किसी पुराने सिनेमाघर के बंद होने पर उसके साथ हज़ारों यादें भी दफ़्न हो जाती हैं

मुंबई के सबसे बड़े थिएटरों में से एक इरोज़ को मल्टीप्लेक्स और रिटेल आउटलेट में तब्दील किए जाने की सूचना है और इस बात से इसके चाहने वाले ख़ुश नहीं हैं.

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(फोटो साभार: Art Deco Mumbai Trust Archives)

मुंबई के सबसे बड़े थिएटरों में से एक इरोज़ को मल्टीप्लेक्स और रिटेल आउटलेट में तब्दील किए जाने की सूचना है और इस बात से इसके चाहने वाले ख़ुश नहीं हैं.

(फोटो साभार: Art Deco Mumbai Trust Archives)

मैंने ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली पहली फिल्म बंबई के इरोज़ में देखी. उस समय मेरी उम्र ‘ए’ फिल्म देखने वाली नहीं थी, लेकिन एक भले अंकल, मेरी लंबाई में हाल ही में हुई अचानक कुछ इंचों की बढ़ोतरी और एक दरबान के ध्यान न देने ने मुझे सिनेमाघर के भीतर पहुंचा दिया.

फिल्म थी ब्लो हॉट, ब्लो कोल्ड  जो एक ‘बोल्डिश’ फिल्म थी, जिसमें नग्नता और हत्या के दृश्य थे और जिसमें प्रसिद्ध स्वीडिश अभिनेत्री बीबी एंडरसन ने भूमिका निभाई थी. यह अलग बात है कि सेंसर बोर्ड ने संभवतः ज्यादातर ‘हॉट’ दृश्यों पर कैंची चला दी थी. लेकिन फिर भी जबानी प्रचार के चलते यह फिल्म खूब चली. इसमें इसके पोस्टरों ने भी निश्चित तौर पर मदद की होगी.

इसके बाद मैंने इस लैंडमार्क सिनेमाघर में कई और फिल्में देखीं- वुडस्टॉक, जिसमें एक भारतीय रॉक बैंड भी प्रवेश हॉल देता था दी थी. अब्बा बैंड में सफेद स्पैंडेक्स कपड़ों में चार स्वीडिश गायक झूम-झूमकर अपने हिट गाने गाते थे- और उनके साथ दर्शक भी सुर में सुर मिलाते थे. और टॉवरिंग इनफर्नो, पहली डिजास्टर फिल्म, जिसमें बड़े पर्दे ने हमें यह एहसास कराया कि जैसे हम आग की लपटों के बीच एक गगनचुंबी इमारत में हैं.

और कोई नाइट शो में लगी द एक्सॉर्सिस्ट को कैसे भूल सकता है, जिसके बाद हमारी मंडली का कोई भी व्यक्ति अकेले घर नहीं जाना चाहता था और हर कोई पैदल चलकर ऑफिस गया था और पूरी रात जगा रहा था. आने वाले सालों में चर्चगेट स्टेशन के सामने इस सिनेमाघर, जो फ्रेंच वास्तुकला का एक सुंदर नमूना है, में मैंने कई और फिल्में देखीं.

ये ब्लैक में टिकट खरीदने, फर्स्ट डे फर्स्ट शो और सिनेमाघर के भीतर सस्ते स्नैक्स मिलने वाले दिन थे. आज की तरह उन दिनों स्नैक्स की कीमत आसमान छूती हुई नहीं थी.

और आज वही इरोज़ सिनेमा, जिसके साथ मेरी और अनगिनत दूसरे लोगों की कई यादें जुड़ी हुई हैं, को जमींदोज किया जा रहा है. एक और सुंदर इमारत लालची बिल्डरों की बलि चढ़ रही है. क्या यह सच है? ट्विटर ऐसा बता रहा है और इसको लेकर वहां दो-तीन घंटों तक गुस्सा भी दिखा, इसलिए यह खबर निश्चित ही सही होनी चाहिए.

इसका उत्तर हां भी है और न भी.

