…नरक तुम्हारे भीतर है वह

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय द्वारा लिखित एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. इस नाटक, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है. 

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अज्ञेय के नाटक 'उत्तर प्रियदर्शी' का मुखपृष्ठ. (साभार: वाग्देवी पॉकेट बुक्स)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय द्वारा लिखित एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. इस नाटक, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है.

अज्ञेय के नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ का मुखपृष्ठ. (साभार: वाग्देवी पॉकेट बुक्स)

इधर असम के उच्च न्यायालय ने असम सरकार को उसके द्वारा स्थापित-संचालित संदिग्ध नागरिकता वाले नागरिकों के लिए पुनर्वास केंद्र में अमानवीय स्थिति के लिए खुली फटकार लगाई है. दिल्ली में बौद्ध सम्मेलन हुआ. मुझे ख़याल आया कि अज्ञेय ने जो एकमात्र नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ लिखा था वह सम्राट अशोक द्वारा पाटिलपुत्र में स्थापित नरक की कथा को लेकर था. मैंने खोजकर उसे पढ़ा.

नाटक की भूमिका में अज्ञेय कहते हैं कि ‘पांचवी शती के चीनी यात्री फाह्यान ने बताया है कि पाटिलपुत्र नगर के बाहर उसने एक दीवार देखी थी जो अशोक ने बनवाए हुए नरक की प्राचीर बताई जाती थी. सातवीं शती के दूसरे चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नरक संबंधी इस कथा की पुष्टि की है.’

अज्ञेय बताते हैं कि ‘अशोक पहले प्रचंड स्वभाव का और क्रूर शासक था. उसने एक परम नृशंस व्यक्ति को खोजकर एक नरक बनवाया. इस नरकाधिपति को उसने आश्वासन दिया कि नरक-सत्ता में उसकी सत्ता सर्वोपरि होगी- यहां तक कि स्वयं राजा भी उसके भीतर आ जाए तो उनके नियम से अनुशासित होगा. घटना-चक्र में राजा को राज-मर्यादा की रक्षा के लिए वहां आना पड़ा.’

अज्ञेय आगे यह कहते हैं कि ‘उन्नीसवीं शती के अंतिम दिनों में अंग्रेज़ सैनिक पुरातत्व प्रेमी वैडेल ने पाटिलपुत्र में जो खुदाई कराई थी, उसमें ऐसे स्थलीय अवशेष मिले थे जो फाह्यान और ह्वेन त्सांग के वर्णन से मेल खाते थे.’

‘उत्तर प्रियदर्शी’ नाटक में अशोक अपने प्रियदर्शी नाम से है. प्रियदर्शी कहता है: ‘मैं नहीं सुनूंगा./नहीं सहूंगा./नरक चाहिए मुझको./इन्हें यंत्रणा दूंगा में,/जो प्रेत शत्रु थे/मेरे तन में एक फुरहरी जगा रहे हैं/अपने शोणित की अशरीर छुअन से. उन्हें नरक.’

इस पर एक संवादक कहता है: ‘यह पृथ्वी-परमेश्वर/व्यापक अपनी सत्ता का निकष मानता है/अपने ही रचे नरक को.’

उधर नरक का सर्वेसर्वा दंभ करता कहता है: ‘…मैं बज्र! निष्करुण! अनुल्लंघ्य मेरे शासन में दया घृण्य! ममता निष्कासित! मैं महाकाल! मैं सर्वतपी….’

नाटक में यह नरक अपनी पूरी नृशंसता में सक्रिय रहता है: उसे राजा का आश्वासन है कि वह भी अगर आ गया तो नरक के अनुशासन का पालन करेगा. आगे एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगते हुए नरक में प्रवेश कर जाता है और उसे खौलती कड़ाही में डाल दिया जाता है. जो होता है उस पर नरक के शासक की टिप्पणी यों है:

पर यह कैसा व्याघात? नरक-संगीत
हो गया धीमा: ध्वनियां चीत्कारों की
चलीं डूब:
खोलती कड़ाहों पर से घटा घुमड़ते काले-धुएं की
छितरा गईं आग की लपटें
ठंडी होकर सह्य हो चलीं–
क्यों? जो सह्य हो गया
वह फिर कैसा नरक?
शिथिलता-नरमी! कोड़े को ही
करुणा का कीड़ा लग गया कहीं तो
फिर यम-यंत्र रहेगा कैसे?…

प्रियदर्शी को जब नरक की इस घटना का पता चलता है तो वह कहता है:

उत्तप्त कड़ाहों में खिल उठे
कोकनद कमल.
काल झंझा हो मृदुल, बन गया
चंदनगंध समीकरण.
किंकर्तव्य, परास्त हुआ मेरा अमोध प्रतिभू,
यम! वज्र घोर.
परमेश्वर प्रियदर्शी का शासन
व्यर्थ हुआ.

प्रियदर्शी इस चमत्कार को देखने स्वयं नरक में जाता है और पाशग्रस्त होकर कशाघात से चीत्कार करता है तो नरक-शासक घोर कहता है:

…बंधा हुआ है तू भी.
नरक
स्वयं तूने मांगा था.
मुझको नरक चाहिए! ले,
प्रियदर्शी परमेश्वर.
अपनी स्फीत अहंता का
यह पुरस्कार. ले. नरक.

प्रियदर्शी की जिज्ञासा करने पर भिक्षु कहता है:

… नरक तुम्हारे भीतर है वह. वहीं
जहां से निःसृत पारमिता करुणा से
उसका अघ घुलता है- स्वयं नरक ही गल जाता है.
एक अहंता जहां जगी, भव-पाश बिछे, साम्राज्य बने-
प्राचीर नरक के वहीं खिंच गए:
जागी करुणा मिटा नरक
साम्राज्य ढहे, कट गए बंध,
आप्लवित ज्योति के कमल-कोश में
मानव मुक्त हुआ.

इतिहासकार तो इतना ही बताते आए हैं कि अशोक का हृदय-परिवर्तन कलिंग के नरसंहार के बाद हुआ और वह एक करुणामय बौद्ध बन गया. अज्ञेय यानी एक कवि इस कथा के भूले सूत्र पकड़ता और उसे स्वयं अपने बनाए नरक से मुक्ति की ओर ले जाता है. इस नाटक की, उसके मूल अभिप्राय की वर्तमान भारत के लिए प्रासंगिकता बिल्कुल स्पष्ट है. उसे अलग से कहना ज़रूरी नहीं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)