कर्नाटक में भाजपा की हार के चर्चे मध्य प्रदेश में क्यों हैं?

मध्य प्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना है. कर्नाटक के चुनावी नतीजों के बाद ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व और राज्य की शिवराज सिंह चौहान सरकार को सत्ता खोने का डर सता रहा है. हालांकि, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के जातीय, सामाजिक और राजनीतिक समीकरण एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न हैं.

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Bhopal: Union Home Minister Rajnath Singh with Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan addresses a press conference on completion of four years of BJP government at the centre, in Bhopal, Thursday, May 31, 2018. (PTI Photo)(PTI5_31_2018_000066B)
शिवराज सिंह चौहान. (फाइल फोटो: पीटीआई)

मध्य प्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना है. कर्नाटक के चुनावी नतीजों के बाद ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व और राज्य की शिवराज सिंह चौहान सरकार को सत्ता खोने का डर सता रहा है. हालांकि, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के जातीय, सामाजिक और राजनीतिक समीकरण एक-दूसरे से पूर्णत: भिन्न हैं.

Bhopal: Union Home Minister Rajnath Singh with Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan addresses a press conference on completion of four years of BJP government at the centre, in Bhopal, Thursday, May 31, 2018. (PTI Photo)(PTI5_31_2018_000066B)
शिवराज सिंह चौहान. (फाइल फोटो: पीटीआई)

भोपाल: हाल ही में आए कर्नाटक के चुनाव परिणामों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मुंह की खानी पड़ी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा, कट्टर हिंदुत्व का लंबा चला अभियान और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों पर स्थानीय मुद्दे हावी रहे, फलस्वरूप 224 सदस्यीय विधानसभा में 135 सीटें जीतकर कांग्रेस ने सत्ता में वापसी कर ली और भाजपा महज 66 सीटों पर सिमट गई.

कांग्रेस की इस प्रचंड जीत ने मध्य प्रदेश में भी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी सत्ता में वापसी की उम्मीदों को बल दिया है. बीते 22 मई को पार्टी के राष्ट्रीय ट्विटर हैंडल से एक ट्वीट में कर्नाटक की ही तर्ज पर मध्य प्रदेश की जनता से भी पांच वादे किए गए और कहा गया, ‘मध्य प्रदेश की जनता से कांग्रेस का वादा… कर्नाटक में हमने वादा निभाया, अब एमपी में निभाएंगे.’

कांग्रेस पार्टी के बढ़े इस मनोबल के बीच, भाजपा के लिए कहा जा रहा है कि कर्नाटक के नतीजों ने मध्य प्रदेश से लेकर केंद्र तक पार्टी नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरें पैदा कर दी हैं. हालांकि, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बीते दिनों कहते नज़र आए थे, ‘ये कर्नाटक-फर्नाटक क्या है? ये मध्यप्रदेश है. यहां हम धूमधाम से जीत का रिकॉर्ड बनाएंगे. उनके (कांग्रेस) पास क्या है, हमारे पास नरेंद्र मोदी हैं. दिन-रात तपने वाले देवदुर्लभ कार्यकर्ता हैं. कांग्रेस कहीं से भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकती. मेरे तरकश में अभी बहुत से तीर हैं.’

मुख्यमंत्री भले ही यह दावे करें लेकिन यह भी कड़वी हक़ीक़त है कि कर्नाटक में भी भाजपा के पास नरेंद्र मोदी थे. कर्नाटक में भी भाजपा कट्टर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के रथ पर सवार थी और मध्य प्रदेश में भी कमोबेश यही स्थिति है. इसलिए प्रश्न उठने लाज़िमी हैं कि क्या कर्नाटक के नतीजे मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए चिंता का विषय हैं और वह मध्य प्रदेश के चुनावों पर कितना असर डाल सकते हैं?

मध्य प्रदेश के राजनीतिक टिप्पणीकार और पत्रकारिता में अध्यापन कार्य से जुड़े जयंत सिंह तोमर कहते हैं, ‘इन नतीजों से कांग्रेस राज्य में उत्साहित और एकजुट हुई है. वहीं, भाजपा में हर दिन कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है जिससे उसमें बिखराव दिखाई दे रहा है, चाहे वो भाजपा नेताओं का कांग्रेस में शामिल होना हो या सागर ज़िले के कुछ मंत्री और विधायकों का असंतुष्ट होकर मुख्यमंत्री के पास पहुंचना हो या सिंधिया फैक्टर हो (कि कांग्रेस तो उन्हें घेर ही रही है, लेकिन भाजपा के अंदर भी लोग चाहते हैं कि धीरे-धीरे उनका स्वत: ही पराभव हो जाए).’

