मधु लिमये याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे. 

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मधु लिमये. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अमृतकाल में बुद्धि अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज़ अपमान किया जाता है. अपनी बुद्धिहीनता को नेता आभूषण की तरह पहनकर रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु लिमये इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिज्ञ थे.

मधु लिमये. (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

समाजवादी बुद्धिजीवी और राजनेता मधु लिमये के जन्म को सौ वर्ष हो गए. हाल ही में एक बड़ी सभा में उन्हें याद किया गया. आजकल राजनीति राजबाज़ारी, नीतिशून्य सत्ता की साधना, तिकड़म, झूठ-घृणा-हिंसा-हत्या-अत्याचार सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग वैध माध्यम बन गए हैं. पाखंड, अन्याय, गाली-गलौज, झगड़ालूपन आदि राजनीति की दैनिक भाषा बन गए हैं. ऐसे में मधु लिमये उन राजनेताओं में याद किए जाएंगे जो राज को नीति से विलग होने पर उसका तीख़ा-गहरा प्रश्नांकन कर, राज की बढ़ती नीतिहीनता पर प्रहार करते हुए राजनीति को एक सभ्य कर्म बनाते थे.

उनका सौम्य-सभ्य संवाद में भरोसा था: वे स्वयं एक अत्यंत सभ्य राजनेता थे. उस समय यह याद करना है जब बड़ी संख्या में नेता असभ्य, अभद्र, नीच आचरण करने से नहीं चूकते. आज लोकतंत्र में लगातार कटौती लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर, उन्हें विकृत कर, की जा रही है. संसद ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा और बहस का मंच नहीं, उनसे बचने की जुगत-जमात बना दी गई है. तब मधु लिमये की याद आती है कि उनके लोकतंत्र का धर्नुधर होने, लोकतंत्र को अपने सुचिंतित विरोध द्वारा पुष्ट-सशक्त-सत्यापित करने, संसद को व्यापक भारतीय जन की समस्याओं को उजागर करने, सत्ता को अपनी जवाबदेही पर विवश करने में भूमिका निभाने के लिए.

वे संसद में बहुत तैयारी से जाते थे: वाग्युद्ध में कभी तथ्यों से विरत-विपथ नहीं होते थे. मधुजी उन भारतीयों में से हैं जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र और संसद दोनों को जन-प्रासंगिक बनाने में, उनकी गरिमा बचाने-बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान किया है.

समता और मुक्ति ये दोनों ही शब्द और उनमें विन्यस्त अवधारणाएं वर्तमान भारतीय राजनीति के शब्दकोष से ग़ायब हो चुके हैं. भारतीय नागरिकता का वह बड़ा हिस्सा, जो आज ग़रीबी-विषमता-बेरोज़गारी का शिकार है, वर्तमान राजनीतिक कल्पना और प्रयत्न के भूगोल से अपदस्‍थ किया जा चुका है. समाजवादी होने के नाते समता और मुक्ति मधु जी के केंद्रीय सरोकार जीवन भर रहे.

भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम, गोवा मुक्ति संघर्ष और अनेक जन आंदोलनों में उनकी भागीदारी और इस कारण स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी जेलों में बिताया लंबा जीवन आज अगर याद आते हैं तो इसलिए भी कि आज ऐसी शक्तियां सत्ता में हैं जिन्होंने कभी किसी मुक्ति-संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया और जो समता की संभावना तक को ध्वस्त करने में सक्रिय हैं.

इन दिनों अमृत काल में बुद्धि एक अभद्र शब्द बन गया है. बुद्धिजीवियों का लगभग रोज अपमान किया जाता है, उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है. अपनी बुद्धिहीनता को राजनेता माला आभूषण की तरह पहनकर अपना रौब जमाते हैं. राजनीति में बुद्धि नहीं तिकड़म और हिकमत से सब काम चल रहा है. मधु, इसके बरक़स, एक बुद्धिशील राजनीतिक थे. उनके लिए राजनीति बौद्धिक और नैतिक कर्म भी थी. उनकी नागरिक और राजनीतिक सजगता का बौद्धिक सजगता अनिवार्य हिस्सा थी. उन्होंने स्वतंत्रता-संग्राम, सरदार पटेल आदि अनेक विषयों पर बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखीं. वे फिर याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र बिना बुद्धि के सशक्त नहीं हो सकता.

