सुप्रीम कोर्ट के जज संजय करोल ने बिहार जाति जनगणना मामले की सुनवाई से ख़ुद को अलग किया

बीते 4 मई को पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार को जाति आधारित सर्वेक्षण को तुरंत रोकने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि अंतिम आदेश पारित होने तक पहले से ही एकत्र किए गए आंकड़ों को किसी के साथ साझा न किया जाए. इस आदेश को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय करोल. (इलस्ट्रेशन: द वायर)

बीते 4 मई को पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार को जाति आधारित सर्वेक्षण को तुरंत रोकने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि अंतिम आदेश पारित होने तक पहले से ही एकत्र किए गए आंकड़ों को किसी के साथ साझा न किया जाए. इस आदेश को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस संजय करोल. (इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय करोल ने बीते बुधवार (17 मई) को नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया, जिसमें पटना हाईकोर्ट के एक विवादास्पद आदेश को चुनौती दी गई थी. हाईकोर्ट ने जनवरी में शुरू हुए जाति सर्वेक्षण पर रोक लगा दी थी.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत होने से पहले जस्टिस करोल पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे. उन्होंने कहा कि वह कुछ संबंधित मुकदमों में पक्षकार थे, जो पहले राज्य के हाईकोर्ट में रहते हुए सुने गए थे.

सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस बीआर भी शामिल थे, ने सिफारिश की कि इस मुद्दे को अब नई पीठ के गठन के साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा देखा जाएगा.

बिहार सरकार ने अपनी अपील में कहा है कि रोक से जाति आधारित सर्वेक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने तर्क दिया है कि जाति-आधारित आंकड़ों का संग्रह अनुच्छेद 15 और 16 के तहत एक संवैधानिक जनादेश है, जो कहता है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान या उनमें से कोई भी, के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा और राज्य के अधीन किसी भी कार्यालय में रोजगार या नियुक्ति से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर होगा.

सरकार की ओर से कहा गया, ‘राज्य पहले ही कुछ जिलों में 80 प्रतिशत से अधिक सर्वेक्षण कार्य पूरा कर चुका है और 10 प्रतिशत से कम कार्य लंबित है. पूरी मशीनरी जमीनी स्तर पर काम कर रही है. विवाद के अंतिम निर्णय के अधीन इस प्रक्रिया को पूरा करने में कोई नुकसान नहीं होगा.’

याचिका में कहा गया, ‘सर्वेक्षण पूरा करने के लिए समय अंतराल सर्वेक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा, क्योंकि यह समसामयिक आंकड़ा नहीं होगा. आंकड़ों के संग्रह पर रोक से ही राज्य को भारी नुकसान होगा, क्योंकि अगर अंतत: राज्य की कार्रवाई को बरकरार रखा जाता है, तो राज्य को अतिरिक्त खर्च और सरकारी खजाने पर बोझ के साथ अतिरिक्त संसाधन लगाने की आवश्यकता होगी.’

बीते 4 मई को पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार को जाति आधारित सर्वेक्षण को तुरंत रोकने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि अंतिम आदेश पारित होने तक पहले से ही एकत्र किए गए आंकड़ों को किसी के साथ साझा न किया जाए.

हाईकोर्ट ने सुनवाई की अगली तिथि तीन जुलाई निर्धारित की है.

हाईकोर्ट ने कहा था, ‘प्रथमदृष्टया हमारी राय है कि राज्य के पास जाति-आधारित सर्वेक्षण करने की कोई शक्ति नहीं है, जिस तरह से यह अब फैशन में है, जो एक जनगणना की तरह होगा, इस प्रकार यह केंद्रीय संसद की विधायी शक्ति पर अतिक्रमण होगा.’

अदालत ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि सरकार की मंशा राज्य विधानसभा में विभिन्न दलों के नेताओं के साथ सर्वेक्षण से आंकड़ा साझा करने की थी. इससे निजता के अधिकार का बड़ा सवाल निश्चित रूप से उठता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के अधिकार का एक पहलू माना है.

बिहार में जाति सर्वेक्षण का पहला दौर जनवरी में 7 से 21 जनवरी के बीच आयोजित किया गया था. दूसरा दौर 15 अप्रैल को शुरू हुआ था और यह एक महीने तक जारी रहने वाला था.

समाचार वेबसाइट बार और बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट ने सर्वेक्षण पर 3 जुलाई तक रोक लगा दी थी और यह स्पष्ट कर दिया था कि ‘यह रोक जनगणना पर ही नहीं बल्कि आगे के डेटा संग्रह के साथ-साथ राजनीतिक दलों के साथ जानकारी साझा करने पर भी है.’

जाति जनगणना आखिरी बार 1931 में पूरे भारत में आयोजित की गई थी. भारत जातियों की गिनती करता है, लेकिन केवल अनुसूचित जातियों की और हर दशक में धर्म के आधार पर अपने नागरिकों की गणना करता है.

हालांकि, जातिगत जनगणना की बढ़ती मांगों के कारण 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) हुई, जो जनगणना के बाद आयोजित की गई थी. इसके नतीजे तैयार थे, लेकिन तब तक भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने सत्ता संभाल ली थी और उसने नतीजों का खुलासा करने से इनकार कर दिया. यह तर्क दिया गया कि इसे सटीक रूप से पेश करने के लिए परिणाम बहुत जटिल हैं.

जातिगत जनगणना के समर्थकों का कहना है कि इसमें एक तरह की हिचकिचाहट है, क्योंकि वास्तविक संख्या शक्ति और प्रतिनिधित्व को बहुत स्पष्ट कर देगी और पिछड़ी जाति समूहों के बीच गुस्सा पैदा करेगी.

भाजपा के विरोधी राजनीतिक दलों ने जातिगत जनगणना को भाजपा का मुकाबला करने का एक महत्वपूर्ण हथियार बना लिया है और बिहार में यहां तक कि राज्य भाजपा इकाई को भी उनके साथ जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

ओडिशा ने भी एक जाति सर्वेक्षण शुरू किया है और कर्नाटक के कोलार में पिछले महीने राहुल गांधी की चुनावी रैली के भाषण से शुरू करते हुए कांग्रेस पार्टी ने जाति जनगणना के लिए अपने समर्थन को रेखांकित किया था.

राहुल ने सार्वजनिक रैलियों में जाति संख्या की गणना करने और उसे सार्वजनिक करने का आह्वान किया था, जिससे सभी जातियों को सत्ता का एक समानुपातिक हिस्सा मिल सके.

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