उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के बाहुबली नेता पंडित हरिशंकर तिवारी का बीते 16 मई को निधन हो गया. अस्थिर सरकारों के दौर में तिवारी 1996 से 2007 तक लगातार कैबिनेट मंत्री रहे थे.
गोरखपुर: पूर्वांचल के बाहुबली नेता पूर्व मंत्री हरिशंकर तिवारी का 16 मई की शाम छह बजे 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. वे दो वर्ष से अस्वस्थ थे. उनके निधन से पूर्वांचल की राजनीति के एक ऐसे अध्याय का समापन हुआ, जिसे उत्तर प्रदेश में अपराध के राजनीतिकरण की शुरुआत, जातीय गैंगवार और ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के नाम पर लिखा जाना है.
गोरखपुर के बड़हलगंज क्षेत्र के टांडा गांव के रहने वाले पंडित हरिशंकर तिवारी की सक्रिय सियासी पारी करीब 38 वर्ष की रही. उन्होंने पहला चुनाव 1974 में विधान परिषद सदस्य का लड़ा था, जिसमें वे कांग्रेस के शिवहर्ष उपाध्याय से हार गए. तिवारी समर्थक आज भी इस बात को कहते हैं कि इस चुनाव में उन्हें जबरन हरवाया गया था.
इसके बाद उन्होंने 1984 के लोकसभा चुनाव में महराजगंज संसदीय सीट से चुनाव जेल में रहते हुए लड़ा, लेकिन ये चुनाव भी हार गए. इस चुनाव में उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी वीरेंद्र प्रताप शाही भी जेल में रहते हुए लड़े थे. हरिशंकर तिवारी दूसरे और वीरेंद्र प्रताप शाही तीसरे स्थान पर रहे और कांग्रेस के जितेंद्र सिंह चुनाव जीते.
इसी बीच हरिशंकर तिवारी को चिल्लूपार के पहले विधायक रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भृगुनाथ चतुर्वेदी की सरपरस्ती हासिल हुई. चतुर्वेदी ने उन्हें 1983 में नेशनल पीजी कालेज बड़हलगंज की प्रबंध समिति का अध्यक्ष बनाया और चिल्लूपार की राजनीतिक विरासत भी सौंप दी.
तिवारी 1985 में चिल्लूपार से विधानसभा का चुनाव लड़े और पहली बार विधायक बने. इस दौरान वे जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत बंद थे. इसके बाद उन्होंने इस सीट से पांच और बार लगातार चुनाव जीता और विधायक बने.
वर्ष 1997 से यूपी में अस्थिर सरकारों के दौर में वे कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह, मायावती और मुलायम सरकार में मंत्री भी बने. वे एक दिन की जगदम्बिका पाल सरकार में भी मंत्री बने थे.
चिल्लूपार से अपराजेय माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी इसके बाद के दो चुनाव (2007 और 2012) पत्रकार से नेता बने ‘मुक्तिपथ वाले बाबा’ राजेश त्रिपाठी से चुनाव हारे. लगातार दो हार के बाद उन्होंने इस सीट को अपने बेटे विनय शंकर तिवारी को सौंप थी और चुनावी राजनीति से दूर हो गए.
हालांकि चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए भी उन्होंने पूर्वांचल में एक बड़े ब्राह्मण नेता के रूप में अपनी उपस्थिति बनाए रखी. उनके बड़े बेटे भीष्मशंकर तिवारी उर्फ कुशल तिवारी दो बार संतकबीर नगर से सांसद तो उनके छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी चिल्लूपार से एक बार (2017-2022) विधायक बने.
उनके भांजे गणेश शंकर पांडेय गोरखपुर-महराजगंज स्थानीय निकाय से चार बार (1990 से 2016) एमएलसी बने और 2010 से 2016 तक विधान परिषद के सभापति रहे.
पंडित हरिशंकर तिवारी ने चुनावी राजनीति की शुरुआत निर्दल प्रत्याशी के रूप में की थी. 1974 का विधान परिषद, 1984 के लोकसभा चुनाव और 1985 का विधानसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर लड़ा.
इसके बाद कांग्रेस में शामिल हुए और चिल्लूपार से 1989, 1991 और 1993 का चुनाव कांग्रेस से लड़ा. वे 1996 का चुनाव आखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) से लड़े. फिर उन्होंने श्याम सुंदर शर्मा, बच्चा पाठक सहित कई नेताओं के सहयोग से अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाई और आखिर तक वे उसी से जुड़े रहे, जबकि उनके दोनों पुत्र और भांजे भाजपा, बसपा से होते हुए करीब डेढ़ वर्ष से सपा में हैं.
