बाबासाहेब की मूर्तियों से मोह और विचारों से द्रोह का सिलसिला कहां ले जाएगा?

आज बाबासाहेब की शिक्षा, संदेश व विचारों के बजाय मूर्तियां अहम हो चली हैं. ये मूर्तियां चीख सकतीं तो उन पर तो ज़रूर चीखतीं, जो बाबासाहेब की जयंती व निर्वाण दिवस पर साल में दो दिन उन पर फूलमाला अर्पित कर उनकी विरासत के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं.

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आज देश की जो हालत हो गई है और जिसमें किसी दलित मंत्री द्वारा बाबासाहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं (जो उन्होंने बौद्ध धर्म में ‘वापस लौटने’ के अवसर पर 15 अक्टूबर, 1956 को अपने अनुयायियों के लिए निर्धारित की थीं और जिन्हें करके वे खुद को हिंदू धर्म के बंधनों से पूरी तरह पृथक कर सकते थे.) दोहराने को उसका गंभीर अपराध करार देकर हंगामा मचाया जाता, फिर उससे इस्तीफा ले लिया जाता है, सो भी बाबासाहेब के प्रति प्रेम दर्शाने वाले मुख्यमंत्री द्वारा (पिछले साल दिल्ली की केजरीवाल सरकार के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम का प्रकरण).

ऐसे में बाबासाहेब की यादों के सिलसिले में पहली बात यही याद आती है कि उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाजने के बाद हम भारत के लोग उनके बुतों यानी मूर्तियों से प्यार और उनके विचारों से द्रोह के दौर में आ पहुंचे हैं. आए, इसकी कुछ मिसालों से साक्षात्कार करें.

उन्होंने बहुजन समाज को बार-बार बताया था कि उसके दो ही प्रमुख शत्रु हैं: पहला ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद. इसी तरह उन्होंने दो ही प्रमुख मित्र भी बताए थे: पहला समाजवाद, जिसके बिना सच्चे लोकतंत्र की स्थापना ही नहीं हो सकती और दूसरा समता व विवेक पर आधारित बौद्ध धर्म. उनका निष्कर्ष था कि हिंदू अध्यात्मवाद जड़ हो गया है और हिंदू सभ्यता व संस्कृति एक सड़े हुए बदबूदार पोखर जैसी हैं. ऐसे में भारत को प्रगति करनी है तो इनके ढकोसलों को जड़-मूल से खत्म करके उनसे मुक्ति पाना होगा.

वे मानते थे कि वर्णवाद और ब्राह्मणवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. क्योंकि दोनों का मूल आधार असमानता है. दोनों में स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व का निषेध है और दोनों ने शूद्रों व स्त्रियों के साथ जैसा अन्याय किया और जिस तरह उन्हें सहज मानवीय अधिकारों तक से वंचित रखा, मनुष्यता के इतिहास में उसकी दूसरी मिसाल नहीं है.

आगे चलकर वे इस मत के हो गए थे कि हिंदू धर्म के भीतर रहकर उसके जातिभेद व ऊंचनीच को मिटाया नहीं जा सकता, इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी थी कि ‘हिंदू होकर पैदा न होना मेरे वश में नहीं था, लेकिन हिंदू होकर मरूंगा नहीं, यह मेरे वश में है.’ उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार करके अपनी इस घोषणा पर अमल भी कर डाला था.

वे समानता को लोकतंत्र का दूसरा नाम बताते और कहते थे कि राजनीतिक समानता हासिल हो जाने के बाद भी आर्थिक समानता के बिना लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता. समानता का रास्ता अवरुद्ध करने के लिहाज से वे ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को एक ही दिशा में जाने वाली गाड़ी के दो पहिये मानते थे. कहते थे कि धर्मसत्ता, राजसत्ता व अर्थसत्ता पर इनके कब्जे के चलते ही देश के धन-दौलत, जमीन व कारखानों आदि यानी अर्थ संपदा का एक प्रतिशत भी दलितों व वंचितों के पास नहीं है.

बाबासाहेब चाहते थे कि बहुजन समाज के मित्र के तौर पर समाजवाद की स्थापना शांतिपूर्ण तरीके से हो. उनका सपना था कि इस समाजवाद में जो भी प्रमुख उद्योग हों अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, वे राज्य के स्वामित्व में रहें तथा राज्य द्वारा चलाए जाएं. राज्य द्वारा बीमा का राष्ट्रीयकरण किया जाए, जिससे उसे संसाधन प्राप्त हो सकें और उन्हें तेजी से औद्योगीकरण में लगाया जा सके.

