बनारस संस्कृति की आदिम लय का शहर है. जब मार्क ट्वेन कहते हैं कि ‘बनारस इज़ ओल्डर दैन द हिस्ट्री’ यानी ये शहर इतिहास से भी पुराना है तब वाकई लगता है कि सौ साल से भी अधिक समय पहले लिखी उनकी यह बात आज भी इस शहर के चरित्र पर सटीक बैठती है.
बनारस- गलियों का शहर, मंदिरों का शहर, रबड़ी-लस्सी का शहर, हींग कचौरियों का शहर, भीड़ का शहर, देश के कोने-कूचों से आए श्रद्धालुओं का शहर, सुदूर देशों के सैलानियों का शहर, बनारसी कपड़ों का शहर, गंगा के अनगिनत घाटों का शहर, मोक्ष का शहर, राजाओं का शहर, सड़क किनारे हाथ पसारे याचकों का शहर, गति का शहर, घंटों ठहरे ट्रैफिक का शहर, सत्ता का शहर, विद्या का शहर…
न जाने ऐसे कितने ही विशेषण बनारस को उत्तर भारत का एक ऐसा शहर बना देते हैं, जिसे चाहकर भी अनदेखा नहीं किया जा सकता. मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी इस ऐतिहासिक शहर से प्रभावित हो, फ़ारसी में एक मसनवी ‘चराग़-ए-दैर’ नाम से लिखी थी और बनारस को दुनिया के दिल का नुक्ता माना था. मसनवी में ग़ालिब लिखते हैं:
‘कि मी आयद ब दावा गाह ए लाफ़श
जहानाबाद अज़ बहर ए तवाफ़श.
बनारस रा मगर दीदस्त दर ख़्वाब
कि मी गरदद ज़ नहरश दर दहन आब.’
(ये वो फ़ख्र करने वाली जगह है, जिसके चक्कर काटने ख़ुद दिल्ली भी आती है. शायद दिल्ली ने बनारस को ख़्वाब में देखा है, तभी तो उसके मुंह में नहर का पानी भर आया है.)
गंगा के अथाह विस्तार के किनारे बसा बनारस उर्फ वाराणसी, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पूर्वी हिस्से में फैला एक बड़ा शहर है. वाराणसी, जिसे प्राचीन समय में काशी कहते थे, का नामकरण ही गंगा की दो सहायक नदियों, वरुणा और असी जिनका संगम यहां होता है, के योग से किया गया है. वरुणा, तो आज भी बनारस के उत्तरी भाग में बहती है और दक्षिणी भाग में बहने वाली असी, के नाम पर ही असी घाट गंगा के प्रमुख घाटों में से एक है.
जिस तरह नदियों के किनारे सभ्यताएं अपना निर्माण करती हैं, उसी आधार पर यह माना जाता है कि बनारस भी विश्व के उन प्राचीनतम शहरों में हैं जहां सभ्यताएं सदैव बसती रहीं हैं. तकरीबन 4,000 साल पुरानी एक शहरी सभ्यता के भग्नावशेष वाराणसी के बभनियांव में अभी हाल ही में मिले हैं तो वहीं महाजनपदों के युग में काशी एक महत्वपूर्ण और विशाल महाजनपद रह चुकी थी.
भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी के पास ही सारनाथ में दिया था. इस प्रकार, आरंभ से ही बनारस धर्म, संस्कृति और व्यापार के प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता रहा है.
शैव मत के केंद्र के रूप में आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में इसे प्रसिद्ध किया और शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ बनारस में ही स्थित है, जो हिंदुओं के प्रमुख तीर्थों में से एक माना जाता है. एक बड़े से भू-भाग में फैले विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्वरूप के निर्माण का कार्य इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर के कार्यकाल में शुरू हुआ. मंदिर परिसर से जुड़ा हुआ ही प्रसिद्ध ज्ञानवापी मस्जिद भी है जिसे मुग़ल शासक औरंगजेब ने बनाया था और एक बड़े वर्ग द्वारा यह माना जाता है कि मस्जिद का निर्माण एक शिव मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था.