इस समय तिवारी परिवार चुनावी सफलता के लिए तरस रहा है. भीष्म शंकर तिवारी वर्ष 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव हार गए तो विनय शंकर तिवारी 2022 का का विधान सभा चुनाव चिल्लूपार से हार गए.
गणेश शंकर पांडेय एलएलसी का चुनाव छोड़ 2017 में पनियरा से विधानसभा का चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद से उन्होंने चुनावी राजनीति से दूरी बनाई हुई है. इसके बावजूद तिवारी परिवार व ‘हाते’ की राजनीतिक पूछ कम नहीं हुई है.
तिवारी परिवार ने ब्राह्मण राजनीति को कभी छिपाकर नहीं किया. वे ‘ब्राह्मण हित’ को ही ‘राष्ट्रहित’ बताते रहे हैं. सपा में शामिल होने के बाद हरिशंकर तिवारी के बड़े पुत्र भीष्म शंकर तिवारी ने अपने फेसबुक वाल पर लिखा, ‘तिवारी परिवार सदैव राष्ट्रहित के लिए और ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिए संघर्ष करता रहा है और करता रहेगा. हमारे समाज से ही हमारी पहचान है. आदरणीय पिताजी पं. हरिशंकर तिवारी ने हमेशा यही सीख दी है. राष्ट्रहित में ही ब्राह्मण हित है; ब्राह्मण हित में ही राष्ट्रहित है.’
निधन के बाद समर्थकों द्वारा पंडित हरिशंकर तिवारी को ‘ब्राह्मण शिरोमणि’ बताते हुए शोक व्यक्त किया जा रहा है.
मठ, हाता और शक्ति सदन
‘हाता’1965 से गोरखपुर और पूर्वांचल की राजनीति का एक केंद्र बना रहा. धर्मशाला बाजार स्थित यह स्थान हरिशंकर तिवारी का घर है, जिसे ‘हाता’ के नाम से जाना जाता है. यहीं पर उनके दोनों पुत्र और भांजे गणेश शंकर पांडेय रहते हैं.
यह जगह काफी पहले गंवई डेरे के रूप में था, अब इसका स्वरूप काफी बदल गया है. इसका एक हिस्सा आधुनिक आवासीय परिसर में बदल गया है, लेकिन पूरब द्वार अभी भी पुराने अहाते के स्वरूप में हैं.
इस अहाते में फूस की बड़ी मड़ई और पुरानी काठ की कुर्सियां, बेंच व मेज अभी भी हैं, जो हरिशंकर तिवारी का प्रिय स्थान था और वे यहीं पर लोगों से मिला करते थे. यह मड़ई 1960 से अपने स्वरूप में है, जब तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति में सक्रिय थे. निधन के बाद उनका शव लोगों के दर्शन के लिए यहीं पर रखा गया था.
यूपी की राजनीति में हरिशंकर तिवारी की ख्याति बाहुबली नेता की थी, लेकिन हाता के आसपास के लोग उन्हें सहृदय अभिभावक के तौर पर जानते है, जो सवेरे ट्रैक सूट में टहलते हुए हाते के बाहर आकर लोगों का हालचाल पूछ लिया करते थे. आम तौर पर तिवारी धोती-कुर्ता और सदरी में होते थे, लेकिन सुबह टहलते वक्त उन्हें ट्रैक सूट में देखा जाता था.
हरिशंकर तिवारी मिलने वालों से बेहद विनम्रता से पेश आते थे और बहुत धीमे बोलते. मीडिया से दूरी बरतते.
पूर्वांचल की राजनीति लंबे समय से तीन राजनीतिक केंद्रों – ‘मठ’, ‘हाता’ और ‘शक्ति सदन’ – के ईद-गिर्द घूमती रही है. मठ (गोरखनाथ मंदिर) हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र बना तो ‘हाता’ ब्राह्मण राजनीति, जबकि मोहद्दीपुर स्थित शक्ति सदन क्षत्रिय राजनीति का केंद्र रहा, जिसका 1997 में वीरेंद्र प्रताप शाही की हत्या के बाद अवसान हो गया. शाही के बाद क्षत्रिय राजनीति के ध्वजवाहक मठ में ‘शिफ्ट’ हो गए.
जातीय गैंगवार
गोरखपुर में 80 के दशक में जातीय गैंगवार का दौर चला था. एक गुट का नेतृत्व ‘हाता’ के पास था तो दूसरे का नेतृत्व ‘शक्ति सदन’ के पास. इस गैंगवार में जनता पार्टी के विधायक रवींद्र सिंह, गोरखपुर छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रंग नारायण पांडेय सहित 50 से अधिक लोगों की हत्या हुई. इसी दौर को ‘ईस्ट ऑफ शिकागो’ और ‘अ स्लाइस ऑफ सिसली’ कहा गया.
गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त इस जातीय गैंगवार के बीज बोए गए, जिसने पहले छात्र राजनीति और बाद में पूर्वांचल की राजनीति को अपनी चपेट में ले लिया.
विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद उस पर वर्चस्व के लिए सुरति नारायण मणि त्रिपाठी (गोरखपुर के पहले जिलाधिकारी, विश्वविद्यालय स्थापना समिति से सदस्य और बाद में विश्वविद्यालय के कोषाध्यक्ष) और गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजयनाथ (विश्वविद्यालय स्थापना समिति के उपाध्यक्ष) में प्रतिद्वंद्विता शुरू हुई.
विश्वविद्यालय में शिक्षकों और कर्मचारियों की नियुक्ति जाति देखकर हुई. वर्चस्व की इस लड़ाई में छात्र नेताओं को मोहरा बनाया गया. तब यहां पढ़ रहे हरिशंकर तिवारी को ब्राह्मण लॉबी ने 1965 में विश्वविद्यालय कोर्ट का सदस्य बना दिया. जवाब में ठाकुर लॉबी ने बलवंत सिंह, रवींद्र सिंह को आगे किया.
वर्चस्व की यह लड़ाई जल्द ही खूनी संघर्ष में बदल गई. एक के बाद एक हत्या होने लगी.
दोनो गुटों के बीच हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला लगभग एक दशक तक चला. सबसे पहले 1978 में छात्र नेता बलवंत सिंह की गोलघर में हत्या हुई, जो रवींद्र सिंह के नजदीकी थे. बलवंत सिंह की हत्या के पहले मन्नू नाम के एक व्यक्ति की हत्या हुई थी.
बलवंत की हत्या के समय वीरेंद्र प्रताप शाही बस्ती की राजनीति में सक्रिय हो रहे थे. वे 1974 में बस्ती से विधानसभा का चुनाव लड़े थे, जिसमें उन्हें सिर्फ 5,740 वोट मिले थे. वहां एक हत्या में उनका नाम आया. फिर उनकी अदावत राणा कृष्ण किंकर सिंह से हो गई.
शाही की गोली से कृष्ण किंकर सिंह की एक आंख चली गई. कहा जाता है कि बलवंत सिंह की हत्या के बाद रवींद्र सिंह ने शाही को बस्ती से गोरखपुर बुला लिया. उस समय वह जेल में थे. उनकी जमानत कराकर गोरखपुर बुलाया गया.
शाही के आने के बाद उनके एक समर्थक बेचई पांडेय की 28 अगस्त 1978 को हत्या हुई, जिसका बदला लेने के लिए उसी शाम डवरपार में गोरखपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष रंग नारायण पांडेय सहित तीन लोगों की हत्या कर दी गई.
एक वर्ष बाद अमोल शुक्ल की हत्या हो गई. इसके बाद जनता पार्टी के विधायक और गोरखपुर विश्वविद्यालय व लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके रवींद्र सिंह की गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर 27 अगस्त 1979 को गोली मार दी गई. वे बुरी तरह घायल हुए और तीन दिन बाद 30 अगस्त 1979 को उनकी मौत हो गई. रेलवे स्टेशन पर फायरिंग के दौरान एक व्यक्ति की भी मौत हुई थी.
इसके बाद तो हत्याओं की झड़ी लग गई. दोनों गुट टैक्सी स्टैंड, जिला अस्पताल, मेडिकल कॉलेज और रेलवे के ठेके हासिल करने के लिए भी भिड़ने लगे. शाही पर जिला अस्पताल में हमला हुआ, लेकिन वह बच गए. इसके बाद उनके ऊपर तीन और हमले हुए.
पुलिस की फाइलों में इनके खिलाफ गंभीर केस थे, लेकिन मीडिया में इन्हें और रूप में प्रस्तुत किया जाता था. अखबारों में हरिशंकर तिवारी को ‘प्रख्यात नेता और वीरेंद्र प्रताप शाही को ‘शेर-ए-पूर्वांचल’ लिखा जाता था. दोनों की विज्ञप्तियां स्केल से नापकर सेम साइज में छापी जातीं. ये संतुलन बिगड़ने पर उस समय के पत्रकारों-संपादकों की हालत बिगड़ जाती थी.