वे आगे कहते हैं, ‘शिवराज भी डगमगाए हुए हैं क्योंकि हर तरफ से उन पर आक्रमण हो रहा है, फिर चाहे पूर्व मंत्री अजय विश्नोई हों या भंवर सिंह शेखावत. वहीं, मालवा में जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) अपना प्रभाव बनाने की कोशिश कर रहा है, कितना बनाएगा, ये तो कह नहीं सकते लेकिन कुछ सीटों पर प्रभाव जरूर डालेंगे.’

वे आगे कहते हैं, ‘विंध्य में भी भाजपा में असंतोष है कि इतनी अधिक सीटें आने के बाद भी मंत्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला. इन सभी वजहों से भाजपा में थोड़ी सी ऊहापोह और बिखराव की स्थिति है. हालांकि, भाजपा में यह सब पहले से जारी है लेकिन कर्नाटक नतीजों ने आग में घी का काम किया है और कांग्रेस के उत्साह में वृद्धि करके भाजपा के लिए एक और नई चुनौती खड़ी की है.’

कुछ ऐसा ही प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिंदुस्तानी सोचते हैं. उनका कहना है, ‘कर्नाटक के नतीजे प्रत्यक्ष रूप से मध्य प्रदेश की राजनीति पर कोई असर नहीं डालते हैं, लेकिन दोनों मुख्य दलों के मनोबल को जरूर प्रभावित करते हैं. इस अवधारणा से काफी फ़र्क़ पड़ता है. जहां कांग्रेस का मनोबल ऊंचा हुआ है, वहीं भाजपा का मनोबल नीचे गिरा है. भाजपा को लगता था कि उसे कोई हरा नहीं सकता, वह अपराजेय है लेकिन अब यह भावना जागृत हुई है कि हम हार भी सकते हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में प्रदेश के आदिवासी इलाकों का ध्यान रखा गया था. बुरहानपुर, खरगोन, खंडवा और बड़वानी जैसे आदिवासी ज़िलों में राहुल गए. अब इसे कर्नाटक के नज़रिये से देखें तो वहां की 15 आदिवासी सीटों में से भाजपा को एक पर भी जीत नहीं मिली. इसलिए भाजपा को चिंता तो होनी चाहिए.’

बता दें कि 230 सदस्यीय मध्य प्रदेश विधानसभा में 20 फीसदी यानी 47 सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय के लिए आरक्षित हैं. जानकारों के मुताबिक, राज्य की करीब 70 से 80 सीट पर आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव है.

2003 में राज्य में भाजपा की वापसी में आदिवासी वर्ग का अहम योगदान था. अगले दो चुनावों में भी आदिवासी भाजपा के साथ रहा और वह सत्ता में बनी रही. लेकिन, 2018 में पासे पलट गए. 2013 में 31 एसटी सीट जीतने वाली भाजपा 2018 में 16 पर सिमट गई और कांग्रेस की सीटें 15 से बढ़कर 30 हो गईं, जिससे उसने सरकार बना ली.

तब चुनाव में भाजपा ने कुल 109 और कांग्रेस ने 114 सीट जीतीं. हार-जीत का अंतर इतना मामूली था कि यदि आदिवासी मतदाता भाजपा से नहीं छिटकता तो उसकी सरकार बननी तय थी.

इसलिए भाजपा सरकार अब आदिवासी मतदाताओं की अहमियत समझ रही है और बीते करीब दो साल से राज्य में भाजपा की राजनीति आदिवासी केंद्रित हो गई है. केंद्रीय राजनीति के सबसे बड़े तीन स्तंभ प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति इस दौरान आदिवासियों से जुड़े समारोहों में शरीक़ हुए हैं.

