बनारसीदास चतुर्वेदी: जिनके साहित्य का बड़ा हिस्सा गिरमिटिया मज़दूरों के नाम रहा

पुण्यतिथि विशेष: पद्मभूषण से सम्मानित साहित्यकार बनारसीदास चतुर्वेदी बारह वर्षों तक सांसद भी रहे थे. हालांकि कम ही लोग जानते हैं कि उनके साहित्यिक जीवन के शुरुआती दिन भारत से फिजी ले जाए गए गिरमिटिया मज़दूरों और दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों के संघर्षों के दस्तावेज़ीकरण में गुज़रे.

बनारसी दास चतुर्वेदी. (जन्म: 24 दिसंबर 1892 ​​​​​​​​​​​​​​- अवसान: 02 मई 1985). (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

पुण्यतिथि विशेष: पद्मभूषण से सम्मानित साहित्यकार बनारसीदास चतुर्वेदी बारह वर्षों तक सांसद भी रहे थे. हालांकि कम ही लोग जानते हैं कि उनके साहित्यिक जीवन के शुरुआती दिन भारत से फिजी ले जाए गए गिरमिटिया मज़दूरों और दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों के संघर्षों के दस्तावेज़ीकरण में गुज़रे.

बनारसी दास चतुर्वेदी. (जन्म: 24 दिसंबर 1892 ​​​​​​​​​​​​​​- अवसान: 02 मई 1985). (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

हमारी विस्मरण की प्रवृत्ति जो भी करा डाले, कम है. वरना स्मृतिशेष बनारसीदास चतुर्वेदी ने साहित्यकार व पत्रकार के तौर पर हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि और देश के शहीदों की स्मृतियों की रक्षा में जो महनीय योगदान दिया, संसद की अपनी सदस्यता के बारह वर्षों में जो भूमिका निभाई या जिन सेवाओं के लिए 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया, वे सब तो अलग ही रहें, अपने साहित्यिक जीवन के आरंभिक व बेहद महत्वपूर्ण 22 वर्ष होम करके उन्होंने गुलामी के उस कठिन दौर में भारत से फिजी ले जाए गए गिरमिटिया मजदूरों और दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए जो बहुविध प्रयत्न किए, वे ही उनकी यादों को सदियों तक जीवंत बनाए रखने के लिए काफी थे.

फिजी गए भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की मुक्ति की उनकी मुहिम की चर्चा से पहले आइए, संक्षेप में जान लें कि इन मजदूरों को गिरमिटिया क्यों कहा जाता है. दरअसल, सत्रहवीं शताब्दी में जब गुलामी में जकडे़ भारत में आम लोगों को भरपेट भोजन तक मयस्सर नहीं था, गोरे सत्ताधीश उन्हें मजदूर बनाकर अन्याय, शोषण व भेदभाव से भरी इतनी कड़ी शर्तों पर विदेश भेजने लगे, जो जानकारों के अनुसार गुलामी की शर्तों से कम न थीं.

इन भारतवासियों को भेजने से पहले उनकी सहमति के नाम पर निश्चित अवधि के लिए उनके साथ जो एग्रीमेंट (करार) किया जाता था, उसके दस्तावेज को गिरमिट कहा जाता था, इसलिए कालांतर में उसके आधार पर विदेश गए मजदूरों को गिरमिटिया कहा जाने लगा. जानकारों के अनुसार, तब भारत से हर साल दस से पंद्रह हजार गिरिमिटिया मजदूर फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, ट्रिनीदाद, टोबैगो और नेटाल यानी दक्षिण अफ्रीका भेजे जाते थे.

उन मजदूरों में अधिकतर अशिक्षित अथवा निरक्षर होते थे और बदहाली के लिहाज से उनके लिए स्वदेश और परदेश दोनों लगभग बराबर ही थे. इसलिए गुलामी की शर्तों के बावजूद उनका एक हिस्सा ही अपने गिरमिट की अवधि पूरी कर स्वदेश लौटा करता था. परिस्थितियों के त्रासद होने के बावजूद दूसरा हिस्सा वहीं रहकर खेती व व्यापार आदि करने लग जाता था. हां, बहुत कुछ झेलकर भी अपनी संतानों को भरपूर शिक्षा दिलाता था, ताकि उनको उसके जितनी विषम परिस्थितियों का सामना न करना पड़े.