उनका मानना था कि निजी पूंजी से हुआ औद्योगीकरण संपदा की विषमताओं को ही जन्म देगा. इसके अतिरिक्त जो प्रमुख उद्योग नहीं, लेकिन बुनियादी उद्योग हों, वे भी राज्य के स्वामित्व में हों और उन्हें भी राज्य द्वारा चलाया जाए. कृषि राज्य का उद्योग हो तथा सामूहिक खेती की जाए. राज्य द्वारा अर्जित भूमि मानक के आधार पर गांव के निवासियों पट्टे के रूप में दी जाए. ऐसी रीति से कि न कोई जमींदार रहे और न भूमिहीन मजदूर.

उन्होंने भारतीय संविधान में राज्य या कि राजकीय समाजवाद के उल्लेख की वकालत की, जिससे उसकी स्थापना विधानमंडल की इच्छा पर निर्भर न रहे और संवैधानिक विधि द्वारा स्थापित राज्य समाजवाद को विधायिका या कार्यपलिका के कृत्य से बदला न जा सके. उनका मानना था कि इससे तीन उद्देश्यों की पूर्ति होगी- समाजवाद की स्थापना, संसदीय लोकतंत्र को जारी रखना तथा तानाशाही से बचना.

वे आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप जरूरी मानते थे, यद्यपि स्वीकारते थे कि राज्य के हस्तक्षेप से स्वतंत्रता में कमी आती है. उन्हें लगता था कि इसके बिना स्वतंत्रता जमींदारों की लगान लेने, पूंजीपतियों को कार्य के घंटे बढ़ाने तथा मजदूरी घटाने की स्वतंत्रता बन जाएगी.

बात यहीं नहीं ठहरती. इस देश के दलित पीड़ित समुदायों को सबसे जरूरी संदेश यह दिया था कि वे शिक्षित बनें और संगठित होकर संघर्ष करें. यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उनके वक्त में था. क्योंकि उन्होंने गैरबराबरी व शोषण और इनकी जाई अशिक्षा व अस्पृश्यता आदि इन समुदायों की जिन समस्याओं को संघर्ष के मोर्चाें के तौर पर रेखांकित किया था, उनके बनाए संविधान के सात दशकों से ज्यादा के शासन के बावजूद वे उन्मूलित नहीं हो पाई हैं.

आर्थिक असमानता तो इस बीच उल्टे और विकराल होती गई है. इसी तरह शोषण भी रूप बदल-बदलकर उन्हें छलता आ रहा है, जिस कारण उनमें से ज्यादातर अभी भी संविधानप्रदत्त स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से महरूम हैं.

लेकिन विडंबना यह है कि इसके बावजूद खुद को बाबासाहेब की अनुयायी कहने वाली ज्यादातर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व गैरराजनीतिक जमातों को उक्त संदेश को उस अर्थ में लेना गवारा नहीं है, जिसमें बाबासाहेब ने दिया था. उन्होंने अपनी सुविधा के अनुसार उसकी कई ऐसी मनमानी और इन समुदायों को संगठित करने के बजाय बिखराने वाली व्याख्याएं कर डाली हैं, जो बाबासाहेब के एक अन्य महत्वपूर्ण संदेश का विलोम नजर आती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि व्यक्तिपूजा से बचो और किसी द्वारा कही गई किसी भी बात को ठीक से जाने व समझे बगैर मत मानो.

बाबासाहेब के विरोधियों को खैर अभी हाल के दशकों तक उन्हें देश का नेता स्वीकारना ही गवारा नहीं था. संविधान निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद वे उन्हें महज दलितों का नेता मानते थे और इसके लिए कुतर्क देते थे कि उन्होंने अपने जीवन में हमेशा दलितों की समस्याओं को लेकर ही संघर्ष किया. जैसे दलितों की समस्याएं देश की समस्याएं हों ही नहीं और उनके समाधान के लिए किए गए संघर्षों को कतई भाव देने की जरूरत न हो.

