कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी.
हम एक ऐसे अभागे समय में रह रहे हैं कि जिन लोगों, शक्तियों, संस्थाओं से हमने उम्मीद लगाई कि वे हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे, हमारी समता-न्याय और भाईचारे की आकांक्षा को विचार में लेकर सकर्मक होंगी, उन सबने हमें सिरे से निराश किया है. आज जो स्थिति है उसमें हम राजनीति, धर्म, मीडिया आदि से कोई उम्मीद नहीं बांधते. बहुसंख्यकतावाद के सामने लगभग आत्मसमर्पण कर चुके अनेक संवैधानिक संस्थानों से भी उम्मीद लगाना बेकार हो गया है.
ऐसे में तर्क तो यह बनता है कि साहित्य से भी उम्मीद लगाना व्यर्थ है क्योंकि वह भले आज कुछ वांछनीय मानवीय मूल्यों के पक्ष में खड़ा है, वह उस समाज में ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता जिसमें झूठ-घृणा-हिंसा-हत्या आदि इतने लोकप्रिय और लोकव्यापी हो गए हों जितना आज भारतीय समाज में. दूसरी ओर, यह भी सही और स्वाभाविक है कि हम उम्मीद उसी से लगाते हैं जिस पर हमें भरोसा हो.
हमारे समय की कई क्षतियां हैं. पहली लोकतांत्रिक मानस, उससे संभव संवाद और असहमति की जगह का हाशिये पर फिंक जाना. दूसरी संवाद-विवाद-असहमति के पारंपरिक और लोकतांत्रिक मंचों का लगातार अवमूल्यन और निष्क्रियता. तीसरी सार्वजनिक संवाद की भाषा का लगातार प्रदूषण और विद्रूप. चौथी, निजता में सार्वजनिकता की लगातार घुसपैठ से उपजी अराजकता और असन्तुलन. पांचवीं, हर तरह की मर्यादा का, फिर वह क़ानून की हो, संविधान की हो, सामान्य शिष्टाचार और भद्रता की हो, बेशरम उल्लंघन. छठवीं, हर कुछ को संदिग्ध बनाने की मुहिम. सातवीं, झूठ और पाखंड का इतना और इतनी तेज़ी से फैलाव कि सच-सचाई आदि के लिए जगह और अवसर ही न बचे. एक तरह की किंकर्तव्य-विमूढ़ता दृश्य पर हावी है.
इन क्षतियों की भरपाई कौन कर सकता है? हमारा ध्यान साहित्य और कलाओं की ओर, इस सिलसिले में, जाना तर्कसंगत है.
हम जानते हैं कि कई बार, जैसे नाज़ी वर्चस्व के चलते, संस्कृति तक ने धर्मादि ने मानवीयता के साथ विश्वासघात किया पर साहित्य ने नहीं. हमें यह भी याद है कि बुद्धि और सृजन के क्षेत्र में, साहित्य-ज्ञान-कलाओं में हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बहुत पहले स्वतंत्र हो गए थे. सौभाग्य से, इस समय भी साहित्य सच-सचाई, स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्यों, सहानुभूति और पारस्परिकता के साथ और घृणा-पाखंड-झूठ आदि के विरोध में है. इसलिए उससे हम कुछ ज़्यादा ही उम्मीद लगाने लगे हैं.
शायद इस मुक़ाम पर कुछ ठिठक-थमकर हमें या सोचना चाहिए कि हम अपना बहुत सारा बोझ साहित्य पर डालकर उसका काम बहुत कठिन और अभिशप्त तो नहीं बनाए दे रहे हैं? क्या राजनीति की सर्वग्रासिता और पाखंड, धर्मों की बढ़ती अध्यात्म-शून्यता, मीडिया की सत्ता-भक्ति, बहुसंख्यक घृणा और अल्पसंख्यक लाचारी, दुर्लभ होता न्याय, भ्रष्टाचार का बढ़ता राज, सामाजिक विषमता में बढ़ोतरी आदि का कोई प्रतिकार, कोई क्षतिपूर्ति साहित्य कर सकता है?
इतनी सारी अपेक्षाएं, दुर्दिनों में भी, साहित्य से करना अतिचार लग सकता है और कइयों को, जिसमें स्वयं कुछ लेखक भी हो सकते हैं, यह साहित्य की क्षमता से बाहर या दूर लग सकता है.
