कर्नाटक: महिलाओं ने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया, फिर भी राजनीति में जगह बनाना दूर का सपना है

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के 1978 से अब तक के पिछले 45 वर्षों के आंकड़े दिखाते हैं कि महिलाओं की भागीदारी में मामूली वृद्धि हुई है और कुछ जीती भी हैं, लेकिन वृद्धि दर बहुत धीमी है. इस बार के चुनावों में 10 महिलाओं ने जीत दर्ज की है. इनमें से तीन भाजपा से, चार कांग्रेस से, दो जेडी (एस) से और एक निर्दलीय प्रत्याशी हैं.

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बाएं से: सौम्या रेड्डी (कांग्रेस), शशिकला अन्नासाहेब जोले (भाजपा) और भागीरथी मुरुल्या (भाजपा). (फोटो साभार: ट्विटर और विकिपीडिया)

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के 1978 से अब तक के पिछले 45 वर्षों के आंकड़े दिखाते हैं कि महिलाओं की भागीदारी में मामूली वृद्धि हुई है और कुछ जीती भी हैं, लेकिन वृद्धि दर बहुत धीमी है. इस बार के चुनावों में 10 महिलाओं ने जीत दर्ज की है. इनमें से तीन भाजपा से, चार कांग्रेस से, दो जेडी (एस) से और एक निर्दलीय प्रत्याशी हैं.

बाएं से: सौम्या रेड्डी (कांग्रेस), शशिकला अन्नासाहेब जोले (भाजपा) और भागीरथी मुरुल्या (भाजपा). (फोटो साभार: ट्विटर और विकिपीडिया)

ऐतिहासिक रूप से कर्नाटक ने कभी भी राज्य विधानसभा चुनावों में महिलाओं का मजबूत प्रतिनिधित्व नहीं देखा है. 2023 के चुनाव भी कुछ अलग नहीं थे.

इस चुनाव के लिए नामांकित 185 महिलाओं में से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 12 महिला प्रतिनिधियों को नामांकित किया, कांग्रेस ने 11 और जनता दल (सेक्युलर) ने 13 को नामांकित किया. सबसे अधिक संख्या में महिलाओं (17) को आम आदमी पार्टी (आप) द्वारा नामांकित किया गया, हालांकि वे चुनाव में अपनी छाप छोड़ने में असफल रहीं.

1978 से पिछले 45 वर्षों के आंकड़े दिखाते हैं कि कर्नाटक में महिलाओं की भागीदारी में मामूली वृद्धि हुई है और कुछ जीती भी हैं, लेकिन वृद्धि की दर बहुत धीमी है (जैसा कि चार्ट-1 में दिखाया गया है).

चार्ट 1: 1978 से 2023 तक कर्नाटक विधानसभा चुनावों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व. आंकड़ों में उपचुनाव शामिल नहीं हैं. (स्रोत: लोकढाबा, टीसीडीपी)

चार्ट-1 दिखाता है कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की भागीदारी की दर बहुत धीमी गति से लगातार बढ़ रही है. 1985 में चुनाव लड़ने वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या अधिक थी, क्योंकि बहुत सारी महिलाओं ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था.

इन आंकड़ों में उपचुनावों के आंकड़े शामिल नहीं हैं. हालांकि, ऐसा सिर्फ एक उदाहरण है जब किसी महिला ने उपचुनाव जीता हो. 2019 के उपचुनाव में कुसुमवती चन्नबसप्पा शिवल्ली कुंडगोल विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर जीती थीं.

कर्नाटक में पहली महिला विधायक कडीडल मंजुला थीं, जो 1967 के राज्य विधानसभा चुनावों में मुद्देबिहाल निर्वाचन क्षेत्र से चुनी गई थीं. वह कांग्रेस की सदस्य थीं.

मंजुला की जीत कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुई, क्योंकि वह राज्य विधानसभा में पहुंचने वाली पहली महिला बनीं और निस्संदेह उनके निर्वाचन ने अधिक महिलाओं के राजनीति में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन पुरुष और महिला भागीदारी के बीच के विशाल अंतर को पाटने के लिए और अधिक प्रयासों की जरूरत है.

विभिन्न पार्टी प्रतिनिधियों से पूछा गया था कि वे अधिक महिलाओं को चुनाव क्यों नहीं लड़ाते और उन सभी ने एक समान प्रतिक्रिया दी कि महिलाएं ही खुद सामाजिक दबाव के चलते राजनीति में करिअर नहीं बनाना चाहती हैं.

इसके अलावा, दो टूक यह भी कहा कि कर्नाटक जैसे राज्य में मतदाता महिला विधायकों को पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें विधायक की जिम्मेदारी निभाने के लिए एक महिला की क्षमता पर भरोसा नहीं है.

चूंकि किसी भी राजनीतिक दल का मुख्य उद्देश्य चुनाव जीतना होता है, इसलिए वे महिलाओं को नामांकित करके कोई जोखिम नहीं लेना चाहते हैं.

2023 के चुनाव परिणामों में 10 महिलाओं ने अपनी सीट जीती. इनमें से तीन भाजपा से, चार कांग्रेस से, दो जेडी (एस) से और एक ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था.

हालांकि, परिणाम घोषित होने के ठीक बाद निर्दलीय उम्मीदवार लता मल्लिकार्जुन ने कांग्रेस को समर्थन दे दिया. वे दिवंगत उपमुख्यमंत्री एमपी प्रकाश की बेटी हैं. वह हरपनहल्ली विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुई हैं.

लक्ष्मी आर. हेब्बलकर (कांग्रेस), जो बेलगाम ग्रामीण से मौजूदा विधायक हैं, ने अपनी सीट बरकरार रखने में कामयाबी हासिल की. रूपकला एम. (कांग्रेस) ने भी अपनी सीट बरकरार रखी. दोनों 50,000 से अधिक मतों के अंतर से जीतीं.

कांग्रेस की कनीज फातिमा हिजाब प्रतिबंध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के चलते पहले से ही सुर्खियों में थीं. उन्होंने गुलबर्गा उत्तर निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के चंद्रकांत पाटिल को 2,712 मतों से हराया.

दिलचस्प यह है कि हिजाब पर प्रतिबंध लगाने वाले कर्नाटक के शिक्षा मंत्री बीसी नागेश को अपनी तिप्तुर सीट पर हार का सामना करना पड़ा. नागेश को कांग्रेस उम्मीदवार के. शदाक्षरी ने 17,652 मतों के अंतर से हराया.

बेंगलुरु के एनएलएसआईयू की वकील नयना मोतम्मा ने मुडिगेरे से 722 मतों के छोटे अंतर से जीत हासिल की.

इस मामले में कांग्रेस विधायक सौम्या रेड्डी, जो जयनगर विधानसभा से लगभग जीत ही गई थीं, का उल्लेख किया जाना चाहिए.

यह घोषणा होने के बाद कि वह 160 मतों के अंतर से जीत चुकी हैं, चुनाव आयोग को तब वोटों की गिनती फिर से करानी पड़ी, जब बेंगलुरु दक्षिण के सांसद तेजस्वी सूर्या और पद्मनाभनगर के विधायक आर. अशोक ने अस्वीकृत किए गए 177 डाक मत-पत्रों को लेकर आपत्ति जताई.

आधी रात तक चली कई दौर की पुनर्मतगणना के बाद भाजपा उम्मीदवार सीके राममूर्ति को 16 मतों के अंतर से विजेता घोषित किया गया.

भाजपा की ओर से विधायक शशिकला अन्नासाहेब जोले ने अपनी निप्पनी सीट को 7,292 मतों के अंतर से जीतकर बरकरार रखा. 2019 में उन्हें बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल किया गया था.

मंजुला एस. ने महादेवपुरा सीट से 44,501 मतों के अंतर से जीत हासिल की और सुलिया विधानसभा क्षेत्र से भागीरथी मुरुल्या जीतीं.

मुरुल्या का यहां विशेष तौर पर उल्लेख करना जरूरी है, क्योंकि वह विधानसभा में प्रवेश करने वाली तटीय कर्नाटक की पहली दलित महिला बनी हैं.

भाजपा के कर्नाटक की राजनीति में प्रवेश करने के बाद से ही सुलिया सीट पार्टी के गढ़ों में से एक रही है. हालांकि, इस बार भाजपा द्वारा अपने छह बार के विधायक एस. अंगारा को टिकट देने से इनकार करने के बाद काफी आंतरिक तनाव की स्थिति बनी थी.

तनाव कम करने के लिए पार्टी ने दलित समुदाय की एक महिला उम्मीदवार को उम्मीदवार बना दिया था. हालांकि, मुरुल्या उम्मीदों पर खरी उतरीं और 2018 में एस. अंगारा द्वारा प्राप्त मतों की तुलना में अधिक मत हासिल किए. उन्होंने 30,874 मतों के अंतर से जीत हासिल की, जबकि अंगारा का अंतर 26,068 मतों का था.

बहरहाल, कर्नाटक की राजनीति में महिलाओं को शामिल करना अभी भी एक दूर का सपना है. हालांकि, तटीय कर्नाटक से पहली बार दलित समुदाय की महिला द्वारा प्रतिनिधित्व करना और हिजाब प्रतिबंध का विरोध करने वाली महिला का कांग्रेस विधायक बनना उत्साहजनक है.

पितृसत्ता अभी भी उन महिलाओं के लिए रुकावट का एक अहम कारण बना हुआ है, जो राजनीति में स्वतंत्र भागीदारी करने में सक्षम नहीं हैं. यह देखना सार्थक होगा कि क्या कर्नाटक में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के आंकड़े और बढ़ते हैं या ठहर जाते हैं.

(पौलोमी घोष अशोका विश्वविद्यालय की शोध छात्रा हैं, इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)