हरे परदे से ढकी इरोज़ की इमारत. (फोटो: द वायर)

मेट्रो और रीगल की ही तरह इरोज़ का निर्माण भी 20वीं सदी के शुरू में समुद्र से छीनी गई जमीन पर किया गया था. इस तरह से हासिल की गई जमीन पर आज मुंबई का कई व्यावसायिक इलाके आबाद हैं, जिसमें से एक वहां का प्रसिद्ध मरीन ड्राइव भी है. इस जमीन को रिहाइशी इमारतों, संस्थाओं और सिनेमाघरों को नीलाम कर दिया गया. सबसे पहले बना रीगल. गेटवे ऑफ इंडिया के पास.

इसके पीछे-पीछे दूसरे सिनेमाघरों का निर्माण हुआ. इन सभी का निर्माण आधुनिक शैली में हुआ, जो उन दिनों दुनियाभर, खासकर तटीय नगरों में फैशन में थे. 1938 में निर्मित इरोज़ इन सबमें सबसे सुंदर था. कोने में होने के कारण इसकी आकृति जहाज जैसी बनाई गई थी, जिसके शीर्ष पर पिरामिडीय टावर जैसी संरचना बनाई गई थी जो चर्चगेट स्टेशन के ठीक सामने थी.

विक्टोरिया टर्मिनस के साथ चर्चगेट बंबई के दो सबसे व्यस्त उपनगरीय रेल टर्मिनलों में से एक है. इस स्टेशन से बाहर निकलने वाले हजारों लोगों का स्वागत यह बंबई और उसकी आधुनिकता और आजादी से ठीक पहले आकार ले रहे एक नए शहर के वास्तविक प्रतीक के तौर पर करता था. शहर का सबसे सुंदर सिनेमाघर तो यह था ही.

इरोज़ का निर्माण एक कॉस्मोपॉलिटन, विश्व भ्रमण करने वाले पारसी शियावैक्स कंबाटा ने करवाया था. वे लंदन यात्रा के दौरान वहां पिकैडिली में देखी गई इरोज़ की मूर्ति से प्रभावित थे. बॉम्बे क्रॉनिकल ने लिखा था कि उन्होंने एक ऐसे सिनेमाघर के निर्माण का फैसला किया जो ‘सिर्फ बंबई की ही शान नहीं होगा, बल्कि पूरे पूरब की शान होगा.’

आर्ट डेको, मुंबई नामक वेबसाइट के एक लेख के अनुसार, ‘इस इमारत के अंदर जहां फिल्म का प्रदर्शन होता था, वहीं इसकी बाहरी साज सज्जा भी उतनी ही भव्य थी, जिसमें एक सिनेमाई खासियत थी. इमारत का वक्राकार अग्रभाग एक शानदार समुद्री जहाज जैसा नजर आता है, जो आधुनिक युग में समुद्री अभियानों और कॉस्मोपॉलिटन यात्राओं का प्रतीक है.’ यह वेबसाइट 20वीं सदी के मुंबई को आकार देने वाली वास्तु शैली के प्रति समर्पित है.

इस सिनेमाघर के इंटीरियर  में नक्काशियों वाली पट्टियां, एयर कंडीशनिंग व्यवस्था और आरामदायक सीटें थीं. और इसके पैट्रन (संरक्षक) महिला साजिंदों वाले इंग्लिश बैंड के साथ उम्दा भोजन का भी लुत्फ ले सकते थे.

चर्चगेट जहां इरोज़ अवस्थित था, वहां पूरी सड़क नए-नए रेस्टोरेंटों से गुलजार थी, जो चाइनीज से लेकर इटैलियन और काफी पसंद किए जाने वाले कोंटी (कॉन्टिनेंटल) भोजन तक परोसते थे, जहां शहर का अभिजात्य तबका डिनर करने और वहां बजने वाले जैज बैंडों पर डांस करने के लिए जाया करता था.