इस प्रकार आधुनिक भारत में बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि इत्यादि की तर्ज पर ही काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के सह-अस्तित्व को भी राजनीतिक-सांप्रदायिक रंग देकर कभी न खत्म होने वाले कानूनी विवादों की शक्ल दे दी गई है. पर जिस उद्देश्य के लिए मंदिर या मस्जिद होते हैं वह अपनी गति से अपनी रोज की नियमितता के साथ पूरे होते ही हैं. जहां मंदिर में भक्त कतारों में घंटों खड़े रहकर विश्वनाथ के दर्शन को लालायित रहते हैं, वहीं मस्जिद में भी नियम से नमाज़ पढ़ने वालों की भीड़ होती है.
मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन के कई बड़े और महत्वपूर्ण संतों और भक्तों की नगरी के रूप में बनारस विख्यात रहा. बनारस साहित्य की उर्वर भूमि रहा है. कबीर, रैदास से लेकर तुलसीदास ने भी अपने रामचरितमानस की रचना बनारस में ही की. आधुनिक समय में कुछ प्रमुख व्यक्ति जो साहित्य और कला से जुड़े हुए बनारस ने दिए, उनमें से भारतेन्दु हरिश्चंद्र, किशोरी लाल गोस्वामी, देवकी नंदन खत्री, मुंशी प्रेमचंद, आगा हश्र कश्मीरी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, बेढब बनारसी, धूमिल, नामवर सिंह इत्यादि प्रसिद्ध हुए.
इस प्रकार, उत्तर भारत के एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र के रूप में बनारस को जाना जाता है, जहां धर्म, साहित्य, भक्ति, संगीत, कला का वह वृत्त बनता है जो पूरे हिंदुस्तान में एक ही स्थान पर कम ही देखने को मिलता है.
प्राचीन समय से ही शिक्षा के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध इस शहर में आधुनिक काल में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना पंडित मदन मोहन मालवीय ने सन 1916 में की. इससे पहले इसी स्थान पर थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रमुख एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की थी, जो आगे चलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का हिस्सा बना.
संगीत की दृष्टि से बनारस घराना, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की चुनिंदा परिपाटियों में से एक रहा है, जिसने संगीत के बड़े-बड़े पुरोधा, संगीत जगत को दिए हैं. शास्त्रीय संगीत में रसूलन बाई, गिरिजा देवी, सिद्धेश्वरी देवी, राजन-साजन मिश्रा तो प्रसिद्ध हुए ही, यह घराना अपने तबला वादन की परंपरा के लिए भी प्रसिद्ध रहा है. समता प्रसाद, लच्छू महाराज, किशन महाराज इस दृष्टि से प्रमुख तबला वादक हुए.
शास्त्रीय नृत्यों में प्रमुख, कथक, के लिए भी बनारस घराना अपनी विशिष्ट शैली और प्रस्तुति के लिए जाना जाता है. काशी के राजदरबार से संरक्षण प्राप्त इस नृत्यशैली को काशी घराना भी कहा जाता है. पंडित कालका प्रसाद जो इस घराने के पहले नर्तकों में से थे को स्वयं काशी नरेश से संरक्षण और अनुदान प्राप्त होता था. गुरु जानकीप्रसाद द्वारा शुरू किए गए इस घराने में ही आगे चल कर सितारा देवी, पंडित बिरजू महाराज, जितेंद्र महाराज, शोभना नारायण जैसे विश्वप्रसिद्ध कथक नर्तक हुए.
इन सबके साथ ही यह शहर गंगा के घाटों के लिए भी प्रसिद्ध है. 84 से भी ज़्यादा घाट गंगा की लंबाई के समानांतर, किनारों पर बनाए गए हैं, जिनकी ऊंची-ऊंची सीढ़ियां गंगा स्नान करने आए श्रद्धालुओं और गंगा आरती देखने आए दर्शनार्थियों से खचाखच भरी रहती हैं. दशाश्वमेध घाट इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है, जो काशी विश्वनाथ मंदिर की तरफ जाता है, और जिसकी गंगा आरती देखने आई भीड़ कुंभ मेलों की याद दिला देती है.
