प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह कर्नाटक विधानसभा चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर समूचे प्रचार में अपने पद की गरिमा तक से समझौता किए रखा और मतदाताओं ने जिस तरह उनकी बातों की अनसुनी की, उसका साफ़ संदेश है कि भाजपा के ‘मोदी नाम केवलम्’ वाले सुनहरे दिन बीत गए हैं.
कर्नाटक के मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव में जो फैसला सुनाया है, स्वाभाविक ही उसके कई विश्लेषण किए जाएंगे. पूछा जाएगा कि उन्होंने कितना भाजपा को हराया है और कितना कांग्रेस अथवा विपक्ष (क्योंकि जनता दल सेकुलर को मिली सीटें भी भाजपा विरोधी जनादेश का ही हिस्सा हैं) को जिताया?
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आखिरी पलों में अंधाधुंध प्रचार से चुनाव नतीजे अपने पक्ष में कर लेने के उनके करिश्मे की विफलता पर भी सवाल उठेंगे ही उठेंगे.
हां, साल 2014 में उनके धमाकेदार सत्तारोहण के बाद एक-दो अपवादों को छोड़कर प्राय: सारे चुनावों में कांग्रेस का ताबड़तोड़ पराजयों से सामना होने लगा तो कांग्रेसमुक्त भारत के उनके आह्वान से मगन जो महानुभाव कहने लगे थे कि अब तो वह जीतना ही भूल गई है, उन्हें भी इस सवाल के सामने खड़ा ही किया जाएगा कि अब वह उन्हें, धीरे-धीरे ही सही, फिर से जीत के सबक याद करती दिखने लगी है या नहीं?
अगर नहीं तो उसने हिमाचल के बाद कर्नाटक में भी भाजपा से उसकी चमक क्योंकर छीन ली है? अगर हां, तो क्या यह धरती के अपनी धुरी पर 360 अंश घूम जाने जैसा नहीं है?
इस लिहाज से देखें तो कर्नाटक के इस फैसले के सिलसिले में सबसे मौजूं बात यह है कि भाजपा के हिंदुत्व की जो गुदगुदी कभी मतदाताओं के एक बड़े हिस्से को इस हद तक हंसाती थी कि वे अपने सारे दुख-दर्द भूलकर उसकी झोली में आ गिरते और उसे हर तरह की एंटी-इन्कम्बेंसी से अभय कर देते थे, अब वह उन्हें इतनी रुलाने लगी है कि वे उसकी बिना पर भी भाजपा को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं. उसकी सरकारों के नाकारापने के साथ तो एकदम से नहीं.
इसलिए उन्होंने हिंदुत्व को अपने कुशासन और भ्रष्टाचार का कवच बनाने की उसकी कोशिशों को सिरे से नकार दिया है. यह लगभग वैसा ही है जैसे 2014 में देशवासियों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष कहने वाली पार्टियों की इस उम्मीद को धराशायी कर दिया था कि वे उनकी तमाम मनमानियां सहकर भी सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता में आने से रोके रखेंगे.
भाजपा समय रहते अवध की इस कहावत का सबक अपना लेती कि गुदगुदी उतनी ही लगानी चाहिए, जितनी हंसी आए तो कौन जाने ऐसी दुर्दशा से बच जाती.
बहरहाल, उसके दुर्भाग्य से इस चुनाव में कांग्रेस भी अरसे बाद किलर्स इंस्टिंक्ट (कर दिखाने के संकल्प) के साथ मैदान में उतरी, उसको जीवन-मरण का प्रश्न मानकर. इसके बगैर उसके लिए वैसा संगठित प्रचार अभियान चलाना संभव ही नहीं था, जैसा उसने चलाया.
इस अभियान में न उसकी प्रादेशिक या स्थानीय इकाइयां हाईकमान (साफ कहें तो सोनिया गांधी, राहुल व प्रियंका गांधी) के भरोसे बैठी रहीं, न हाईकमान ने उन्हें अपना मोहताज समझने या सब-कुछ उन पर ही छोड़ देने की गलती दोहराई.