दोनों बाहुबलियों का 200-200 गाड़ियों के काफिले से चलना आम बात थी. इन गाड़ियों में बंदूकों की नालें झांक रही होतीं. दोनों के बारे में सच्ची-झूठी ऐसी-ऐसी कहानियां सुनाई जातीं कि विश्वविद्यालय के नौजवान उन्हीं की तरह बनने की ख्वाहिश पालते. नौजवान दोनों के काफिले के वाहनों में बैठने और कंधे पर बंदूक टांगने में गर्व महसूस करते थे. इस दौर में हुए छात्रसंघ चुनाव में दोनों खुला हस्तक्षेप करते थे.
वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारती की किताब ‘निशाने पर समय, समाज और राजनीति’ में संकलित रिपोर्ट ‘एक विधायक की हत्या’, ‘पिछड़ेपन के अवगुणों का केंद्र गोरखपुर विश्वविद्यालय’, ‘पूर्वांचल में खूनी राजनीति का दौर’ में उस दौर की घटनाओं, जाति की राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण और राजनीतिक किरदारों की भूमिका को पढ़ा जा सकता है.
इन दोनों नेताओं को लेकर प्रदेश की राजनीति भी बंटी हुई थी. यूपी के मुख्यमंत्री रहे श्रीपति मिश्र, नारायण दत्त तिवारी, कांग्रेस के कद्दावर नेता कमलापति त्रिपाठी, माखनलाल फोतेदार, मोतीलाल वोरा के साथ हरिशंकर तिवारी के अच्छे संबध रहे. सिंचाई मंत्री व फिर मुख्यमंत्री बने वीर बहादुर सिंह पर वीरेंद्र प्रताप शाही को शह देने के आरोप लगते थे. प्रदेश के ठाकुर नेता शाही के पक्ष में और ब्राह्मण नेता तिवारी के पक्ष में लामबंद थे.
वीर बहादुर सिंह के दबाव में वीरेंद्र शाही और हरिशंकर तिवारी पर 1984 में रासुका लगा. शाही गिरफ्तार हो गए, लेकिन तिवारी नेपाल चले गए. चर्चा थी कि उस वक्त नेपाल के एक बड़े नेता ने उन्हें सुरक्षित शरण मुहैया कराया था. बाद में तिवारी ने सरेंडर किया और जेल गए. कचहरी में सरेंडर के करते उन्होंने बंद गले का सूट पहना था, पुलिस उन्हें पहचान नहीं पाई थी.
वर्ष 1985 में वीर बहादुर सिंह जब यूपी के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने दोनों बाहुबलियों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया. ठेके-पट्टे पर दोनों के वर्चस्व को भी खत्म करने की कोशिश की गई. इसका नतीजा यह हुआ कि शाही-तिवारी के बीच खूनी संघर्ष का अंत तो हुआ लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कायम रही.
यह बात भी कही जाती है कि शाही-तिवारी ने एक अलिखित समझौते के तहत एक दूसरे के खिलाफ दर्ज मुकदमे खत्म हो जाने दिए, ताकि वे अपने अतीत से पीछा छुड़ाते हुए ‘विशुद्ध राजनेता’ के रूप में अपनी छवि बना सकें.
हरिशंकर तिवारी जब 2012 में अपना आखिरी चुनाव लड़े तो उनके खिलाफ एक भी क्रिमिनल केस नहीं था. उनके बेटे भीष्म शंकर तिवारी द्वारा दिए गए हलफनामे के अनुसार उन पर भी कोई केस नहीं है. विनय शंकर तिवारी पर 120बी, 420, 467 ओर 451 के तहत एक केस है, जिसकी जांच सीबीआई व ईडी कर रही है.
‘प्रख्यात नेता’ से ‘विकास पुरुष’ और फिर ‘ब्राह्मण शिरोमणि’
अस्थिर सरकारों के दौर में हरिशंकर तिवारी को 1996 से 2007 तक लगातार कैबिनेट मंत्री बनने का मौका मिला. अखबारों में अब उन्हें ‘प्रख्यात नेता’ की बजाय ‘विकास पुरुष’ लिखा जाने लगा था.
मायावती सरकार में उन्होंने अपने को ब्राह्मण नेता के रूप में स्थापित करने के लिए लखनऊ में बड़े पैमाने पर परशुराम जयंती का आयोजन रखा. इसकी तैयारी महीनों तक गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक चलती थी. गोरखपुर में रोज एक पत्रकार वार्ता होती, जिसमें परशुराम जंयती मनाने के औचित्य को प्रतिपादित किया जाता और तिवारी द्वारा किए गए कार्यों का गुणगान किया जाता.
परशुराम जयंती मनाए जाने के बाद उन्हें ‘ब्राह्मण शिरोमणि’ कहा जाने लगा.