इसका फल यह हुआ कि उसकी अगली पीढ़ियों ने फिजी के सामाजिक व आर्थिक विकास में भरपूर योगदान देकर उसे ‘प्रशांत महासागर का स्वर्ग’ बना दिया. लेकिन यह हालात का सिर्फ एक पहलू था और यह जितना खुशगवार लगता है, दूसरा पहलू उतना ही त्रासद था. वह जानें कब तक बाहरी दुनिया की नजरों से ओझल रहता, अगर बनारसीदास चतुर्वेदी (जो उन दिनों फर्रुखाबाद के एक सरकारी स्कूल में अध्यापन करते हुए हिंदी साहित्य में अपनी संभावनाएं तलाश रहे थे) और तोताराम सनाढ्य मिलकर इसके लिए जमीन आसमान एक न कर देते.

तोताराम सनाढ्य भी गिरमिटिया मजदूर ही थे, लेकिन जीवट के इतने धनी थे कि 1893 में भले ही गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी गए थे, 21 साल बाद स्वदेश लौटे तो उस नर्क के प्रति वितृष्णा से भरकर सारे गिरमिटिया मजदूरों के उद्धार और गिरमिटिया प्रथा के उन्मूलन का संकल्प ले चुके थे.

उन्होंने अपने गिरमिट की अवधि खत्म होने के बाद कुछ दिनों तक फिजी में एक छोटे किसान और पुजारी का जीवन भी जिया था, जो बाद में उनके उक्त संकल्प की पूर्ति में बहुत काम आया. स्वदेश लौटने पर सनाढ्य 15 जून, 1914 को फिरोजाबाद के ‘भारती भवन’ नामक पुस्तकालय व प्रकाशन संस्थान के मैनेजर लाला चिरंजीलाल के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी से मिले, तो चतुर्वेदी जी ने छूटते ही पूछा कि वे गिरमिटिया मजदूरों संबंधी अपने अनुभव विस्तार से क्यों नहीं लिख देते?

इस पर सनाढ्य का उत्तर था, ‘मैं कोई लेखक तो हूं नहीं. अगर कोई लिखने वाला मिल जाए तो मैं अपनी अनुभूतियां उसे सुना सकता हूं.’
चतुर्वेदी जी ने पहले तो सोचा कि अगर वे सनाढ्य के सारे अनुभव लिपिबद्ध कर दें तो एक छोटी पुस्तिका तो बन ही सकती है. लेकिन फिर इस धर्मसंकट में पड़ गए कि ‘जनता में सरकार के विरुद्ध आंदोलन करने वाली’ किसी पुस्तक पर अपना नाम कैसे दे सकते हैं? कहीं उसे लेकर सरकार की भृकुटियां टेढ़ी हो गईं तो न सिर्फ सरकारी नौकरी चली जाएगी, बल्कि लेने के देने पड़ जाएंगे.

इसलिए वे सनाढ्य को तत्काल कोई जवाब न देकर उन्हें अपने घर ले आए, जहां कुछ देर की वार्ता के बाद दोनों में सहमति हो गई कि पंद्रह दिनों तक सनाढ्य रोज उनके घर पर आकर उन्हें अपने अनुभव सुनाएंगे और वे उसे लिपिबद्ध करेंगे.

यह सिलसिला चला तो चतुर्वेदी जी ने पाया कि सनाढ्य के अनुभव तो भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की त्रासदियों व संघर्षों के दस्तावेजों जैसे हैं. फिर भी उनकी विनम्रता, कि उन्होंने उक्त अनुभवों को ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ का नाम देकर भारती भवन से प्रकाशित कराया तो संपादन के श्रेय के लिए दावेदारी तक नहीं की.

कारण? उन्हीं के शब्दों में: ‘मेरा काम एक क्लर्क का ही था. हां, मैंने तथ्यों तथा अंकों को इकट्ठा करके पंडित जी की रामकहानी को जामा जरूर पहना दिया था. पुस्तक हम दोनों के सम्मिलित उद्योग से बनी थी, पर उस पर नैतिक अधिकार तो पंडित जी का ही था.’

लेकिन सच्चाई यह है कि जिस काम को चतुर्वेदी जी ‘क्लर्क का काम’ कह रहे थे, उसे करके उन्होंने बहुत बड़ा जोखिम उठाया था. वे लिखते हैं: ‘उस पुस्तक के छपने के कुछ दिनों बाद ही मुझे इंदौर के राजकुमार कालेज में हिंदी अध्यापन का कार्य मिल गया था और सरकार को इस बात का पता लग जाता कि पुस्तक के लिखने में मेरा हाथ था तो मुझे नौकरी से हाथ धोना पड़ जाता.’