जानकारों का तो यह तक मानना है कि भाजपा का एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाना भी, देश भर के आदिवासियों को रिझाने के लिए उठाया गया क़दम था. इसके बावजूद भी कर्नाटक में सभी आदिवासी सीटों पर पार्टी की हार सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले राज्य मध्य प्रदेश में स्वाभाविक तौर पर उसकी चिंता बढ़ाने वाली हो सकती है.

मध्य प्रदेश में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान की एक तस्वीर. उनके साथ यात्रा में शामिल हुए (बाएं से) जीतू पटवारी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और अरुण यादव. (फोटो साभार: फेसबुक)

हालांकि, प्रकाश हिंदुस्तानी साथ ही कहते हैं कि आगामी चुनाव में अगर भाजपा हारेगी तो ख़ुद के कारणों से हारेगी, कांग्रेस की ताकत नहीं कि उसे हरा पाए.

लेकिन,  कांग्रेस की ताकत के संबंध में राज्य के राजनीतिक विश्लेषक लोकेंद्र सिंह एक अहम बात कहते हैं. वे कहते हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि कहीं न कहीं कांग्रेस को मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है. पार्टी में ऊर्जा और उत्साह का संचार हुआ है और वह लगकर काम कर पाएंगे. इस लिहाज से कांग्रेस लाभ में है.’

लोकेंद्र बताते हैं कि कांग्रेस के बड़े नेता ज़मीन पर जा-जाकर कार्यकर्ताओं को मना रहे हैं, एकजुट कर रहे हैं. दिग्विजय सिंह लगातार मंडल स्तर पर बैठकें ले रहे हैं और पार्टी में समन्वय का काम कर रहे हैं लेकिन यह कवायद भाजपा में अब तक शुरू नहीं हुई है, जबकि यह काम करने की भाजपा को ज्यादा जरूरत है क्योंकि उसके नेता-कार्यकर्ताओं में अधिक नाराजगी है, पार्टी में नेताओं और कार्यकर्ताओं की संख्या अधिक है, टिकट के दावेदारों की संख्या अधिक है, इस लिहाज से भाजपा को ज़मीन पर समन्वय का काम शुरू कर देना चाहिए था. लेकिन, कांग्रेस ने शुरू कर दिया और अब कार्यकर्ताओं में ऊर्जा फूंकने के लिए कांग्रेस के पास देने के लिए कर्नाटक का उदाहरण भी है, जो कहीं न कहीं कार्यकर्ताओं को मध्य प्रदेश में भी जीत के लिए जोर लगाने का जज़्बा देगा.

वरिष्ठ पत्रकार शम्स उर रहमान अलवी मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर की बात करते हुए कहते हैं कि कर्नाटक में भाजपा की हार से मध्य प्रदेश में भी उम्मीद जागी है कि यहां भी मामा (शिवराज सिंह) का चेहरा बहुत पुराना हो गया है.

वे कहते हैं, ‘कर्नाटक के नतीजों के बाद हुआ ये है कि कांग्रेस के कैडर में एक उम्मीद जागी है और भाजपा में एक आंतरिक भावना आई होगी कि जनता नाराज हो रही है और वह मध्य प्रदेश में भी कह सकती है कि बहुत हो गया मामा जी का चेहरा.’

कर्नाटक के नतीजे मध्य प्रदेश पर कोई प्रत्यक्ष असर नहीं डालते हैं

हालांकि, प्रदेश की एक वरिष्ठ महिला पत्रकार का कहना है कि किसी भी राज्य का चुनाव किसी अन्य राज्य के चुनाव पर समान्यत: असर नहीं डालता है. वह नाम न छापने की शर्त पर कहती हैं, ‘लोकसभा चुनावों में तो देश भर में कोई एक नैरेटिव चल सकता है लेकिन विधानसभा चुनावों में नहीं चल पाता है. कर्नाटक एक दक्षिण भारतीय राज्य है, जहां की परिस्थितियां, हालात, अर्थव्यवस्था और लोगों का मिज़ाज, उनकी समस्याएं मध्य प्रदेश से जुदा हैं. हालांकि मूलभूत समस्याएं हर जगह लगभग समान होती हैं- जैसे कि रोजगार, इंफ्रास्ट्रक्चर. लेकिन, मिज़ाज लोगों का अलग होता है. राजस्थान की तरह ही कर्नाटक के लोग हर पांच साल में सरकार बदल देते हैं, जबकि मध्य प्रदेश का कल्चर रहा है कि यहां लंबे समय तक एक ही पार्टी की सरकार शासन करती रही हैं. पहले कांग्रेस ने किया, अब भाजपा कर रही है.’