मुझे याद आता है कि लगभग दो दशक पहले एक इंटरव्यू में मैंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त पोलिश कवि चेश्वाव मीवोष से पूछा था कि ‘क्या कविता ने किसी टिकाऊ और महत्वपूर्ण अर्थ में, पारंपरिक धर्म का स्थान ले लिया है, सत्यों की उसकी पहुंच में और राहत और नैतिक निवारण दे सकने की उसकी क्षमता में?’
उनका उत्तर था: ‘नहीं, कविता धर्म का स्थान नहीं ले सकती… धर्म को कविता से स्थानापन्न करने की वृत्ति रही है. …कविता द्वारा धर्म का स्थानापन्न बनाना स्वयं कविता के लिए ख़तरनाक है. क्योंकि यह कविता को बहुत ऊंची जगह पर बैठा देता है.’
जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि हमारे समय में साहित्य को कुछ अधिक बोझ उठाना पड़ सकता है, उठा सकना चाहिए. सच और सचाई का आज वह सबसे भरोसेमंद शरण्य है: उसे कह सकने की हिम्मत करने वाला. वह गवाह है और पहरेदार भी. रक्षक भी. यह उम्मीद हमें करनी ही पड़ेगी कि साहित्य हमें निराश नहीं करेगा.
साहित्य अकेला और निहत्था है: बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान के अन्य क्षेत्रों से आज उसे समर्थन और सहचारिता नहीं मिल पा रहे हैं. पर कायर और चतुर चुप्पियों के माहौल में उसे निडर होकर आवाज़ उठाते रहना चाहिए. वह बहुत कुछ को बचा नहीं पाएगा पर उससे ही अंतःकरण, निर्भयता और प्रतिरोध की शक्ति बचेगी. शायद भाषा में मानवीयता और ऊष्मा उसके किए से बचेगी. इतना भी कम नहीं होगा.
अलख
अलख कबीर का प्रिय शब्द था: उनके यहां उसके कई अर्थ भी हैं. पर अगर उसके एक अर्थ ‘अनदेखा’ तक हम, फिलमुक़ाम, सीमित करें तो यह स्पष्ट होगा कि हमारे समय और समाज में, आत्म और सृजन-चिंतन में ऐसे पूर्वाग्रह बद्धमूल हैं कि बहुत-सा हमसे अनदेखा रह जा रहा है. वह अनदेखा हमारी मानवीयता को भी सीमित कर रहा है.
एक स्तर पर वह उस चतुर और कायर ख़ामोशी के कारण भी है: हम अनदेखा कर रहे हैं क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं या डर के मारे संकोच में पड़ जाते हैं.
इतनी सारी क्रूरता-नृशंसता-हिंसा-हत्या-अनाचार हमारी आंखों की सामने हर रोज़ लगभग नियमित रूप से हो रहे हैं और हम उनसे उदासीन हैं, उन्हें अनदेखा कर रहे हैं क्योंकि हमारी सहज नैतिकता अब, जाने-अनजाने, समझौते करने लगी है, इस हद तक कि वह लगभग निष्क्रिय और निष्प्राण हो गई है.
ऐसा नहीं है कि हमारे देखने के उत्साह में कोई कटौती हुई है. आज तो हम हर दिन मीडिया पर, अन्यत्र इतना कुछ, बिना थके और ऊबे, लगातार देख रहे हैं. इस देखे के छलावों में हम चाहे-अनचाहे आए जा रहे हैं. हम झूठ के अनेक रूप और स्तर देख रहे हैं. हम हिंसा और हत्या, बलात्कार और अत्याचार देख रहे हैं. हम फैल रही घृणा और उकसाए जा रहे भेदभाव को अलक्षित नहीं कर रहे हैं.
पर इतना सब देखने के बाद भी हम अविचलित हैं: कुछ फुरफुरी, कुछ सनसनी हमें होती है और जल्दी ही शांत हो जाती है. हम अपना दर्द तो सबको दिखाना चाहते हैं पर दूसरों का दर्द हमें नहीं सालता. अगर इस सबसे हमारी मानवीयता घट रही है तो हमें विशेष चिंता या बेचैनी नहीं है: हम इस संतोष में जी रहे हैं कि हम तो सुरक्षित हैं.
यह जो अलख है वह हमारे पड़ोस में है: हम जो लख रहे हैं वह भी हमारे घर-पड़ोस में है. दोनों ही, दुर्भाग्य से, हमें बता रहे हैं कि इस दौरान हम कुछ कम मनुष्य, कुछ कम इंसान होते जा रहे हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)