरटी ने सुव्यवस्थीकरण के नाम पर जिस कांट-छांट को मनमाने ढंग से अंजाम दिया है, इसमें इस पूरी प्रक्रिया और भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन दिखता है.
वैसे चाहे अमेरिका हो या भारत, पाठ्यपुस्तकों को बैन करने, उन्हें संशोधित करने या उन्हें चुनौती देने की प्रक्रिया स्वतःस्फूर्त नहीं होती. इसके पीछे रूढ़िवादी, संकीर्ण नज़रिया रखने वाले संगठन; समुदाय या आस्था के आधार पर एक दूसरे को दुश्मन साबित करने वाली तंजीमें साफ-साफ दिखती हैं.
अमेरिका और दुनिया के अन्य भागों में सक्रिय लेखकों के संगठन (पेन, अमेरिका) द्वारा किए गए अध्ययन और जारी की गई रिपोर्ट्स में ऐसे संगठित समूहों की दखलंदाजी साफ-साफ दिखती है. ‘पेन अमेरिका’ के मुताबिक इसके पीछे ‘क्रिश्चियन नेशनलिस्ट संगठन यहां तक ऐसे संगठन जो शिक्षा संस्थानों में अधिक धार्मिक शिक्षा देने की वकालत करते हैं, देखे गए हैं. यहां तक कि अभिभावकों के समूहों में कई स्थानों पर ट्रंप की दक्षिणपंथी राजनीति से नज़दीकी भी देखी गई है.
ऐसे तमाम अध्ययन और रिपोर्ट हाजिर हैं, जो बताती हैं कि किस तरह दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारों से जुड़े संगठन तथा समूह इस मामले पर लंबे समय से संक्रिय रहे हैं, जिनकी सक्रियताएं भारत को आज़ादी मिलने के तत्काल बाद अधिक संगठित रूप में शुरू हुई हैं.
अगर हम वर्ष 1957 में भारतीय जनसंघ (जो भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती संगठन कहा जाता है)के मसौदा घोषणापत्र को देखें तो इसमें भी इसकी ताईद होती है. 7 जनवरी 1957 को इसी जनसंघ का ड्राफ्ट ऑर्गनाइज़र ने प्रकाशित किया था: (देखें, ‘उत्तर गाथा’ जनवरी – अप्रैल 1982 से उद्धृत, पेज 45 ; संदर्भ: पेज 68, राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ का ढांचा, कार्यप्रणाली और लक्ष्य, संवाद प्रकाशन, आगरा, 2006/काले सूरज की रोशनी, प्रदीप सक्सेना)
‘भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए ताकि वह भारतीय जनसमुदाय और उनके आतताइयों तथा आक्रमणकारियों का इतिहास बन सके, ऐतिहासिक युगों का वर्गीकरण भारतीय समाज के क्रमशः विकास, उसके आंदोलन और क्रांतियों के अनुसार होना चाहिए. विदेशी शासकों के अनुसार नहीं. भारत द्वारा विभिन्न महाद्वीपों की सांस्कृतिक विजय के इतिहास को इसमें शामिल करना चाहिए.’
यह अकारण नहीं था कि उन्हीं दिनों से पीएन ओक नामक एक रिटायर्ड फौजी की तरफ से, जो वैचारिक तौर पर इन्हीं संगठनों के करीब था- ऐसे लेखों और किताबों का प्रकाशन शुरू हुआ, जो इस बात की झलक प्रदान कर रहे थे कि उन्हें भारतीय इतिहास को पुनर्लेखन से क्या मतलब है. फिर चाहे ताजमहल-तेजोमहालय जैसा उनका अहमकाना दावा हो, जिसके लेकर उनके हिमायती आला अदालत भी गए थे, जहां से वह डांट खाकर उन्हें लौटना पड़ा.
दरअसल ‘अन्य’ के प्रति उनकी नफरत इतनी ज्यादा है या उनका विश्व नज़रिया जिस तरह ‘बाहरी दुश्मन’ के चिंतन पर टिका है कि उन्हें इस बात से भी कतई गुरेज नहीं है, ‘पाठ्यपुस्तकों के व्यवस्थीकरण/रैशनलायजेशन की उनकी कवायद न केवल महात्मा गांधी जैसे महामानव के असली हत्यारे और उसकी साजिश रचने वाली हिंदुत्व वर्चस्ववादी जमातों का सैनिटाइजेशन करने अर्थात उनका साफ-सुथराकरण करने के उपक्रम को सामने लाती है बल्कि साथ ही साथ उस औपनिवेशिक आख्यान को भी नई मजबूती प्रदान करती है, जिसके तहत भारतीय इतिहास को उपनिवेशवादी ब्रिटेन के विचारकों एवं दार्शनिकों द्वारा पेश किया है.
याद रहे कि वर्ष 1818 में ही इनके करीबी एक स्काॅटिश दार्शनिक और अर्थशास्त्री जेम्स मिल ने ब्रिटिश भारत का इतिहास ( History of British India) लिखा था, जिसके तहत भारत के इतिहास को हिंदू कालखंड, मुस्लिम कालखंड और ब्रिटिश कालखंड के तौर पर बांटा गया था.
अब जहां तक जेम्स मिल की बात है वह यही मानते थे कि ब्रिटेन का भारत में आगमन एक तरह से भारत जैसे पिछड़े मुल्क को ‘सभ्य बनाने’ (Civilising Mission )मिशन है और जिन्होंने भारतीय समाज को नैतिक तौर पर कमतर (Morally degraded) कहा था. इतना ही नहीं, उन्होंने सदियों से भारत में कायम साझा विरासत और विभिन्न समुदायों के बीच आपसी मधुर रिश्तों की भी अनदेखी की थी.
विडंबना ही है कि आए दिन राष्ट्र की दुहाई देने वाली या अन्यीकरण की उनकी राजनीति से असहमति रखने वाली आवाज़ों को दमन करने वाली ताकतें किस तरह औपनिवेशिक आख्यान को सेलिब्रेट कर रही हैं और उसमें गर्व हासिल कर रही हैं, यह सभी के सामने है.
अंत में ‘सिलेबस से सड़क तक धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ’ जंग छेड़ी यह ताकतें स्कूली बच्चों को किस दिशा में ले जाएंगी, इसके आसार अभी से दिख रहे हैं.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)