अब धर्म, सत्ता, कॉरपोरेट और मीडिया के चार पाटों के बीच पिस रही है अयोध्या

'मुख्यधारा' के मीडिया को अयोध्या से जुड़ी ख़बर तब ही महत्वपूर्ण लगती है, जब किसी तरह की सरकारी दर्पोक्ति या सनसनीखेज़ बयान उससे जुड़ा हो. यह पुलिस उत्पीड़नों या अपराधियों के खेलों की ही अनदेखी नहीं कर रहा, बल्कि उसे हज़ारों घरों, दुकानों, पेड़ों आदि की बलि देकर ‘भव्य’ बनाई जा रही अयोध्या की यह ख़बर देना भी गवारा नहीं कि गरीबों का यह तीर्थ अब जल्दी ही उनकी पहुंच से बाहर होने वाला है.

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अयोध्या. (फोटो साभार: विकिमीडिया)

‘मुख्यधारा’ के मीडिया को अयोध्या से जुड़ी ख़बर तब ही महत्वपूर्ण लगती है, जब किसी तरह की सरकारी दर्पोक्ति या सनसनीखेज़ बयान उससे जुड़ा हो. यह पुलिस उत्पीड़नों या अपराधियों के खेलों की ही अनदेखी नहीं कर रहा, बल्कि उसे हज़ारों घरों, दुकानों, पेड़ों आदि की बलि देकर ‘भव्य’ बनाई जा रही अयोध्या की यह ख़बर देना भी गवारा नहीं कि गरीबों का यह तीर्थ अब जल्दी ही उनकी पहुंच से बाहर होने वाला है.

अयोध्या. (फोटो साभार: विकिमीडिया)

अयोध्या की जमीनी हकीकतों को अनुकूलित खबरों के हवाले करने का चलन इधर और जोर पकड़ गया है. ‘मुख्यधारा’ मीडिया की बात करें तो पुरानी आदत के अनुसार उसे यह डेटलाइन तभी महत्वपूर्ण लगती है, जब राम मंदिर निर्माण की प्रगति दर्शाने वाला कोई बयान या प्रेस नोट हाथ लग जाए, सरकारों द्वारा ‘भगवान राम की नगरी में त्रेता की वापसी कराने अथवा स्वर्ग उतारने’ से जुड़ी दर्पोक्तियों को प्रचारित करना हो या किसी ‘संत-महंत’ के सनसनीखेज अथवा नफरत फैलाने वाले बयान को अपनी पहुंच या प्रसार बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना हो.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि अयोध्या के चर्चित नरसिंह मंदिर के महंत रामसरन दास की महीनों पुरानी रहस्यमय गुमशुदगी के सिलसिले में ‘पुलिस प्रताड़ना से तंग’ पुजारी रामशंकर दास द्वारा कुछ दिन पहले फेसबुक लाइव के बाद आत्महत्या कर लेने की खबर को भी इस मीडिया ने अनुकूलित खबरों की भीड़ में खो जाने दिया और पुजारी को जान देकर भी आधी-अधूरी खबर ही बनाने दी.

यह तब है, जब कई बड़बोले महंत हेटस्पीच की मार्फत या महिला पहलवानों द्वारा कसूरवार ठहराए जा रहे पड़ोसी गोंडा जिले के सांसद बृजभूषणशरण सिंह के समर्थन में बयान देकर भी ‘बड़ी खबर’ बना डालते हैं.

इस पुजारी की मानें, तो महंत की गुमशुदगी की एफआईआर उसने ही दर्ज कराई थी. बाद में उनकी बरामदगी में नाकाम पुलिस ने मामले को अपहरण के मामले में बदल दिया था और उस पर ही अपहरण कराने का ‘संदेह’ करने लगी थी. यह ‘संदेह’ मामले को रफा-दफा करने के लिए दो लाख रुपयों की मांग पूरी न करने पर बुरी तरह टॉर्चर करने तक पहुंच गया तो उसे आत्महत्या के अलावा कुछ नहीं सूझा.

पुलिस प्रशासन ने पहले तो उसके आरोपों को निराधार बताकर उस पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी, फिर एक सब-इंस्पेक्टर और सिपाही को लाइन हाजिर कर दिया. इस बीच, मीडिया ऐसा कुछ भी करने से परहेज बरतता रहा, जिससे प्रशासन पर मामले की निष्पक्ष जांच या सच उजागर करने का दबाव बने.