वे आगे कहती हैं, ‘दोनों राज्यों के चुनाव बहुत अलग हैं. मध्य प्रदेश, उत्तर भारत यानी हिंदी बेल्ट का अभिन्न अंग है. यहां के लोगों का सोचना और वहां के लोगों का सोचना बहुत अलग है. यहां के जातीय-धार्मिक समीकरण और धर्म व राष्ट्रवाद को लेकर लोगों का दृष्टिकोण ही अलग है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि कर्नाटक चुनाव का सीधा असर मध्य प्रदेश पर पड़ेगा.’

लोकेंद्र भी ऐसा कहते हैं, ‘कर्नाटक के चुनाव परिणाम स्वाभाविक तौर पर मध्य प्रदेश पर ऐसा कोई खास असर नहीं डालने वाले. दोनों जगह के मुद्दे और राजनीतिक एवं जातीय समीकरण और परिस्थितियां अलग हैं. वहां तीन मुख्य राजनीतिक दल थे, जिनमें से एक दल (जेडीएस) के एकदम कमजोर होने के चलते उसका वोट बैंक पूरी तरह कांग्रेस की तरफ शिफ्ट कर गया, जिससे भाजपा को नुकसान हुआ. भाजपा का वोट बैंक भले ही यथावत रहा, लेकिन दूसरी पार्टी का वोट बैंक कांग्रेस में शिफ्ट हो गया तो उसने वहां अच्छी जीत हासिल कर ली.’

शम्स भी कहते हैं कि कर्नाटक ने भाजपा को धक्का भले ही दिया है लेकिन उनका वोट कम नहीं हुआ है, बल्कि कांग्रेस का बढ़ा है. कर्नाटक में मुकाबला भी त्रिकोणीय  था, मध्य प्रदेश में ऐसा नहीं है.

अगर आंकड़ों की जुबानी देखें तो वर्ष 2008 से कर्नाटक के विधानसभा चुनाव मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों से कुछ माह पहले आयोजित होते आए हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में जो भी नतीजे आते हैं वे कर्नाटक के नतीजों से पूरी तरह भिन्न होते हैं. मसलन, 2008 में कर्नाटक में भाजपा 110 सीटें जीतकर बहुमत से दूर रह गई थी और कांग्रेस को 80 एवं जनता दल (सेक्युलर) को 28 सीटें मिली थीं, वहीं कुछ माह बाद मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 143 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत पाया था और कांग्रेस को 71 सीट पर संतोष करना पड़ा था.

2013 में, कर्नाटक में भाजपा को महज 40 सीट मिलीं (जिसका एक कारण बीएस येदियुरप्पा द्वारा पार्टी से अलग होकर अपना नया राजनीतिक दल बना लेना था) और कांग्रेस ने 122 सीट जीतकर सरकार बना ली थी, लेकिन मध्य प्रदेश में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था और वह केवल 58 सीट जीत सकी. तब मध्य प्रदेश में भाजपा ने रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन करते हुए 165 सीटें जीती थीं.  2018 की बात करें तो कर्नाटक में जहां भाजपा सबसे बड़ा दल बनकर उभरा था, तो वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस सबसे बड़ा दल था और इसने सरकार भी बनाई.

गौरतलब है कि 2013 में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ व्यापमं घोटाला, डंपर घोटाला एवं नर्मदा में जल सत्याग्रह और 2018 में मंदसौर गोलीकांड जैसे बड़े मुद्दे काम कर रहे थे, फिर भी पार्टी ने कर्नाटक के नतीजों से प्रभावित हुए बिना सरकार बनाई थी. इस बार ऐसा कोई बड़ा मुद्दा शिवराज सरकार को चुनौती देता नज़र नहीं आ रहा है.