कहते हैं जो जीते जी काशी नहीं आ पाते, प्रायः मरने के बाद आते हैं, क्योंकि गंगा के किनारे बसे घाटों पर अंतिम क्रिया होना, हिंदू मिथकों के हिसाब से, सीधे मोक्ष की ओर ले जाता है. मणिकर्णिका घाट पर रात के निविड़ अंधकार में होते दाह संस्कार अनंत आकाश और अथाह बहती गंगा के विस्तार में मनुष्य की क्षणभंगुरता और उसकी लघुता का आभास दिलाते-से लगते हैं. गौर से देखने पर इस घाट से लगी गंगा की रंगत भी दिन-रात होने वाले दाह संस्कारों से उड़ती राख से मिल थोड़ी काली लगती है.
बनारस की लोकप्रियता दक्षिण भारत से आने वाले श्रद्धालुओं में इतनी अधिक है कि इनसे सही से संवाद किया जा सके, इसके लिए यहां के दुकानदारों ने भी तेलुगु, तमिल जैसी भाषाएं सीख लीं हैं, जो विशेषकर उत्तर-भारत में विरल है. कतारों में बड़े-बड़े समूहों में चलते हुए भक्त लगभग बनारस के हर मंदिर, हर घाट के परिवेश का सबसे प्राकृतिक हिस्सा लगते हैं. कई विशेष अवसरों पर तो अकेले काशी विश्वनाथ के परिसर में ही एक दिन में दस लाख से ज्यादा श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं.
जहां तक नज़र जाती है वहां मानो जनसमुद्र ही बहता चला आता हो. पूरे शहर के सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में इस प्रकार देश-विदेश से आए भक्तों और सैलानियों का प्रमुख स्थान रहता है. महंगे-से-महंगे होटलों के साथ ही बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं पूरे शहर में जाल की तरह बिछी हुई हैं जो शहर की अर्थव्यवस्था का ज़रूरी हिस्सा हैं. इस दृष्टि से दुकानों की लंबी-लंबी कतारें भी सड़क के दोनों ओर मन लुभाने की हर वो चीजें जुटा लेती हैं, जिस पर न चाहते हुए भी नजर पड़ ही जाती है. बड़े धीर संयमी ही शायद इन दुकानों के मायावी इंद्रजाल से बच कर चल पाते हैं.
बनारसी साड़ियों के लिए विश्वप्रसिद्ध शहर में फुटपाथ की दुकान भी असली बनारसी कपड़े बेचने का दावा करती नजर आती है. सोने और चांदी की महीन जरी का काम, जब चटख रंगों की सिल्क और चंदेरी के कपड़ों पर जाल और बूटियों की तरह उभरता है, तो बनारसी साड़ियों और दुपट्टों पर की गई दस्तकारी देखने लायक होती है. जितना बारीक और घना काम, उतना ही ज़्यादा दाम. पर बुनकर की कुशल और साफ कारीगरी को देखते हुए दिया जाने वाला दाम भी कम लगता है.
सच ही कहा गया है, एक कलाकार की कला का मूल्य तो कोई नहीं चुका सकता. बनारसी काम भी तो पारंपरिक रूप से हथकरघे पर की जाने वाली कष्टसाध्य कला ही है, जिसे बुनकरों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने परिवार में करती चली आ रही है. हालांकि, गुरु-शिष्य परंपरा का सुंदर नमूना जो विरासत में सिखाई जाती है, उसके धीरे-धीरे खत्म होते जाने की प्रक्रिया भी इसी शहर में देखी जा सकती है. बिजली से चलने वाली मशीनों ने हाथ और धैर्य का जब से स्थान ले लिया है, तब से पारंपरिक बुनकरों की स्थिति दुखद है जिन्हें न केवल गिरते दामों से मुकाबला करना पड़ता है, बल्कि प्रामाणिक काम की दौड़ में भी शामिल होना पड़ता है.
बनारस, के सामाजिक परिवेश में आज भी काशी नरेश की पदवी पर आसीन महाराज और उनके राज परिवार की उपस्थिति का अनुभव किया जा सकता है, हालांकि अब सारी राजशाही महज़ नाम की ही है, और उत्तरोत्तर आने वाले राज-परिवार अपने पूर्वजों से आदर्शों और सामाजिक प्रतिष्ठा में कहीं दूर गिर चुके हैं. पर रामनगर के क़िले के एक बड़े हिस्से को, जिसे संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है, देखने दूर-दूर से सैलानी आते हैं.
