बिहार सरकार के जाति आधारित सर्वेक्षण पर बीते चार मई को पटना हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने 3 जुलाई को सुनवाई के लिए मुख्य याचिका को सूचीबद्ध किया है, अगर हाईकोर्ट ने उस दिन सुनवाई नहीं की तो यह अदालत 14 जुलाई को सुनवाई करेगी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते बृहस्पतिवार (18 मई) को बिहार की नीतीश कुमार सरकार की जाति आधारित जनगणना पर पटना हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई रोक को हटाने से इनकार कर दिया. पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने मामले को अंतिम सुनवाई के लिए तीन जुलाई को सूचीबद्ध किया है.
बार और बेंच की एक रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने कहा ‘आक्षेपित आदेश एक अंतरिम आदेश है और अदालत ने 3 जुलाई को सुनवाई के लिए मुख्य याचिका सूचीबद्ध की है. वास्तव में राज्य सरकार ने 9 मई को अदालत के समक्ष आवेदन दायर किया था, जिनका निस्तारण कर दिया गया था. महाधिवक्ता के तर्क को विशेष रूप से खारिज कर दिया गया था कि अंतिम राय व्यक्त की गई थी. वास्तव में हाईकोर्ट ने पाया है कि अदालत सुनवाई के लिए अन्य विवादों के लिए खुली थी.’
हालांकि, अगर हाईकोर्ट ने 3 जुलाई को मामले की सुनवाई नहीं की तो सुप्रीम कोर्ट 14 जुलाई को मामले की सुनवाई करने पर सहमत हो गया.
अदालत ने कहा, ‘याचिकाकर्ता के वकील का कहना है कि याचिका को 3 जुलाई के एक सप्ताह बाद सूचीबद्ध किया जा सकता है. वह प्रस्तुत करते हैं कि अगर हाईकोर्ट अंतिम सुनवाई नहीं करता है, तो यह अदालत मामले की योग्यता पर विचार कर सकती है. हम तदनुसार निर्देश देते हैं कि इस याचिका को 14 जुलाई को सूचीबद्ध किया जाए, अगर किसी कारण से हाईकोर्ट के समक्ष सुनवाई शुरू नहीं होती है.’
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय करोल ने बीते 17 मई को बिहार सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया, जिसमें पटना हाईकोर्ट के एक विवादास्पद आदेश को चुनौती दी गई थी. हाईकोर्ट ने जनवरी में शुरू हुए जाति सर्वेक्षण पर रोक लगा दी थी.
इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत होने से पहले जस्टिस करोल पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे. उन्होंने कहा कि वह कुछ संबंधित मुकदमों में पक्षकार थे, जो पहले राज्य के हाईकोर्ट में रहते हुए सुने गए थे.
बीते 4 मई को पटना हाईकोर्ट ने बिहार सरकार को जाति आधारित सर्वेक्षण को तुरंत रोकने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि अंतिम आदेश पारित होने तक पहले से ही एकत्र किए गए आंकड़ों को किसी के साथ साझा न किया जाए.
हाईकोर्ट याचिकाकर्ता के दावे से सहमत दिखाई दिया, यह कहते हुए कि प्रथमदृष्टया सर्वेक्षण एक जनगणना अभ्यास प्रतीत होता है. इसके बाद हाईकोर्ट ने सुनवाई की अगली तिथि तीन जुलाई निर्धारित की थी.
हाईकोर्ट ने सर्वेक्षण पर 3 जुलाई तक रोक लगा दी थी और यह स्पष्ट कर दिया था कि ‘यह रोक जनगणना पर ही नहीं बल्कि आगे के डेटा संग्रह के साथ-साथ राजनीतिक दलों के साथ जानकारी साझा करने पर भी है.’
बिहार में जाति सर्वेक्षण का पहला दौर जनवरी में 7 से 21 जनवरी के बीच आयोजित किया गया था. दूसरा दौर 15 अप्रैल को शुरू हुआ था और यह एक महीने तक जारी रहने वाला था.
इस कवायद के पीछे बिहार की नीतीश सरकार का तर्क है कि सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर विस्तृत जानकारी से वंचित समूहों की सहायता के लिए बेहतर सरकारी नीति बनाने में मदद मिलेगी.
जाति आधारित जनगणना हाल के महीनों में एक प्रमुख राजनीतिक चिंता बन गई है, विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर राष्ट्रीय आधार पर इस कवायद को शुरू करने के लिए दबाव बढ़ाया है.
यह कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की योजना थी, जिसने पहली बार 2011-12 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) की थी, लेकिन सरकार के भीतर इसके बारे में अलग-अलग राय के कारण इसका आंकड़ा कभी जारी नहीं किया गया.
इसके बाद भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने सत्ता संभाल ली थी और उसने नतीजों का खुलासा करने से इनकार कर दिया. यह तर्क दिया गया कि इसे सटीक रूप से पेश करने के लिए परिणाम बहुत जटिल हैं.
भाजपा के विरोधी राजनीतिक दलों ने जातिगत जनगणना को भाजपा का मुकाबला करने का एक महत्वपूर्ण हथियार बना लिया है और बिहार में यहां तक कि राज्य भाजपा इकाई को भी उनके साथ जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
ओडिशा ने भी एक जाति सर्वेक्षण शुरू किया है और कर्नाटक के कोलार में पिछले महीने राहुल गांधी की चुनावी रैली के भाषण से शुरू करते हुए कांग्रेस पार्टी ने जाति जनगणना के लिए अपने समर्थन को रेखांकित किया था.
राहुल ने सार्वजनिक रैलियों में जाति संख्या की गणना करने और उसे सार्वजनिक करने का आह्वान किया था, जिससे सभी जातियों को सत्ता का एक समानुपातिक हिस्सा मिल सके.
द वायर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण लागू करने के बाद विभिन्न विपक्षी दलों द्वारा जातिगत जनगणना की मांग अधिक मुखर रूप से व्यक्त की गई थी, जिसने प्रभावी रूप से तथाकथित ‘उच्च जाति’ समूहों को एक कोटा दिया.
ईडब्ल्यूएस आरक्षण को जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई नीति में एक विसंगति के रूप में देखा गया था, क्योंकि मापदंड गरीबी था और विभिन्न दलों द्वारा हाशिये पर पड़ी जातियों और समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने के कदम के रूप में माना गया था.
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