पार्टी की संरचनात्मक कमजोरियों के बावजूद दोनों ने ऐसा तालमेल प्रदर्शित किया कि प्रेक्षकों के लिए कहना मुश्किल था कि पार्टी के क्षत्रपों ने ज्यादा पसीना बहाया या हाईकमान ने.
इसी बिना पर वह भाजपा से जैसे को तैसा की तर्ज पर निपटकर उसे चुनाव को अपने एजेंडे अथवा नैरेटिव पर ले जाने से रोक और बेहतर साम दाम दंड भेद बरतते हुए सामाजिक समीकरणों को अपने अनुकूल कर चुनाव का नया एजेंडा निर्धारित कर पाई.
फिर तो उसने भाजपा की बनाई सांप्रदायिकता की दीवार पर मतदाताओं के दुख-दर्दों के आईने लगाकर उसे ही उनके सामने ला खड़ा किया.
प्रचार के आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कट्टर हिंदुत्व की राह पकड़कर बजरंगबली और बजरंगदल को एक करने की जो कोशिश की, वह भी इस आईने के सामने उनकी पार्टी और उनके खुद के निर्वसन हो जाने जैसी ही थी.
संभवत: प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि कांग्रेस अपनी पुरानी आदत के अनुसार इस निर्णायक क्षण में बजरंग दल पर प्रतिबंध के अपने वायदे को लेकर पहले थोड़ी कमजोर पड़ेगी, फिर रक्षात्मक होकर आत्मविश्वास गंवा देगी. लेकिन इस बार उसने उन्हें नाउम्मीद करते हुए दृढ़ता प्रदर्शित की और उनकी कलाई मरोड़कर जीत अपने नाम कर ली.
प्रधानमंत्री ने कथित रूप से उन्हें गालियां देने का मुद्दा उठाया और उनकी गिनती के आधार पर मतदाताओं पर इमोशनल अत्याचार की राह चले तो भी उसने पीछा नहीं खींचा. यह कहकर नहले पर दहला जड़ दिया कि कैसे प्रधानमंत्री हैं वे कि मतदाताओं के दुख-दर्द सुनने के बजाय उनके सामने अपना ही दुखड़ा रोते रहते हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो बाद में उन्हें इसको लेकर भी भरपूर घेरा कि वे गुजरात में खुद को वहां का धरतीपुत्र बताकर वोट मांगते हैं और उन्हीं की तर्ज पर खुद को कर्नाटक की धरती का पुत्र बताकर वोट मांगे.
खड़गे के बेटे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे भाजपा उम्मीदवार द्वारा परिवार सहित उनके सफाये की बात कहने का ऑडियो लीक हुआ तो भी भाजपा से जवाब देते नहीं बना.
बहुत संभव है कि कुछ महानुभाव इन नतीजों को राज्य की राजनीतिक भ्रष्टाचार व खरीद-फरोख्त के माध्यम से सत्ता में आई भाजपा सरकार के प्रति एंटी-इन्कम्बेंसी या सत्तादलों को वापसी न करने देने की मतदाताओं की दशकों पुरानी परंपरा का परिणाम भर बताकर खुश होना चाहें, लेकिन प्रधानमंत्री ने जिस तरह इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर समूचे प्रचार में अपने पद की गरिमा तक से समझौता किए रखा और मतदाताओं ने जिस तरह उनकी बातों की अनसुनी की, उसका साफ संदेश है कि भाजपा के ‘मोदी नाम केवलम्’ वाले सुनहरे दिन बीत गए हैं.
अब मतदाता मोदी के नाम पर उनकी और उनकी पार्टी की सरकारों की मनमानियों तथा महंगाई व भ्रष्टाचार वगैरह को सहकर भी उनके साथ बने रहने को तैयार नहीं हैं, कट्टर हिंदुत्व के झांसे में आने को भी नहीं.
इसलिए अब भाजपा को इस सवाल का सामना करना ही पडे़गा कि अगर अब मोदी का नाम उसकी जीत की गारंटी नहीं रह गया और उनका प्रधानमंत्री पद की गरिमा तक को दांव पर लगाकर कट्टर हिंदुत्व पर उतरना भी बेलज्जत सिद्ध हो रहा है तो उसके पास और कौन-सी पूंजी है जो उसे चुनाव जिताएगी?