नारायण साम्राज्य के प्रमुख बलवंत सिंह ने साल 1740 में मुग़लों से अपनी संप्रभुता सिद्ध की थी और स्वयं को काशी नरेश घोषित किया. 1911 में एक रजवाड़ा के रूप में राजकीय पहचान मिलने के बाद रामनगर ही काशी नरेश की राजधानी बना. काशी नरेश जो शहर के सांस्कृतिक प्रतिनिधि थे, वाराणसी के सामाजिक पहचान के भी प्रतीक थे, और सर्व-सम्मानित थे. आधुनिक समय में काशी नरेश विभूति नारायण सिंह जन-सामान्य में सबसे अधिक प्रचलित और प्रतिष्ठित महाराजा हुए. पर उनके बाद आने वाली पीढ़ी में संपत्ति और संसाधनों पर अधिकार की लड़ाइयों में काशी नरेश की भावात्मक पदवी से जुड़ी लोगों की आस्था का पूरा लोप आज के समय में दिखाई पड़ता है.
इसी का प्रमाण है कि रामनगर का क़िला जो कभी अपनी बुलंदी के लिए जाना जाता था, वह अब भग्नावशेष से कुछ ही बेहतर स्थिति में है. यह शहर के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को न सहेजे जाने की स्थिति का ही प्रतीक है, जिसे वर्तमान सरकारें भी नज़रअंदाज कर चुकी हैं.
बनारस को उसकी भीड़ भी मशहूर बनाती है. सड़क पर प्रशासन द्वारा मुस्तैद किए गए पुलिस और ट्रैफिक पुलिस के मौजूद होने के बावजूद आवागमन की कोई सुव्यवस्थित योजना यहां नहीं दिखती. गोदोलिया चौक और नंदी चौराहे के पास से मानो सभी दिशा में यातायात चलता रहता है, और किसी को रोका नहीं जा सकता. पुलिस भी बस वहीं खड़े यह पूरी गतिविधि देखती रहती है, क्योंकि लोगों के बहते समुद्र को थाम पाना असंभव हो जाता है.
ज्यादा-से ज्यादा बस यह ताक़ीद कर दी गई है कि एक निश्चित सीमा के बाद गाड़ियों और ऑटो-रिक्शा के प्रवेश करने पर रोक लगा दी गई है. पर इससे कुछ विशेष फ़र्क नहीं पड़ता और सड़कों पर दिन के हर पहर लंबे जाम लगे रहते हैं. भीड़ और लंबी जाम का आलम यह है कि गोदोलिया से महज़ आठ किलोमीटर की दूरी पर बसे सारनाथ पहुंचने में यात्रियों को दो घंटे लग जाते हैं. पर इस भीड़-भाड़ और ठहरे हुए शहर में भी जीवन अपनी गति से ज़ारी रहता है.
शहर के रिहायशी इलाकों तक तो केवल गलियां ही गलियां जाती हैं. एक गली के भीतर दसियों गलियां फूटती हैं. पूरा बनारस गलियों में बंटा दिखाई पड़ता है, और इसलिए अपनी गलियों के लिए विख्यात भी है. महानगरों में जिस तरह मोहल्लों के बीचों-बीच पार्क इत्यादि की व्यवस्था कर दी जाती है, बनारस की गालियां ही पार्कों का काम करती दिखाई पड़ती हैं. रिक्शों और गाड़ियों के लगातार गुजरते रहने के बीच ही, बच्चों के क्रिकेट भी साथ-ही-साथ इन गलियों में चलते रहते हैं. मुहल्ले की बड़ी-बूढ़ियां गलियों में ही अपनी आम-सभा लगाती हुई दिख जाएंगी और मिर्चें और बड़ियां भी सड़कों पर ही सूखते दिखेंगे.