योगी आदित्यनाथ का उभार
वीरेंद्र प्रताप शाही की 1997 में हत्या के बाद क्षत्रिय राजनीति, नेतृत्व विहीन हो गई. उसी समय गोरखनाथ मंदिर के महंत अवेद्यनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में योगी आदित्यनाथ आए.
वर्ष 1998 में सांसद बनने के बाद वह बड़ी तेजी से उभरे. उनके आसपास वही लोग एकत्र हुए, जो कभी शाही के साथ थे. आदित्यनाथ ने भाजपा में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहा तो उनकी टकराहट तबके भाजपा विधायक व मंत्री शिव प्रताप शुक्ला से हुई, जो 1989 से लगातार जीतते आ रहे थे.
शुक्ला ‘हाता’ के करीबी थे. वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में योगी ने भाजपा से बगावत करते हुए शुक्ला के खिलाफ डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल को हिंदू महासभा से चुनाव मैदान में उतार दिया. इस चुनाव में डॉ. अग्रवाल जीत गए. इसके बाद से शुक्ला धीरे-धीरे प्रभावहीन होते चले गए और योगी का दबदबा बढ़ता गया.
शुक्ला से योगी की प्रतिद्वंद्विता में हरिशंकर तिवारी भी कूद गए. उन्होंने एमपी कॉलेज में भाजपा की सभा में भाजपा के मंच से योगी पर सार्वजनिक रूप से ‘बैठूं तेरी गोद में उखाडूं तेरी दाढ़ी’ कहकर तंज किया था. यह टिप्पणी योगी पर भाजपा में रहते हुए भाजपा का विरोध करने पर की गई थी.
जवाब में योगी ने चिल्लूपार में हरिशंकर तिवारी के खिलाफ मोर्चा खोला. उस चुनाव में तिवारी तो जीत गए, लेकिन बाद के दो चुनाव में उनकी हार हुई. उन्हें हराने वाले राजेश त्रिपाठी यूं तो बसपा से चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें योगी आदित्यनाथ का ‘भरपूर समर्थन’ मिला था.
‘हाता’ ने अपने खिलाफ मोर्चा खोले जाने का जवाब 2009 के लोकसभा चुनाव में दिया. हरिशंकर तिवारी के छोटे पुत्र विनय शंकर तिवारी बसपा से गोरखपुर लोकसभा सीट से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़े.
इस चुनाव में भोजपुरी फिल्म अभिनेता मनोज तिवारी सपा से चुनाव लड़े थे. उस समय चर्चा थी कि ब्राह्मण मतों को बांटने के लिए अमर सिंह से मनोज तिवारी को सपा से चुनाव लड़वा दिया, ताकि योगी की विजय में कोई अड़चन न आए.
इस तरह ‘हाता’ और ‘मठ’ में कभी आमने-सामने तो कभी परोक्ष राजनीतिक घमासान होता रहा है.
इसका सबसे तीखा रूप तब सामने आया, जब 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के एक महीने बाद ही 22 अप्रैल 2017 को पुलिस ने ‘हाता’ पर छापा डाल दिया. पुलिस ने यह छापा लूटकांड के एक आरोपी की तलाश में मारा था.
इस घटना को तिवारी परिवार ने मुख्यमंत्री के इशारे पर हुई कार्रवाई बताया और इसके खिलाफ 24 अप्रैल 2017 को जोरदार प्रदर्शन किया. उस समय 77 वर्ष के हो चुके हरिशंकर तिवारी भी इसमें शामिल हुए. नारा लगा, ‘ब्राह्मणों के सम्मान में हरिशंकर तिवारी मैदान में’, ‘बम बम शंकर- हरिशंकर’.
प्रदर्शन में बड़ी संख्या में ब्राह्मणों की मौजूदगी ने भाजपा को परेशानी में डाल दिया. यह बात उठी कि जिन ब्राह्मणों ने यूपी में भाजपा को जबरदस्त समर्थन दिया है कि वे कहीं बिदक न जाएं.
इसके बाद से योगी आदित्यनाथ और तिवारी परिवार के बीच कोई सीधी टकराहट सामने नहीं आई.
70 के दशक में जन्मी और 80 के दशक में परवान चढ़ी ठाकुर-ब्राह्मण राजनीति के दोनों ध्रुव (हरिशंकर तिवारी-वीरेंद्र प्रताप शाही) अब नहीं हैं, लेकिन इस राजनीति का गहरा प्रभाव अभी भी है. इस राजनीति के उत्तराधिकारी अलग-अलग रूपों में मौजूद हैं. समय-समय पर इसका प्रकटीकरण होता रहा है और आगे भी होता रहेगा.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)