इससे पहले हनुमानगढ़ी की सागरिया पट्टी से जुड़े आश्रम में एक व्यक्ति का शव मिलने और उस किरायेदार के, जिसके साथ वह व्यक्ति वहां रहता था, लापता हो जाने के मामले में भी मीडिया ने ऐसा ही उदासीन रवैया अपनाया था. भले ही मामला अखाड़ा परिषद के बहुचर्चित पूर्व अध्यक्ष महंत ज्ञानदास के आवास के पास का था, जहां 24 घंटे पुलिस की निगरानी रहती है और वह वहां ऐसी निगरानी कर रही थी कि उसे वहां शव होने का पता पांच दिन बाद तब चला, जब दुर्गंध फैलने के बाद लोगों ने उसे इसकी जानकारी दी.

ऐसा भी नहीं कि मीडिया पुलिस उत्पीड़नों या अपराधियों के खेलों की ही अनदेखी कर रहा हो. उसे हजारों घरों, दुकानों, प्रतिष्ठानों और पेड़ों की बलि देकर न सिर्फ चौड़ी बल्कि ‘भव्य’ बनाई जा रही अयोध्या की सड़कों द्वारा की जा रही उस खामोश ‘मुनादी’ की खबर देना भी गवारा नहीं कि गरीबों का यह तीर्थ अब जल्दी ही उनकी पहुंच से बाहर होने वाला है. भले ही आम लोग इसे लेकर आशंकित व त्रस्त हैं.

गत दिनों अयोध्या के नियावां चौराहे पर खुद को पास के अम्बेडकरनगर जिले के पतौना गांव से आया बताने वाले दो युवकों में से एक को दूसरे से कहते सुना गया- ये सड़कें चौड़ी करने वाले तो उनकी चपेट में आने वाले पुराने छायादार पेड़ों को भी नहीं बख्श रहे. सड़कों के किनारे ये पेड़ नहीं होंगे तो थके-हारों को छांव कहां मिलेगी, वे सुस्ताएंगे कहां?

दूसरे का जवाब था- मूर्ख, ये सड़कें सुस्ताने वालों के लिए थोड़े ही चौड़ी की जा रही हैं! उनके लिए चौड़ी की जा रही हैं, जो सुस्ताने में वक्त गंवाए बिना लग्जरी गाड़ियों में दनदनाते हुए बेरोक-टोक इन पर से गुजरना चाहते हैं.

इस पर पहले ने हतप्रभ-सा होकर कहा- लेकिन सरकार को थोड़ी तो थके-हारों की फिक्र भी करनी चाहिए. उन्हें तो सुस्ताने की जरूरत पड़ती है.

दूसरा पहले हंसा, फिर अपने मोबाइल में देखकर जोर-जोर से पढ़ने लगा- श्रीराम इंटरनेशनल एयरपोर्ट का निर्माण जुलाई तक पूरा हो जाने की संभावना है. उसका कंट्रोल टावर बन चुका है, जबकि रनवे का नब्बे प्रतिशत व टर्मिनल बिल्डिंग का सत्तर प्रतिशत काम पूरा हो चुका है. दूसरी ओर तेजी से बन रहे राम मंदिर की भव्यता उद्योगपतियों को बहुत आकर्षित कर रही है और अयोध्या में आतिथ्य क्षेत्र की कंपनियों का जमावड़ा होने लगा है. ताज, रैडिसन व आईटीसी होटल जैसे प्रमुख पांच सितारा और ओयो जैसे सस्ते होटलों की बुकिंग सुविधा उपलब्ध कराने वाले ब्रांड के साथ अनेक कंपनियां वहां अपने होटल खोलने की तैयारी कर रही हैं.

दूसरे युवक को अपने सवाल का जवाब मिलता नहीं लगा, तो उसने अधीर होकर पहले को डपटकर कहा- पगलाओ मत. जो भी कहना है, साफ-साफ कहो. अगर यह बताना चाहते हो कि थके-हारों की सुस्ताने की ही नहीं दूसरी जगहें भी खतरे में पड़ने वाली हैं, तो यह बात तुम्हें ही नहीं, मुझे भी पता है, सबको पता है.

यहां आप हैरत में पड़ सकते हैं- अखबार यह सब छाप नहीं रहे, टीवी चैनल दिखा नहीं रहे, फिर भी बात है कि सबको पता है! मैंने भी सुना तो चकित हुआ था. एक पत्रकार मित्र से इसका जिक्र छेड़ा तो उन्होंने चिढ़ते हुए कहा था- खाक पता है! पता होता तो कोई तो पूछता कि जो लोग ‘अयोध्या पहली झांकी है’ का नारा लगाते-लगाते सत्ता में आए हैं, उन्हें अयोध्या के कॉरपोरेटीकरण की पहली झांकी दिखाने की इतनी बेसब्री क्यों है? ‘जो राम को लाए हैं’ वे उनकी नगरी में कॉरपोरेट को भला क्यों ला रहे हैं?