इसलिए बनारस गति और ठहराव का अनोखा मिश्रण है. यातायात भले ही मंथर गति से चलता हो, जीवन की गति अबाध है. जीवन की गति की झलक आधुनिकता के दबावों में भी दिखलाई पड़ती है. किसी भी आधुनिक शहर की तरह यहां भी भूमंडलीकरण के प्रभाव से बड़े-बड़े ब्रांड और दुकानें अपनी जड़ें जमा चुकी हैं. इसलिए अगर बनारसी पूड़ियों और रबड़ियों के लिए मशहूर शहर में, मैकडोनॉल्ड के बर्गर और डोमिनोज़ के पिज़्ज़ा भी धड़ल्ले से मिले तो कोई बड़ी बात नहीं.
और यह भी असाधारण मंज़र नहीं कि इन बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय दुकानों के अंदर-बाहर भीड़-ही-भीड़ दिखाई पड़े. कहने का मतलब यह कि शहर और उसकी सामाजिकता भी परिवर्तन के, समय के दबावों के आगे बदलती रहती हैं और इस तरह इनकी शिनाख्त के जो चिह्न थे, ज़रूरी नहीं की उसी प्रकार मौजूद हों. अक्सर शहरों की निशानियां भी बदल जाया करती हैं.
बनारस वर्तमान सत्ता का भी शहर है. इसलिए तथाकथित विकास की गति किसी भी आम भारतीय शहर से बेहतर है. रेलवे के स्टेशन भव्य बनाए हुए हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों की आवाजाही बढ़ी हुई है, रिहायशी परियोजनाएं अपने-अपने चरणों में विकसित दिखती हैं और सड़कों पर सत्ता के चिह्न भी हर कहीं दृश्यमान हैं. कुल मिलाकर सत्ताधीशों के शहर होने से जितनी भौतिक सुविधाएं किसी शहर को मिल सकती हैं, वह हमें बनारस में सहज ही दिख जाया करती हैं.
केंद्र सरकार द्वारा शुरू किए गए काशी विश्वनाथ कॉरीडोर प्रोजेक्ट के तहत गंगा के घाटों का सौंदर्यीकरण और उन्हें मंदिर से जोड़े जाने का काम दर्शनीय हुआ है. पर तमाम परियोजनाओं और भौतिक प्रयासों के बावजूद भी अपने घाटों से कोसों दूर चली गई गंगा के पानी को तो नहीं लौटाया जा सकता. प्रकृति जो अब कंक्रीट के जंगलों में बदली-बदली-सी है उसे तो हरे-भरे सुरम्य जंगलों से फेरा नहीं जा सकता.
बहरहाल,अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की 2 महीनों की यात्राओं से Following the Equator (1897) किताब लिखी, बनारस के संदर्भ में जब लिखते हैं ‘Benares is older than history, older than tradition, older even than legend, and looks twice as old as all of them put together’, तब यह वाकई लगता है कि 100 साल से भी अधिक समय पहले लिखे गए इस विश्लेषण को आज भी तो उतना ही सटीक पाया जा सकता है.
जहां हर गली के भीतर सौ गलियां फूट जाएं और हर कंदरा, हर खोह में किसी न किसी देवी-देवता की मूर्ति दिख जाए, जहां बड़ी-बड़ी मटकियों में हाथों से घंटों मथकर दही की लस्सी बनाई जाए, जहां घाटों पर स्थित भवन सालों पुराने हों और जिसमें जीवन उसी प्रकार चलता हो, जहां जीवन की गति ही एक धीमी लय पर चलती हो, तब यह एकबारगी विश्वास हो जाता है कि हम हैं किसी प्राचीन शहर में ही. जिसे आधुनिकता ने, समय की धारा ने ऊपर-ऊपर से ही बदला है, पर जिसकी रूह शायद उन्हीं महाजनपदों की है, या शायद उससे भी पहले किसी आदिम सभ्यता की.
कवि केदारनाथ सिंह की बनारस पर लिखी प्रसिद्ध कविता ‘बनारस’ अब तक कही बातों को ही लय में बांधती प्रतीत होती है:
‘इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजाते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय
दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहां थी
वहीं पर रखी है
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊं
सैकड़ों बरस से.’
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)