कांग्रेस की सामाजिक न्याय की राजनीति ने भाजपा की ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की राजनीति पर ब्रेक लगा दिया है. ज़ाहिर तौर पर इसका दूरगामी असर होगा.
कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार का विश्लेषण लगातार जारी है. जाहिर तौर पर यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था. कांग्रेस की जीत ने देश के राजनीतिक विमर्श को बदल दिया है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ही नहीं अन्य विपक्षी दलों के लिए भी कांग्रेस अब एक चुनौती बन रही है.
जो दल अभी तक कांग्रेस को गंभीरता से नहीं ले रहे थे, बल्कि कांग्रेस मुक्त विपक्षी मोर्चा की बात कर रहे थे, उनके स्वर बदलने लगे हैं. जाहिर है कि आगामी लोकसभा चुनाव में नए समीकरण बनेंगे. इसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका होगी.
चुनावी राजनीति में स्वयं को अपराजेय मान बैठी भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था. भाजपा की करारी हार से वोट बटोरू नरेंद्र मोदी की छवि तार-तार हुई है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सारी कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं.
कर्नाटक में भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा ही नहीं फेल हुआ है बल्कि जातियों के ध्रुवीकरण की पैंतरेबाजी भी धराशाई हो गई है. कांग्रेस की सामाजिक न्याय की राजनीति ने भाजपा की ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की राजनीति पर ब्रेक लगा दिया है. जाहिर तौर पर इसका दूरगामी असर होगा.
90 के दशक में उभरी मंडल की राजनीति के बरक्स भाजपा ने कमंडल की राजनीति शुरू की. भाजपा ने हिंदुत्व के जरिये उन पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की, जिन्हें सामाजिक न्याय की नीतियों का लाभ मिलना था. उत्तर भारत की तरह दक्षिण में भी भाजपा के हिंदुत्व की गूंज पहुंची. 90 के दशक में कर्नाटक में भाजपा ने लिंगायत नेता बीएस येदियुरप्पा को जोड़कर पिछड़ों में अपना विस्तार किया.
17-18 फ़ीसदी आबादी वाला लिंगायत समुदाय शिव परंपरा को मानता है. 12 वीं सदी में बसवन्ना ने हिन्दू धर्म की जाति प्रथा और असमानता के खिलाफ लिंगायत संप्रदाय स्थापित किया था. लेकिन भाजपा ने मंदिर-मस्जिद विवाद, टीपू सुल्तान, हिजाब, हलाल -झटका, लव जिहाद, जमीन जिहाद जैसे मुस्लिम विरोधी प्रचार के जरिये लिंगायतों को अपने साथ लाने में कामयाबी हासिल की.
बीएस येदियुरप्पा जैसे लिंगायत नेताओं को नेतृत्व देकर भाजपा 2007 में पहली बार सत्ता में पहुंची. इसके बाद 2008, 2018 और 2019 में कुल मिलाकर येदियुरप्पा चार बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने. 2012 में दूसरे लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार को भी एक बार मुख्यमंत्री बनाया गया. इस चुनाव में भाजपा ने ओबीसी लीडरशिप के स्थान पर बीएल संतोष जैसे द्विज ब्राह्मण नेताओं को सत्ता में पहुंचाने की योजना बनाई.
यह प्रयोग ठीक उत्तर प्रदेश की तरह है. 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के जरिये दलितों-पिछड़ों का हिंदुत्वीकरण किया गया. इसका राजनीतिक फायदा भाजपा को मिला. 1991 में पिछड़ी लोध जाति के कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी. कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. कल्याण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा.
1997 में दूसरी बार भाजपा की सरकार बनी. कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री हुए. लेकिन दो साल बाद उन्हें हटा दिया गया. इसके बाद ओमप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह जैसे द्विज नेताओं को सत्ता की बागडोर सौंप दी गई. इसका नतीजा यह हुआ कि लंबे समय तक भाजपा सत्ता की पहुंच से दूर रही.