खासकर जब उसका पुराना कैडर आधारित स्वरूप बदल चुका है, महानायकीय चमत्कार पर निर्भरता की बीमारी लाइलाज हो चली है और गरीब समर्थक छवि उद्योगपति समर्थक छवि में बदल गई है.
दूसरे पहलू से देखें तो मतदाताओं ने सिर्फ भाजपा को नहीं हराया है. प्रधानमंत्री के बजरंग दल और बजरंगबली को एक करके रख देने और भड़काने वाले अनर्थकारी व उग्र प्रचार की ओर से आंखें मूंदे रखने और उन पर प्रतीकात्मक कार्रवाई तक से परहेज रखने वाले चुनाव आयोग को भी हराया है.
उस मीडिया को भी, जो चुनाव कार्यक्रम की घोषणा होने से पहले से ही राज्य को हिजाब, अजान और ‘लव जिहाद’ जैसे बांटने व मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने वाले मुद्दों में उलझाए हुए था.
इस हार ने भाजपा को न सिर्फ दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया है, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर भारत में (जहां 2019 में भाजपा चोटी पर रही थी और अब ढलान का खतरा महसूस कर रही है) संभावित नुकसान की दक्षिण भारत में भरपाई के मंसूबों पर ग्रहण भी लगा दिया है.
हां, अगर यह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का (जो भरपूर समर्थन के बीच 30 सितंबर 2022 से 15 अक्टूबर 2022 तक राज्य में रही थी) नतीजा है, तो भाजपा को और चिंतित होने की जरूरत है. क्योंकि तब इसका मतलब है कि राहुल यात्रा में नफरत के बाजार में मुहब्बत की जो दुकान खोलने की बात कह रहे थे, उसे न सिर्फ ग्राहक मिलने लगे हैं, बल्कि वह उन्हें लाभ भी दिलाने लगी है.
हां, कांग्रेस ने भाजपा की पे-सीएम और 40 प्रतिशत संस्कृति यानी उसके भ्रष्टाचार को मात दी है. राहुल द्वारा मोदी और अडानी के रिश्तों पर उठाए गए सवालों के अनुत्तरित रहकर क्राई-पीएम तक पहुंचकर और बड़े हो जाने के कारण तो स्वीकारना होगा कि भ्रष्टाचार का जो मुद्दा अब तक भाजपा को चुनावों में जीत दिलाता आ रहा था, अब उसके गले की फांस बनने लगा है!
निस्संदेह यह उसके लिए किसी खतरे की घंटी सें कम नहीं है और इस सिलसिले में वह इस तर्क की आड़ भी नहीं ले सकती कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं और उनमें मतदाता अलग-अलग ढंग से रिएक्ट करते हैं.
हां, इन नतीजों को राहुल के सच बोलने की कीमत चुकाने (यानी अडानी का सवाल उठाकर लोकसभा की सदस्यता व बंगले से जाने) से भी जोड़ा जा सकता है.
कांग्रेस के अंदर के असंतुष्टों और विपक्षी एकता के प्रयासों पर भी इसका असर होगा ही होगा. विपक्ष के जो दल अब तक कांग्रेस को सर्वथा कमजोर मानकर संभावित विपक्षी गठबंधन में उसकी निर्णायक भूमिका के आड़े आ रहे थे, यहां तक कि कह रहे थे कि वह खुद को पीछे रखकर क्षेत्रीय दलों को आगे आने का मौका दे, अब अपने रवैये पर फिर से विचार करने को मजबूर होंगे.
वहीं कांग्रेस नई धमक के साथ सौदेबाजी कर उन दलों को नए सिरे से समझा सकेगी कि उसे दरकिनार करके या उसकी छतरी के बगैर मोदी और भाजपा का कोई भी कारगर विकल्प नहीं बन सकता.
लेकिन ऐसा करते हुए उसे याद रखना होगा, सितारों के आगे जहां और भी हैं, अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)