आज, जब कांशीराम आदि के प्रयत्नों से दलितों में आई जागरूकता के फलस्वरूप उनके वोटों की गठरियां हथियाने के लिए बाबासाहेब का नाम जपना मजबूरी बन गई है, उन्हें ‘अपनाने’ की होड़ कर रही पार्टियों की उनके विचारों को जानने व समझने में कतई कोई दिलचस्पी नहीं है.

इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि बाबासाहेब का दृढ़ विचार था कि व्यक्तिपूजा भक्ति और लोकतंत्र में सीधा बैर है, जबकि ये पार्टियां व्यक्तिपूजा और भक्ति के रास्ते से तिल भर भी हटने को तैयार नहीं हैं.

इन पार्टियों की सुविधा यह है कि खुद को बाबासाहेब की अनुयायी बताने वाली जमातें अपने संघर्षों के क्रम में इस कदर परास्त दिखने लगी हैं कि व्यवस्था परिवर्तन के सपने को त्यागकर सत्ता परिवर्तन भर से ही खुश होने को तैयार हैं. सत्ता परिवर्तन में भी वे किसी केंद्रीय भूमिका का सपना नहीं पालतीं और पासंग बनकर मगन रहने को अभिशप्त हैं. इस पासंग बनने को ही वे किंगमेकर की भूमिका में आना कहती हैं.

बाबासाहेब का यह कथन उनके निकट कोई मायने नहीं रखता कि जो इतिहास को भूल जाते और वर्तमान में मगन रहने लग जाते हैं, वे इतिहास नहीं बना पाते.

ताज्जुब क्या कि उन्होंने अपना सारा जोर अपनी भावनाओं व जरूरतों के अनुरूप बाबासाहेब की नई मूर्तियां गढ़ने में लगा रखा है, जिसके चलते बाबासाहेब की शिक्षाओं, संदेशों व विचारों के बजाय मूर्तियां अहम हो चली हैं.

ये मूर्तियां चीख सकतीं तो उन पर तो जरूर चीखतीं, जो बाबासाहेब की जयंती व निर्वाण दिवस पर साल में दो दिन उन पर फूलमालाएं अर्पित कर उनकी विरासत के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं.

वह भी जब बाबासाहेब के विचारों में इतनी स्पष्टता है कि उनको जानना व समझना कतई कठिन नहीं है बशर्ते समझना चाहने वाले का समता व बंधुत्व के सिद्धांत में विश्वास असंदिग्ध हो और बाबासाहेब के ही अनुसार बुद्धि का विकास उसके अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए.

लेकिन अफसोस कि बाबासाहेब के अनुयायी हों या विरोधी, बाबासाहेब के इस कथन को वे एक जैसे भाव से भुलाए रखते हैं कि मनुष्य की ही तरह विचार भी नश्वर होते हैं.

बाबासाहेब ने कहा था कि जिस प्रकार पौधों को बड़ा करके पेड़ बनाने के लिए उनको निरंतर खाद पानी देना पड़ता है, उसी प्रकार विचारों के प्रसार के लिए उनकी सम्यक परवाह करनी पड़ती है. अन्यथा वे भी पौधों की तरह मुरझाकर मर जाते हैं.

फिर यह बात भी भला कौन याद करे कि संविधान के अधिनियमित, आत्मार्पित व अंगीकृत होने से ऐन पहले, 25 नवंबर, 1949 को विधिमंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि यह संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा, लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि ‘किसी के लिए भी नहीं’ नजर आएगा.

उनके अनुसार संविधान लागू होने के साथ ही हम अंतर्विरोधों के नए युग में प्रवेश कर गए थे और उसका सबसे बड़ा अंतर्विरोध था कि वह एक ऐसे देश में लागू हो रहा था जिसे उसकी मार्फत नागरिकों की राजनीतिक समता का उद्देश्य तो प्राप्त होने जा रहा था लेकिन आर्थिक व सामाजिक समता कहीं दूर भी दिखाई नहीं दे रही थी.

उन्होंने नवनिर्मित संविधान को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के हाथों में दिया तो आग्रह किया था कि वे जितनी जल्दी संभव हो, नागरिकों के बीच आर्थिक व सामाजिक समता लाने के जतन करें क्योंकि इस अंतर्विरोध की उम्र लंबी होने पर उन्हें देश में लोकतंत्र के ही विफल हो जाने का अंदेशा सता रहा था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)