17 साल तक सपा और बसपा की सरकारें रहीं. 2017 में संघ और भाजपा ने गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव दलित जातियों में ध्रुवीकरण करके सत्ता हासिल की. यह चुनाव भाजपा ने एक पिछड़े नेता केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में लड़ा था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुद को पिछड़े समाज के नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया था. परिणामस्वरूप भाजपा ने बहुत बड़ी जीत दर्ज की. उसने 312 सीटें जीतकर तीन चौथाई बहुमत प्राप्त किया. लेकिन सत्ता द्विज नेता अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ को सौंपी गई.
भाजपा जानती है कि चुनावी लोकतंत्र में जीत का गणित दलितों और पिछड़ों के पास है. इसलिए इन जातियों को मुखौटों की तरह भाजपा इस्तेमाल करती है और सत्ता की चाबी द्विजों को सौंप देती है. इस तरह उसका ब्राह्मणवादी सत्ता तंत्र मजबूत होता है और द्विजों का वर्चस्व कायम रहता है.
इसी तरह 2022 में यूपी में जब भाजपा ने वापसी की, तो इसे योगी आदित्यनाथ की जीत बताया गया और उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया. जबकि सच्चाई यह है कि विधानसभा चुनाव से पहले मीडिया और संघ द्वारा प्रचारित किया गया कि योगी और मोदी-शाह के बीच तनाव है. इस बार केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा.
इसी तरह एक खबर और प्लांट की गई कि उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल और आगरा की पूर्व महापौर जाटव बेबी रानी मौर्य को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है. ऐसी अफवाहों के जरिये दलितों- पिछड़ों का वोट बटोरकर भाजपा ने सत्ता हासिल की. लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी इस बार फिर से द्विज आदित्यनाथ को प्राप्त हुई.
उत्तर प्रदेश में तो आरएसएस भाजपा का झूठ का प्रयोग सफल हो गया. लेकिन कर्नाटक की जनता ने हिंदुत्व के नाम पर द्विजों को सत्ता प्राप्ति की आकांक्षा को खारिज कर दिया. लिंगायत समाज ने इस चाल को भांप लिया कि ब्राह्मण बीएल संतोष के जरिये भाजपा कर्नाटक में ब्राह्मणशाही स्थापित करना चाहती है.
कर्नाटक में लिंगायत नेताओं को दरकिनार करके भाजपा अति पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना चाहती थी. टिकट बंटवारे में भी भाजपा ने इस पैंतरे को आजमाया था. उसने माइक्रो सोशल इंजीनियरिंग करने की कोशिश की. कर्नाटक के सबसे बड़े और प्रभावशाली लिंगायत समुदाय के खिलाफ ध्रुवीकरण नहीं हुआ. येदियुरप्पा की नाराज़गी और दूसरे मजबूत लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार का कांग्रेस में जाना भाजपा को भारी पड़ गया.
इसके अतिरिक्त अन्य प्रभावशाली जातियों के मजबूत क्षत्रपों की मौजूदगी से भी कांग्रेस का पलड़ा भारी था. एचडी देवगौड़ा के बाद डीके शिवकुमार 12 फीसदी वाले वोक्कालिगा समाज के मजबूत नेता हैं. इसी तरह पूर्व सीएम सिद्धारमैया 9 फीसदी वाले कुर्बी जाति के सबसे बड़े और कर्नाटक के लोकप्रिय नेता हैं.
भाजपा की ब्राह्मणशाही के खिलाफ दलित पिछड़ा एकजुट हो गया. इसका प्रभाव उन सीटों पर सीधे तौर पर देखा जा सकता है, जहां 20 फीसदी ब्राह्मण आबादी वाले क्षेत्रों में भाजपाई प्रत्याशी पराजित हुए. दिलचस्प तो यह है कि भाजपा के 31 प्रत्याशियों की जमानत भी जब्त हो गई.
कर्नाटक चुनाव के जरिये भाजपा को एक और झटका लगा है. प्रचार के दौरान दलित महिलाओं ने भाजपा प्रत्याशी द्वारा वितरित साड़ियों को फेंककर विरोध किया. दलितों में वोट के प्रति अधिकार भावना और स्वाभिमान की चेतना आने वाले वक्त में भाजपा को पूरे देश में भारी पड़ सकती है.