इसलिए वरिष्ठ महिला पत्रकार भी दोहराती हैं, ‘कर्नाटक के नतीजों का असर सिर्फ दोनों दलों के कैडर के मनोबल पर पड़ेगा. कांग्रेस को अच्छा लगेगा कि एक बड़े राज्य में बड़ी जीत मिली है, जिससे वे लगकर काम करेंगे.  वहीं, भाजपा के मनोबल को धक्का पहुंचता है कि कर्नाटक में हमने- सांप्रदायिकता, मोदी, राष्ट्रवाद- सब किया, फिर भी हार गए.  इसलिए घबराहट तो भाजपा के अंदर बढ़ ही गई होगी. शायद इसी घबराहट के बढ़ने के चलते भाजपा के अंदरुनी झगड़ों की खबरें बाहर आने लगी हैं, जो कि ऐसा पहले कभी नहीं होता था.’

कांग्रेस का मनोबल बढ़ने की बार-बार उठती बात का एक उदाहरण बीते दिनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह के उस बयान में भी दिखा, जब वे बोले, ‘पहले हमें 126-130 सीट जीतने की उम्मीद थी, अब हम 140-150 सीट जीतेंगे.’

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद 13 मई को मध्य प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की मौजूदगी में जीत का जश्न मनाया गया. (फोटो साभार: ट्विटर)

क्या मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का चेहरा मध्य प्रदेश के मामले में निर्णायक होगा?

कर्नाटक में भाजपा ने करीब साढ़े तीन साल सरकार चलाई, जिसमें दो मुख्यमंत्री रहे- बीएस येदियुरप्पा और बसवराज बोम्मई. यानी कि वहां कहीं न कहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जैसा कोई स्थायी और हर वर्ग के बीच लोकप्रिय चेहरा नहीं था. मध्य प्रदेश में ‘मामा’ नाम से प्रचलित शिवराज का होना दोनों राज्यों में बड़ा अंतर पैदा करता है. हालांकि, प्रकाश हिंदुस्तानी की राय अलग है. वे कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में भी कोई चेहरा नहीं है, कर्नाटक की तरह ही यहां भी चेहरा मोदी ही हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘शिवराज सिंह के हर भाषण, हर घोषणा और हर योजना में मोदी का कई-कई बार जिक्र होता है. वे मोदी के नाम पर वोट मांगते हैं. पहले ऐसा नहीं था. शिवराज स्वयं को मोदी की शरण में धकेलकर मोदीमय हो गए हैं.’

प्रकाश हिंदुस्तानी का कहना काफी हद तक तार्किक भी नजर आता है, क्योंकि जब से ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस के साथ बगावत के बाद से शिवराज के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई है, तब से शिवराज बदले-बदले से हैं. एक समय स्वयं प्रधानमंत्री पद के दावेदार शिवराज अब मानो मोदी के एहसानमंद नज़र आते हैं.

बहरहाल, द वायर से बात करने वाले विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि भले ही भाजपा का मनोबल कर्नाटक के नतीजों से गिरा हो लेकिन इससे शिवराज को यह फायदा हुआ है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अब राज्य में नेतृत्व परिवर्तन या यूं कहें कि उनके विकल्प पर विचार नहीं करेगा.

वहीं, राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने सत्ता-संगठन में बदलाव के फॉर्मूले आजमाए थे, कई विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटे थे, उम्र संबंधी नियम एवं अन्य प्रयोग किए थे, अब वह मध्य प्रदेश में ऐसा कुछ करने से कतराएगी. इस पर विश्लेषकों की राय में मतभिन्नता है.

जयंत सिंह, शम्स और प्रकाश हिंदुस्तानी का मानना है कि अब भाजपा के भीतर मध्य प्रदेश में नए प्रयोग या बदलाव करने को लेकर एक हिचक होगी. वहीं, लोकेंद्र कहते हैं, ‘अगर विधायक-मंत्रियों का प्रदर्शन खराब है तो टिकट तो काटने ही पड़ेंगे.’ इस संबंध में उक्त महिला पत्रकार कहती हैं, ‘भाजपा में टिकट तो कटने ही हैं, बहुत कटने हैं… 18 साल की बहुत लंबी सत्ता विरोधी लहर जो है भाजपा के ख़िलाफ़. उन्हें काटना ही पड़ेगा. उनकी मजबूरी है. अगर ज़मीनी स्तर का सर्वे बोलता है कि उक्त विधायक के ख़िलाफ़ गुस्सा है तो उसे कैसे टिकट दे सकते हैं? कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहेगा कि वहां हार गए, इसलिए यहां किसी का टिकट न काटें.’