दक्षिण बॉम्बे के सिनेमाघर सिर्फ हॉलीवुड फिल्में ही दिखाया करते थे. वहां सिनेमाघरों में एक अनौपचारिक समझौता था- इरोज़ में वार्नर ब्रदर्स की फिल्में दिखाई जाती थीं, मेट्रो एमजीएम के लिए था और रीगल का ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स के साथ करार था. स्वाभाविक तौर पर ये सिनेमाघर तथाकथित कुलीन वर्ग के लिए, फिल्म उद्योग की भाषा में कहें, तो अंग्रेजीभाषी ‘उच्च वर्गों’ के लिए थे.

हिंदी फिल्में, जिनकी संख्या कहीं ज्यादा थीं, ग्रांट रोड वाले हिस्से में दिखाई जाती थीं, जहां सिनेमाघरों का जमघट था.

इसके जवाब में एक सूती व्यापारी हबीब हुसैन जिनका असली प्रेम सिनेमा था और बॉम्बे और पुणे में जिनके सिनेमाघर थे, ने 1,200 सीटों वाला एक पिक्चर पैलेस बनाने का फैसला किया- जो ‘देश का शो प्लेस’ होगा और सिर्फ हिंदुस्तानी फिल्में दिखाएगा और साथ ही साथ भारत की आजादी उत्सव भी मनाएगा. लिबर्टी का उद्घाटन 1949 में महबूब खान की फिल्म अंदाज के प्रीमियर के साथ हुआ.

बंबई जैसे-जैसे उत्तर की तरफ बढ़ता गया और इसमें नए उपनगरीय इलाके जुड़ते गए आर्ट डेको शैली वाले और सिनेमाघर अस्तित्व में आते गए.

अपनी फिल्मों के लिए टिकट खिड़की पर दर्शकों की भीड़ जमा करना हर निर्माता का सपना था, लेकिन हर फिल्म इसमें कामयाब नहीं हो पाती थी. जो यह कर पाने में कामयाब हो जाते थे, वे हर मील के पत्थर का प्रचार किया करते थे- 100 दिन, सिल्वर जुबली (25 सप्ताह), गोल्डन जुबली (50 सप्ताह), प्लैटिनम (75 सप्ताह). कुछ फिल्में इससे भी ज्यादा दिनों का रिकॉर्ड बनाती थीं, मसलन, मुग़ले-आज़म, संगम, पाकीज़ा और शोले आदि.

वे सिंगल स्क्रीन थियेटर के लिए अच्छा समय था. लेकिन उसके बाद समय बदलने लगा. देशभर में मल्टीप्लेक्सों की एक बाढ़ सी आ गई. सरकार मल्टीप्लेक्सों का पक्ष लेनेवाली एक नीति लेकर आई- पहले तीन साल के लिए टैक्स छूट और फिर अगले दो सालों के लिए सिर्फ 25 प्रतिशत टैक्स. जल्दी ही पूरे राज्य में और देशभर में भी मल्टीप्लेक्सों का तांता लग गया जबकि सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की संख्या घटती चली गई.

बड़े सिनेमाघरों ने, जो पहले ही एक ऐसी कर व्यवस्था से परेशान थे, जो उन्हें हर बिके हुए टिकट पर बहुत कम देती थी, इस नई नीति में अपने लिए एक नया भविष्य देखा. जबकि कई छोटे सिनेमाघरों ने अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया और कइयों को नए डेवलपर्स ने खरीद लिया, जिनकी योजना बहुत साफ थी- नीचे बाजार और ऊपर छोटे परदे वाले छोटे-छोटे हॉल, जिनमें सीटों की क्षमता 200 तक होगी.

धीरे-धीरे वे सिनेमाघर अतीत की चीज होते गए, जिन्होंने लाखों लोगों को कभी बेइंतहा खुशी दी थी, जहां लोग रोए थे, हंसे थे, नाचे थे और जहां सिनेमा के नरम अंधेरे में लोगों ने रोमांस किया था. उनकी जगह ले ली एक ऐसी नई जगह ने जो खरीदारी करने, खाने और इसके अलावा शायद फिल्म देखने के लिए थी. सिनेमाघर अब पहले जैसे नहीं रह गए.