दलित समाज वंचना की बेड़ियों को शिक्षा, संघर्ष, स्वाभिमान और संविधान के जरिये उतार फेंकने के लिए बेताब है. यही कारण है कि सदियों से शोषण, वंचना और अपमान का शिकार रहे दलित समुदाय ने आजादी के बाद उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की हैं. वोट के अधिकार ने उसे राजनीतिक ताकत दी है. इसी ताकत की बदौलत दलित ‘भूमि पुत्र’ मल्लिकार्जुन खड़गे भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए. उनके नेतृत्व के कारण कर्नाटक का दलित समाज एकतरफा कांग्रेस की ओर मुड़ गया. इसने भी कांग्रेस की जीत में बड़ी भूमिका अदा की.
कर्नाटक में 51 आरक्षित सीटें हैं. अनुसूचित जाति यानी दलितों के लिए आरक्षित 36 सीटों में से 21 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है. जबकि 2018 में उसे सिर्फ 12 सीटों पर सफलता मिली थी. जबकि अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी सीटों पर कांग्रेस को और भी बड़ी जीत मिली. एसटी के लिए आरक्षित 15 सीटों में से कांग्रेस को 14 और जेडीएस को 1 सीट मिली. भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.
बावजूद इसके कि भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर आदिवासियों को अपना नया वोट बैंक मान लिया था. मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद आरएसएस और भाजपा ने देशभर के आदिवासी क्षेत्रों में यह संदेश पहुंचाने के लिए तमाम आयोजन किए थे. लेकिन आदिवासी इनके जाल में नहीं फंसे. आरएसएस के हिंदुत्व के एजेंडा को कर्नाटक के आदिवासियों ने पूरी तरह खारिज कर दिया.
हिंदुत्वीकरण आदिवासी संस्कृति का अपमान है. द्रौपदी मुर्मु ने राष्ट्रपति बनने से पहले शिव मंदिर में झाड़ू लगाई और पूजा-अर्चना करके संघ के एजेंडा का प्रदर्शन किया था. ऐसा करके उन्होंने हिंदुत्व में अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी.
कर्नाटक चुनाव में आरक्षित आदिवासी सीटों पर भाजपा का सूपड़ा साफ होना इस बात का सबूत है कि आदिवासियों ने संघ और भाजपा के नैरेटिव और एजेंडा को नकार दिया है. वे इस बात को समझ गए हैं कि राष्ट्रपति मुर्मू को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
पिछले दिनों पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने यह आरोप लगाया था कि राष्ट्रपति से मिलने की विजिटर लिस्ट भी पीएमओ तय करता है. इस आरोप को राष्ट्रपति भवन ने खारिज नहीं किया. इसका मतलब है कि पीएमओ राष्ट्रपति का अपमान कर रहा है. क्या उन्हें महज कठपुतली बना दिया गया है? क्या उन्हें वोट बैंक के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है?
स्मरणीय है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मध्य प्रदेश में राहुल गांधी ने आरएसएस पर प्रहार करते हुए कहा था कि वे आदिवासियों को बनवासी कहते हैं. जंगलवासी बताकर उनका अपमान ही नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्हें विकास में भागीदारी से भी दूर रखना चाहते हैं. जबकि आदिवासी इस देश के मूल निवासी हैं. इस देश की सभ्यता के निर्माता हैं.
दलित, वंचित, आदिवासी, महिला समाज का राहुल गांधी पर निरंतर भरोसा बढ़ता जा रहा है. मुख्तसर, कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के पास सामाजिक न्याय का पूर्ण पैकेज था. नेता भी और नीतियां भी. इसके पीछे जिस नेता की नीयत है, उसका नाम राहुल गांधी है. राहुल गांधी आज सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आईकॉन बनकर उभरे हैं. कर्नाटक चुनाव ने इस पर अपनी मोहर लगाई है.
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)