आज सारी संस्कृति को तमाशे में बदल दिया जाता है. बिना फ़कीरों का भेस बदले हम रोज़ तमाशा देखते हैं: जो जितना बड़ा तमाशा करता है वह उतना ही लोकप्रिय है. सब कुछ राजनीति है ऐसी ज़हनियत बन गई है. ऐसे में मधु जी जैसे लोग थे जिनके लिए संस्कृति का राजनीति में भी बहुत महत्व था और जो उसकी स्वतंत्रता और गरिमा का सम्मान करते थे.

उन्होंने आपातकाल में मध्यप्रदेश की किसी जेल में कै़दी रहते हुए कुमार गंधर्व को एक पत्र में यह लिखा था कि उनके संगीत को सुनकर उनको लगता है कि वे ‘संसार के रहस्य को कुछ छू-सा रहे हैं.’ आज ऐसा कोई राजनेता खोजे से न मिलेगा जो शास्त्रीय संगीत की ऐसी महिमा पहचान सकता हो. मधुजी के लिए बुद्धि और विचार के साथ-साथ संस्कृति भी राजनीति को मानवीय, संवेदनशील और सच्चे अर्थों में सामाजिक बनाने के लिए अनिवार्य थी.

कला में मुक्ति

यह धारणा अब तक तो मान्य हो गई है कि कई कलाकार और साहित्यकार कलाओं और साहित्य में मुक्ति की तलाश करते हैं. कई बार उन्हें जो मुक्ति निजी या सार्वजनिक जीवन में असंभव या अप्राप्य लगती है वह उन्हें सृजन में मिल पाती है. इसीलिए यह कहा जाता है कि दूसरों के लिए हो, न हो, कलाएं और साहित्य, स्वयं उनके रचनाकारों के लिए, ‘दूसरा जीवन’ होते हैं.

यह बात इधर इसलिए ध्यान में आई कि चित्रकार और कला-चिंतक जगदीश स्वामीनाथन की पिछले महीने पुण्यतिथि पड़ी: उन्हें गए लगभग तीस बरस हो गए. वे अब नहीं हैं पर उनके न होने को अक्सर, बहुत शिद्दत से, महसूस किया जाता है. उनके न होने से कला-जगत में युयुत्सु बौद्धिकता का जो अभाव उत्पन्न हुआ वह आज तक भरा नहीं जा सका है.

स्वामीनाथन ने कला में और कला के बारे में क्रमशः मुक्त सृजन और मुक्त चिंतन किया. अपनी कला को उन्होंने एक तरह से देश और काल दोनों की सीमाओं से मुक्त कर दिया. उनके बिम्ब किसी भी समय के और किसी भी देश में हो सकते थे. यही नहीं उन्होंने कला को इतिहास के बोझ और दबाव से भी मुक्त किया.

स्वामी के सामने यह स्पष्ट था कि कला में परिवर्तन तो होते हैं पर प्रगति नहीं. यह न तो तर्क है, न तथ्य कि आज की कला, उदाहरण के लिए अजंता की कला या मिनिएचर कला से, अधिक विकसित या प्रगतिशील है. आधुनिक भारतीय कला और चिंतन पर पश्चिम का गहरा प्रभाव है. स्वामीनाथन ने इस प्रभाव का बहुत जमकर प्रतिकार और प्रत्याख्यान किया. वे कला को तथाकथित अर्थ ही जकड़बंदी से भी मुक्त समझते थे. अम्बा दास के एक अमूर्त चित्र का अर्थ पूछे जाने पर उन्होंने पूरी बेबाकी से भारत के एक राष्ट्रपति को बताया था कि वह कृति किसी के बारे में नहीं है, वह है और इतना काफ़ी है.

यह भी याद करना चाहिए कि स्वामीनाथ की मुक्ति की धारणा वे दूसरों पर लादने से हमेशा दूर रहे: उनका अपनी मुक्ति में जितना विश्वास था उतना ही दूसरों की मुक्ति में भी. लोक और आदिवासी कलाओं को आधुनिक शहराती कला के समकक्ष रखकर उन्होंने उन कलाओं को ऐतिहासिक पिछड़ेपन के लांछन से मुक्त किया था जो कि भारतीय कला-इतिहास से में एक क्रांतिकारी काम था.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)