मुझे कोई जवाब नहीं सूझा, तो मित्र चुटकी लेने पर उतर आए- लेकिन ठीक ही है. जैसे तुम्हें नहीं पता, उन युवकों को नहीं पता. वैसे ही उत्तर प्रदेश सरकार को भी कुछ नहीं पता. जमीनी हकीकत का तो एकदम से नहीं. वरना वह रामनवमी पर आए दर्शनार्थियों को हेलिकॉप्टर से अयोध्या दर्शन कराने के फेर में पड़कर अपनी भद न पिटवाती.

मुझे याद आया, उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने रामनवमी पर पखवाड़े भर की हेलिकॉप्टर से अयोध्या दर्शन की योजना शुरू की, तो मीडिया, खासकर न्यूज चैनलों ने यह कहकर उसे भरपूर प्रचार दिया था कि त्रेता में भगवान राम वनवास से लौटे तो उन्होंने पुष्पक विमान से विभीषण, सुग्रीव और अंगद को ऐसे ही अयोध्या दिखाई थी. योजना के तहत हर इच्छुक दर्शनार्थी से तीन हजार रुपये लेकर सुबह नौ बजे से शाम छह बजे के बीच सात मिनट में समूची अयोध्या का हवाई दर्शन कराया जाता था. पर्यटन विभाग को उम्मीद थी कि दर्शनार्थी इस उत्सुकता में उसके हेलिकॉप्टर पर सवार होने के लिए उमड़ पड़ेंगे कि जानें आसमान से अयोध्या कैसी दिखती है, इसलिए उसने दर्शनार्थिर्यों के रुचि लेने पर योजना की अवधि बढ़ाने की घोषणा भी कर दी थी. लेकिन वह 11 दिनों की उड़ानों के लिए भी पर्याप्त दर्शनार्थी नहीं जुटा सका. उनकी संख्या सैकड़ों में ही रह गई, हजार तक भी नहीं पहुंची और योजना नियत समय से चार दिन पहले ही धड़ाम हो गई.

क्यों हुआ ऐसा? दरअसल, अयोध्या के पांच साल से कम के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं- जाहिर है, अपने पालनहारों की गरीबी के कारण, जिनके लिए सात मिनट के ‘गगन-विहार’ के लिए तीन हजार रुपये देकर अपनी जब ढीली करना किसी हिमाकत से कम नहीं, लेकिन देश के दूसरे भागों से आए श्रद्धालुओं ने भी, जिनके बारे में दावा किया जाता है कि राम मंदिर निर्माण को लेकर बड़े उत्साहित है, इस गगन विहार में रुचि नहीं ली.

मैंने मित्र से पूछा- तुम्हारे अखबार में इस योजना के फ्लॉप होने की खबर छपी थी क्या? उनका जवाब था- नहीं, मालिकों ने अयोध्या के बारे में कोई भी नकारात्मक खबर न छापने के निर्देश दे रखे हैं.

अब मेरे चुटकी लेने की बारी थी- तो अयोध्या में बड़ी-बड़ी कंपनियों के जमावड़े को वे जरूर सकारात्मक मानते होंगे, उन्हें लगता होगा कि ये कंपनियां भी अपनी धार्मिक आस्था से अभिभूत होकर ही अयोध्या की ओर भागी चली आ रही है और वहां त्रेता की वापसी में प्रदेश सरकार का हाथ बंटाएंगीं! वरना वे इसकी खबर ही क्यों देने देते?

मित्र ने इसका जवाब चुप्पी से दिया और उनसे विदा लेकर मैंने उन नगरों के बारे में, जिन्होंने अयोध्या से पहले धर्म, सत्ता, कॉरपोरेट और मीडिया के गठजोड़ का फल चख रखा है, सोचते हुए अपने घर की राह पकड़ी तो भाजपा के मेयर पद के प्रत्याशी प्रचार करते मिल गए. सड़कें चौड़ी करने में जिन व्यापारियों के घर, दुकानें और प्रतिष्ठान वगैरह तोडे़े गए हैं, उन्हें वे आश्वस्त कर रहे थे कि आगामी दस वर्षो में अयोध्या की ओर पूंजी का ऐसा तेज प्रवाह होगा कि उनमें से कई को अरबपति होते देर नहीं लगेगी.

सुनकर मेरे मन में सवाल उठा-क्या पता इनको मालूम है या नहीं कि किसी एक व्यक्ति को अरबपति बनाने की कीमत कितने लोगों को कितने पाटों के बीच पिसकर और गरीबी की रेखा के कितने नीचे जाकर चुकानी पड़ती है और क्या अयोध्या इन दिनों उससे कुछ कम पाटों के बीच पिस रही है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)