समाज का काम कभी-कभी साहित्य के बिना चल सकता है, पर साहित्य का समाज के बिना नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.

(फोटो साभार: Ed Robertson/Unsplash )

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.

(फोटो साभार: Ed Robertson/Unsplash )

साहित्य में पचास वर्षों से अधिक सक्रिय रहने के बाद ऐसे ईमानदार आग्रह होते रहते हैं कि मैं साहित्य के बारे में अपनी स्थापनाओं का एक संक्षिप्त संचयन तैयार कर दूं. जब ऐसे आग्रहों का दबाव कुछ बढ़ा तो मैंने ऐसा कर दिया. ये सभी स्थापनाएं या विचार संवाद और आलोचना के लिए हैं: उन पर कुछ संवाद जब-जब हुआ भी है. बहरहाल वे इस प्रकार हैं:

संसार और जीवन से अनुराग के बिना सार्थक साहित्य संभव नहीं. साहित्य, भाषा से अनुराग इसी जीवन-अनुराग का इज़हार और संस्करण होते हैं. साहित्य व्यक्ति ही लिखते हैं, समाज नहीं. पर भाषा सामाजिक संपदा है जिसे लेखक बरतते-बदलते हैं. गहरे भाषा-बोध के बिना गहरा साहित्य-बोध संभव नहीं.

साहित्य में जो कुछ भी होता है बुनियादी और प्राथमिक तौर पर भाषा में ही होता है और भाषा में होकर ही वह भाषा के बाहर हो पाता है. साहित्य के संदर्भ में भाषा के प्रति लापरवाही जीवन और संसार के प्रति लापरवाही है.

साहित्य भाव-अनुभव-यथार्थ-स्वप्न-कल्पना-क्रीड़ा-विचार आदि के रसायन से उपजता है और उसे लेखक के विचार या दृष्टि में घटाना उसकी संश्लिष्ट संरचना और अनेक आशयों के साथ अन्याय है. अन्य तथाकथित वैचारिक अनुशासनों जैसे दर्शन, इतिहास, विज्ञान, विचारधारा, मनोविज्ञान आदि की ही तरह साहित्य भी विचार की एक वैध विधा है जिसे स्वीकार करने में इन अनुशासनों के अलावा स्वयं साहित्य-जगत में बड़ी हिचक रही है.

लेकिन साहित्य का विचार तथाकथित वस्तुनिष्ठ विचार नहीं होता: साहित्य में विचार रागसिक्त होता है, हिस्सेदारी में अवस्थित. साहित्य सरलीकरण, सामान्यीकरण और समग्रीकरण के विरुद्ध अथक सत्याग्रह करता है. उसमें ‘कुल मिलाकर’, ‘संक्षेप में’, ‘उपसंहार’ जैसा कुछ नहीं होता.

यों तो साहित्य अपने आप में पर्याप्त सामाजिक और नागरिक कर्म है. लेकिन ऐसे समय होते हैं, आज हमारा ध्रुवांतकारी समय ऐसा है जिसमें सजग नागरिकता साहित्यिक अभिव्यक्ति के अलावा नागरिक सक्रियता की मांग करती है. ऐसी सक्रियता लेखक के लिए लगभग नैतिक कर्तव्य हो जाती है. हर समय अच्छा और सच्चा साहित्य अपने आत्म-समय-समाज-सचाई का सहचर, गवाह, प्रश्नांकनकर्ता होता है. वह घृणा-झूठ-अन्याय-विषमता-हिंसा का प्रतिरोध होता है. अंतःकरण का शायद आखि़री, पर अडिग बुर्ज.

जब बाक़ी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-संस्थाएं निष्क्रिय-निस्तेज और समझौतों पर विवश हो रही हों, साहित्य में उम्मीद करना कि वह साहस-कल्पना-विकल्प की जगह बने लगभग स्वाभाविक है. सभ्यतागत उपक्रम में साहित्य की यह भूमिका है. किसी न किसी अर्थ में साहित्य सभ्यता-समीक्षा होती है, सर्जनात्मक व्यवहार, विचार में. यह समीक्षा उसका सहज स्वभाव होती है. उसे बड़बोलेपन से बचाती, विनय का पाठ सिखाती है.