बड़े सिनेमाघरों ने किसी तरह से खुद को बचाए रखा, खासकर दक्षिण बॉम्बे में. लेकिन नई शताब्दी के शुरूआती वर्षों में पहला विकेट गिरा मेट्रो सिनेमा का. इसका ऐडलैब्स ने अधिग्रहण कर लिया, जिसने कई मल्टीप्लेक्स खोले. यह जल्दी ही काफी लोकप्रिय हो गया और एक्सेलसियर और स्टर्लिंग ने भी नया अवतार ले लिया.

अब बारी इरोज़ की है. 2019 से यहां से गुजरने वाले एक बंद पड़े सिनेमा हॉल को देख रहे हैं. लॉकडाउन के बाद एक हरे रंग के परदे से इसे ढक दिया गया है, जिसके पीछे काम चल रह है. पिछले कुछ हफ्ते पहले तक, जब परदे का एक हिस्सा टवर से हट नहीं गया, लोग इसे नजरअंदाज करते रहे. लेकिन ऐसा लगता है कि इसने लोगों के भावनात्मक तार को छेड़ दिया.

लोगों के मन में यह सवाल उठा कि क्या चल रहा है? क्या इसे आखिरकार बंद किया जा रहा है, क्या इसे धराशायी किया जा रहा है? क्या इसकी जगह क्रोम और ग्लास की एक और गगनचुंबी इमारत लेनेवाली है?

पता चला है कि इस सिनेमाघर को कंबाटा परिवार से किसी दूसरे समूह ने खरीद लिया है. इसके निचले तल्ले पर एक मशहूर अभिजात्य ब्रिटिश वस्त्र ब्रांड और एक खेल के सामानों की दुकान होगी. ऊपरी तल्ले पर 300 सीटों वाला एक थियेटर होगा. इसमें से कोई भी खबर पुख्ता नहीं है. ये बातें अभी तक सिर्फ रिपोर्ट ओर अफवाह की शक्ल में ही सामने आई हैं.

नियमों के हिसाब से चूंकि यह एक हेरिटेज बाजारी इलाका है, इसलिए आगे के हिस्से के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है, इसलिए यह बाहर से तो वैसा ही लगेगा, लेकिन इसे अंदर से बदल दिया गया है. बल्कि एक स्रोत जो किसी तरह से इसके अंदर जा सका, उसके अनुसार इसे पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया है.

‘मैंने अंदर सीमेंट की बोरियां देखीं और सिनेमाहॉल के अंदर की सीटों और सभी चीजों को उखाड़ दिया गया है.’ उसने बताया कि दीवार बने चित्र भी शायद अब नहीं रहे, क्योंकि दीवार पर भी सीमेंट चढ़ा दिया गया था. इसके नए खरीदार या इसके असली मालिकों में से कोई भी इस पर टिप्पणी नहीं करेगा.

मुंबई के इतिहास के एक महत्वपूर्ण हिस्से को उखाड़ फेंका जा रहा है और जल्दी ही हमारे सामने मौजूदा चलन वाली एक जगमगाती हुई इमारत होगी जहां रिटेल खरीदारी, खान-पान और सिनेमा सबकुछ एकसाथ होगा. सरकार की नीतियों ने हेरिटेज इमारतों के संरक्षण के लिए कुछ नहीं किया है. आने वाली पीढ़ियों को इससे कोई मतलब नहीं होगा, क्योंकि उन्हें इसके बारे में कुछ पता नहीं होगा.

इरोज़ की दूसरी तरफ मेट्रो का निर्माण किया जा रहा है और एक बोर्ड पर लिखा हुआ है, ‘मुंबई इज अपग्रेडिंग’. (मुंबई नया बन रहा है.) उन लोगों के लिए जिन्होने इरोज़ नाम के भव्य सिनेमाघर में फिल्में देखते हुए न जाने कितने घंटे बिताए हैं और जो इसके बंद पड़े दरवाजे देख रहे हैं, वे भी इसी सवाल से दो-चार हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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