उन्हीं के अनुसार ऐसी नौबत न आए, इसके लिए भारती भवन के प्रमुख कार्यकर्ता हर प्रसाद चतुर्वेदी की मार्फत कुंवर हनुवंत सिंह रघुवंशी को, जिनके प्रेस में वह छपी थी, ताकीद कर दी गई थी कि वे किसी भी तरह उस पुस्तक की पांडुलिपि सरकार के हाथ न पड़ने दें.

लेकिन लोकमान्य तिलक के प्रतिष्ठित पत्र ‘केसरी’ ने अपने अग्रलेख में लिख दिया कि लाखों पाठकों में से शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा निकले, जो इस पुस्तक को पढ़कर रो न दे और अभी तक सरकार द्वारा उसे जब्त न करने से सिद्ध होता है कि उसमें वर्णित तथ्यों का उत्तर उसके पास नहीं है, तो सरकार की कुदृष्टि के कारण कई शुभचिंतकों को आशंका सताने लगी कि पुलिस किसी भी दिन चतुर्वेदी जी के घर में तलाशी के लिए धमक सकती है.

उन दिनों चतुर्वेदी जी ‘प्रवासी भारतवासी’ नामक ग्रंथ लिख रहे थे. शुभचिंतकों द्वारा सचेत किए जाने के बाद उन्होंने ‘प्रवासी भारतवासी’ की संपूर्ण सामग्री अपने मित्र लाला बद्रीप्रसाद के पास रखवा दी, जो 1918 में दीनबंधु सीएफ एंड्रयूज़ की लिखी भूमिका के साथ प्रकाशित हुई.

बहरहाल, ‘फिजी द्वीप में मेंरे 21 वर्ष’ पर लौटें, तो चतुर्वेदी जी कह गए हैं कि उसके छपते ही जो घनघोर आंदोलन उठ खड़ा हुआ, उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. लेकिन सनाढ्य का यह विश्वास दृढ़ था कि उसमें प्रकाशित उनके अनुभव गिरमिटिया प्रथा की समाप्ति के प्रयत्नों में बहुत मददगार सिद्ध होंगे. और सचमुच ऐसा ही हुआ. उनके अनुभव न सिर्फ गिरमिटिया प्रथा के खात्मे में सहायक बल्कि निर्णायक भी सिद्ध हुए.

हां, कहना होगा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आगे चलकर चतुर्वेदी जी और सनाढ्य का सहयोग ‘फिजी द्वीप के मेरे 21 वर्ष’ के संपादन व प्रकाशन तक ही सीमित नहीं रहा और चतुर्वेदी जी ने 1914 से 1936 तक के अपने जीवन के बाईस वर्ष गिरमिटिया मजदूरों और प्रवासी भारतीयों की सेवा को समर्पित कर दिए.

इन वर्षों में उन्होंने सनाढ्य को उनके अभियान में मदद दिलाने हेतु अनेक अन्य नेताओं ही नहीं, महात्मा गांधी से भी मिलवाया और उनके गिरमिट प्रथा उन्मूलन आंदोलन को धार देकर परवान चढ़ाया. तदुपरांत, सनाढ्य साबरमती आश्रम में ही रहने लगे और आश्रमवासियों को बेहद प्रिय हो गए.

सनाढ्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं तक यह अनुरोध भी चतुर्वेदी जी की मदद से ही पहुंचा सके थे कि वे फिजी में दुर्दशा के शिकार भारतीय मजदूरों की सहायता के लिए भारत से पर्याप्त संख्या में शिक्षक, वकील व कार्यकर्ता भेजने में अपनी भूमिका निभाएं. सनाढ्य ने चतुर्वेदी जी के ही सुझाव पर ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ की चार सौ प्रतियां हरिद्वार में हुए कुंभ, लखनऊ में हुए साहित्य सम्मेलन और मद्रास में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में बिना मूल्य लिए बांटी थी.

सीएफ एंड्रयूज़ (महात्मा गांधी ने जिन्हें दीनबंधु की उपाधि दी थी) इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर उसे फिजी ले गए और गिरमिटिया प्रथा के खात्मे के आंदोलन में उसका भरपूर इस्तेमाल किया. फिर भी अंग्रेजों ने गिरमिटिया प्रथा के खात्मे में छह वर्ष लगा दिए और वह पूरी तरह एक जनवरी, 1920 को समाप्त हो पाई.

चतुर्वेदी जी के कुशल संपादन का परिणाम कहें, सनाढ्य के अनुभवों की मार्मिकता का अथवा दोनों के सम्मिलित उद्योग का, कि समूचे गिरमिटिया प्रथा उन्मूलन आंदोलन के दौरान ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ की धूम मची रही. दीनबंधु एंड्रयूज़ द्वारा करवाए गए उसके अंग्रेजी अनुवाद के आगे-पीछे गुजराती, बांग्ला, मराठी और उर्दू आदि भाषाओं में भी उसके अनुवाद हुए.

मैथिलीशरण गुप्त ने उसी के आधार पर अपनी किसान नामक पुस्तक लिखी, जबकि लक्ष्मण सिंह चौहान ने उसी से प्रेरित होकर ‘कुली प्रथा’ नामक नाटक लिखा, जो प्रताप में छपा. उस वक्त के अनेक मुक्तिकामी पत्रों ने उस पर समीक्षात्मक टिप्पणियां अथवा अग्रलेख भी लिखे. कई बार वह भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत क्रांतिकारियों को पढ़ने के लिए भी दी जाती थी.

लेकिन गिरमिटिया मजदूरों की मुक्ति और प्रवासी भारतीयों के उन्नयन में चतुर्वेदी जी की भूमिका इतनी ही नहीं है. उन्होंने ‘प्रवासी भारतवासी’ जैसा 728 पृष्ठों का विशाल ग्रंथ लिखा तो ‘फिजी में भारतीय’ नाम से दीनबंधु एंड्रयूज़ की फिजी रिपोर्ट का अनुवाद भी किया. इसके अतिरिक्त ‘फिजी की समस्या’ नाम से फिजी में 1921 के उपद्रव का इतिहास लिखा और गोविंद सहाय कृत ‘फिजी की डायरी’ का भी प्रकाशन कराया.

इतना ही नहीं, ‘मर्यादा’, ‘चांद’ व ‘विशाल भारत’ जैसे हिंदी तथा नवचेतन जैसे गुजराती पत्रों के प्रवासी अंक निकाले. साथ ही, स्वामी भवानीदयाल सन्यासी के सहयोग से विदेशों से लौटने वाले भारतीयों के विषय में अंग्रेजी में रिपोर्ट प्रकाशित कराई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवासी विभाग की स्थापना भी उन्होंने ही कराई.

प्रसंगवश, गिरमिटिया प्रथा खत्म होने, यहां तक कि भारत की आजादी के बाद भी ऐतिहासिक महत्व के कारण ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ की मांग बनी रही, जिसे पूरी करने के लिए चतुर्वेदी जी ने अक्टूबर, 1972 में उसका एक और संस्करण निकाला. इसके बावजूद चतुर्वेदी जी को कसक सालती रहती थी कि आर्थिक कठिनाइयों के कारण 1936 में उन्हें प्रवासी भारतीयों की सेवा का कार्य छोड़ देना पड़ा और 1952 में राज्यसभा के सदस्य बनने के बाद उन्होंने सीएल पटेल के साथ उसे पुनः हाथ में लेना चाहा, तो भी आगे नहीं बढ़ा सके.

इस कसक के साथ उनके द्वारा प्रवासी भारतीयों से किए गए आठ निवेदनों में से दो यह थे: पहला: जहां भी जिस भी देश में रह रहे हों, उसे ही अपनी मातृभूमि समझें और अपनी सर्वोच्च भेंट उसी को अर्पित करें. दूसरा: एक भी वाक्य तो क्या, एक भी शब्द अपने मुंह या लेखनी से ऐसा न निकालें, जिससे भिन्न-भिन्न जातियों में पारस्परिक दुर्भावना पैदा हो. एक समय उन्होंने राजधानी दिल्ली में प्रवासी भवन की स्थापना के लिए भी आंदोलन चलाया था.

हां, अपने अंतिम दिनों में वे कई बार इसको लेकर खासे आह्लादित हुआ करते थे कि उन्हें अपने जीवन में गिरमिटिया मजदूरों और प्रवासियों की सेवा के प्रचुर अवसर मिले, जिनका इस्तेमाल करते हुए वे महात्मा गांधी, दीनबंधु सीएफ एंड्रयूज़, श्रीनिवास शास्त्री और संपादकाचार्य सीवाई चिंतामणि जैसी विभूतियों के संपर्क में आए.

जून, 1920 में उन्होंने दीनबंधु एंड्रयूज़ के इंगित पर राजकुमार कालेज, इंदौर में अध्यापन की नौकरी छोड़ दी और चौदह महीनों तक शांति निकेतन में रहकर प्रवासी भारतीयों के लिए काम करते रहे. फिर चार वर्ष साबरमती आश्रम में रहकर पूर्वी अफ्रीका की यात्रा पर भी गए.

साफ है कि चतुर्वेदी जी का विस्मरण उनकी सही जगह नहीं है. वह तो हमारी कृतघ्नता की जगह है, जो हमें उनकी विरासत के सम्मान व संरक्षण से वंचित किए दे रही है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)