आलोचना का बुनियादी काम अपने समय और समाज में साहित्य और कलाओं की जगह बनाना, बचाना, बढ़ाना और साहित्य में सामाजिक रुचि को जगाना, परिष्कृत और संवेदनशील करना है. आलोचना साहित्य की अदालत नहीं है जिसमें उसे फ़ैसला देना होता है. उसका असली काम किसी कृति या लेखक में क्या हो रहा है इसका संवेदना-समझ के साथ बखान और विश्लेषण करना है ऐसे कि पाठक मूल रचना की ओर जाने के लिए उत्साहित हों.

हमारा समय तरह-तरह की विस्मृतियों का है. जातीय स्मृति अपदस्थ करने और नई स्मृति थोपने का सुनियोजित षड्यंत्र किया जा रहा है. स्वयं साहित्य विस्मृतिग्रस्त हो रहा है. ऐसे समय में आलोचना का एक काम स्मृति को सक्रिय रखना, उसका दबाव बनाए रखना है. साहित्य में सौंदर्य और संघर्ष साथ रहते हैं: सौंदर्य के लिए संघर्ष भी संघर्ष है और संघर्ष में भी सौंदर्य होता है. रामचन्द्र शुक्ल तो कर्मसौंदर्य की बात कर गए हैं.

जैसे सृजन वैसे आलोचना में दृष्टियों, संवेदनाओं, विचारों, शैलियों, पूर्वाग्रहों आदि की बहुलता होती है: यह साहित्य के स्वास्थ्य और जनतंत्र दोनों के लिए अनिवार्य है. समाज का काम कभी-कभी साहित्य के बिना चल सकता है, पर साहित्य का काम समाज के बिना नहीं चल सकता. साहित्य समाज का ज़रूरी एकांत होता है जिसमें जाने से समाज हिचकिचाता रहता है.

साहित्य उन शक्तियों में से नहीं रह गया जो मानवीय स्थिति को बदल सकती हैं- फिर भी हमें ऐसा लिखना चाहिए मानो कि हमारे लिखने से स्थिति बदल सकती है.

आधुनिक समय में साहित्य से रहस्य और विस्मय ग़ायब सा हो गया है: उनका साहित्य में पुनर्वास ज़रूरी लगता है. साहित्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह जातीय स्मृति का वेदरोदीवार का संग्रहालय भी होता है: उसका काम इस स्मृति की हिफ़ाज़त करना भी है.

साहित्य हमें कई समयों में ले जा सकता है: वह समयबद्ध और समयविद्ध होते हुए भी समयातीत को छूने की कोशिश करता है. साहित्य में जो स्वतंत्रता हमें मिली हुई है वह हमने अपने प्रयत्न या संघर्ष से अकसर अर्जित नहीं की है: वह हमारे पुरखों का हमें उपहार है.

साहित्य हर समय रंगभूमि और रणभूमि एक साथ होता है. साहित्य परिवर्तन, मुक्ति और विकल्प की आकांक्षा उत्कट और तीव्र करता है.

नया भक्ति काल

इन अच्छे दिनों में अमृत काल के अलावा या उसी में नया भक्ति काल भी चल रहा है. इतिहास में सब संयोग सुखद नहीं होते: कुछ दुखद भी होते हैं जैसे कि यह. पहले के भक्ति काल में, जिसे उचित ही भारतीय सभ्यता का स्वर्णकाल कहा जाता है, भक्ति बंदनयन नहीं थी.

उसमें कबीर पंडित और मौलवी दोनों की खिल्ली उड़ा सकते थे. तुलसीदास राम से अपनी प्रजा को संबोधित करते हुए यह कहला सकते थे कि अगर वे कोई अनीति करें तो लोग उन्हें बिना भय के बरजें. स्वयं तुलसीदास अपने बारे में यह कह सकते थे कि वे मांग के खाएंगे, मस्जिद में रहेंगे और उनका किसी से न कुछ लेना, न कुछ देना होगा. सूरदास गोपियों से कृष्ण के दूत ऊधो पर यह कूटक्ति करा सकते थे कि ‘ऊधो, तुम राजनीति कर आए.’

यह भक्ति थी, जो एक सामंती समाज में भी, लोकतांत्रिक, संवादप्रिय, प्रश्नवाचक और नैतिक रूप से सक्रिय और सशक्त थी. नए भक्तिकाल में सिर्फ़ वफ़ादारी, वाहवाही, चुप्पी, स्तुति चाहिए. नए भक्तिकाल में संवाद, प्रश्नवाचकता, नैतिकता लगभग ग़ायब है. मुग़ल काल में ईश्वर की भक्ति में लोकतांत्रिकता थी, लोकतंत्र में अमृतकाल में राजा की भक्ति में लोकतांत्रिकता की जगह नहीं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq