केंद्र सरकार के ‘सेंगोल’ को आज़ादी के समय सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बताने के दावे में कई झोल हैं

नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में दावा किया है कि 'सेंगोल' नामक स्वर्ण राजदंड 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था. हालांकि, ऐतिहासिक प्रमाण इसकी पुष्टि नहीं करते.

सेंगोल. (फोटो: ddnews.gov.in)

नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में दावा किया है कि ‘सेंगोल’ नामक स्वर्ण राजदंड 15 अगस्त, 1947 को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था. हालांकि, ऐतिहासिक प्रमाण इसकी पुष्टि नहीं करते.

सेंगोल. (फोटो: ddnews.gov.in)

नई दिल्ली: सेंगोल, एक स्वर्ण राजदंड जिसके बारे में हाल ही में नरेंद्र मोदी सरकार ने दावा किया है कि वह 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसरॉय द्वारा भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया गया था, कांग्रेस और भाजपा के बीच विवाद का ताजा मुद्दा बन गया है.

दो दिन पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 28 मई 2023 को प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन किए जाने वाले नए संसद भवन में स्थापित होने वाले सेंगोल के महत्व को समझाने के लिए प्रेस को जानकारी दी थी.

उन्होंने एक कार्यसूची (डॉकेट) प्रस्तुत की थी, जिसमें तमिलनाडु स्थित थिरुवदुथुरै अधीनम मठ के पुजारियों द्वारा राजदंड को सुपुर्द करने की रस्म का वर्णन किया गया था, जो वास्तव में सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक है.

आयोजन का सरकारी संस्करण इस प्रकार है: माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा कि क्या कोई अनुष्ठान है जो सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक हो. बदले में नेहरू ने सी. राजगोपालाचारी से परामर्श किया, जिन्होंने चोल वंश की प्रथा के अनुसार एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए एक राजदंड सौंपने की सिफारिश की. राजाजी ने अधीनम के पुरोहितों को राजदंड के उद्गम का काम सौंपा, जिसके बाद बहुप्रतीक्षित राजदंड को अंतत: पहले माउंटबेटन और अंत में नेहरू को सौंपने के लिए नई दिल्ली भेजा गया था.

तब से राजदंड इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया है.

हालांकि, जब से गृहमंत्री ने ये दावे किए कई समाचार आउटलेट्स सरकार के दावों का समर्थन करने के लिए हल्के-फुल्के प्रमाण प्रस्तुत करने लगे. अधिकांश ने कहा कि मठ के पुजारियों द्वारा उपहार में दिया गया राजदंड सत्ता के हस्तांतरण के दौरान होने वाले कई अनुष्ठानों का एक हिस्सा था, लेकिन किसी ने भी यह संकेत नहीं दिया कि यह उस ‘सत्ता के हस्तांतरण’ को पवित्रीकृत करने या प्रतीकात्मक बनाने के लिए आयोजित एक विशेष समारोह था, जो पहले ही ब्रिटेन की संसद के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम-1947 द्वारा स्वीकृत की जा चुकी थी और जिसे 18 जुलाई 1947 को रॉयल स्वीकृति प्राप्त हुई थी.

रिपोर्ट्स का हवाला लेते हुए, कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता जयराम रमेश ने केंद्र सरकार के कथित रूप से किए गए दावों पर हमला करते हुए ट्वीट किया. रमेश ने कहा, ‘क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि नई संसद को वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के झूठे नैरेटिव के साथ स्थापित किया जा रहा है? अधिकतम दावों, न्यूनतम साक्ष्यों के साथ भाजपा/आरएसएस के ढोंगियों का एक बार फिर से पर्दाफाश हो गया है.’

उन्होंने कहा कि राजदंड की परिकल्पना अधीनम मठ द्वारा की गई थी और अगस्त 1947 में यह नेहरू को भेंट किया गया था, ‘माउंटबेटन, राजाजी और नेहरू द्वारा इस राजदंड को भारत में ब्रिटिश सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में वर्णित करने का कोई दस्तावेजी साक्ष्य नहीं है.’

रमेश ने इस संबंध में किए गए दावों को बोगस और वॉट्सऐप फॉरवर्ड (फर्जी जानकारी) बताया. उन्होंने कहा कि राजदंड का इस्तेमाल प्रधानमंत्री और उनके गुण गाने वालों द्वारा तमिलनाडु में अपने राजनीतिक मकसद के लिए किया जा रहा है.

रमेश 25 मई 2023 को चेन्नई में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा की गई प्रेस वार्ता पर प्रतिक्रिया दे रहे थे, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि नए संसद भवन में ऐतिहासिक राजदंड की स्थापना तमिलनाडु के लिए गर्व की बात है.

इस पर, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जल्द ही प्रतिक्रिया दी और आरोप लगाया कि राजदंड की पवित्रता पर सवाल उठाकर ‘कांग्रेस ने शैव मठ अधीनम का शर्मनाक तौर पर अपमान’ किया है.

हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि केंद्र सरकार के दावों को साबित करने वाले प्रमाण कितने कमजोर या ठोस हैं.

द हिंदू ने बताया कि हालांकि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि तेवारम के स्तुति गायन के साथ अधीनम मठ के प्रतिनिधिमंडल द्वारा नेहरू को राजदंड उपहार में दिया गया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है जो यह बताता हो कि इस अनुष्ठान को नेहरू या माउंटबेटन द्वारा सत्ता के हस्तांतरण के तौर पर देखा गया था.

सेंगोल को संसद में कहां रखा जाएगा, यह दिखाता एक ग्राफिक. (फोटो साभार: Twitter/Amit Shah)

प्रेस को दिए गए सरकार के अपने ही डॉकेट में इसके खुद के दावों का समर्थन करने वाले प्रमाण कमजोर हैं.

द हिंदू ने बताया कि उसके 11 अगस्त 1947 के संस्करण में चेन्नई के सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर राजदंड के साथ दिल्ली की यात्रा कर रहे मठ के प्रतिनिधिमंडल की एक तस्वीर है, जो इस ओर इशारा करती है कि राजदंड हवाई मार्ग से दिल्ली नहीं पहुंचा था, जैसा कि सरकार का दावा है.

इसके अलावा, अधिकांश ऐतिहासिक स्रोतों में भी नेहरू को कहीं भी सत्ता के हस्तांतरण को चिह्नित करने के लिए किसी महत्वपूर्ण समारोह में राजदंड की सुपुर्दगी लेते नहीं दिखाया गया है. 25 अगस्त 1947 को ‘टाइम’ पत्रिका ने भारतीय स्वतंत्रता के जश्न के बारे में एक विवरणात्मक लेख लिखा था, जिसमें नेहरू को स्वर्ण राजदंड सौंपे जाने का जिक्र तो है लेकिन यह विवरण कहीं नहीं है कि यह ‘सत्ता के हस्तांतरण’ के रूप में सौंपा गया था. साथ ही, इसमें राजदंड संन्यासियों द्वारा सौंपे जाने की बात है.

लेख के वर्णन से पता चलता है कि राजदंड सौंपना उन कई समान उपहारों में से एक था जो नेहरू को सत्ता हस्तांतरण के दौरान कई प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात के दौरान मिले होंगे- सरकार के इस दावे कि राजदंड पहले माउंटबेटन को दिया गया था और फिर गंगा जल से शुद्धिकरण के बाद नेहरू को सौंपे जाने के लिए उनसे वापस ले लिया गया था, कोई लेकर कोई इशारा नहीं मिलता है .

द न्यूज मिनट ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर ‘राजदंड सौंपना एकमात्र धार्मिक अनुष्ठान नहीं था जिसमें नेहरू ने भाग लिया था.’ लेख में डीएफ कराका की किताब ‘बिट्रेयल इन इंडिया’ (Betrayal in India) के हवाले से कहा गया है कि ‘नेहरू धार्मिक समारोहों के लिए तैयार हो गए क्योंकि स्वतंत्रता करीब आ गई थी और उन्होंने धार्मिक पंडितों का आशीर्वाद लेने की सहमति दे दी.’

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नई दिल्ली स्थित उद्यान में वैदिक संस्कारों के अनुसार एक पवित्र अग्नि की प्राणप्रतिष्ठा की गई. वहां उपस्थित विद्वान सदस्यों ने अग्नि की परिक्रमा की, एक ब्राह्मण ने जल की कुछ बूंदें सभी पर छिड़कीं, और एक महिला ने उनके माथे पर कुमकुम से बिंदी लगाई. कराका ने उल्लेख किया है कि संविधान सभा के विशेष मध्यरात्रि सत्र में प्रवेश करने से पहले नेहरू सहित सभी मंत्री और संविधान निर्माता इस अनुष्ठान का हिस्सा थे.’

यहां तक कि सरकार द्वारा अपनी डॉकेट में साझा किए गए अखबारों के लेख भी राजदंड को कोई आधिकारिक महत्व नहीं देते हैं. बल्कि, उन सभी में संतों द्वारा शालीन भाव से नेहरू को अधीनम द्वारा उपहार के तौर पर सेंगोल देने की बात कही गई है.

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार आरएसएस के विचारक एस. गुरुमूर्ति द्वारा उनकी अपनी तमिल भाषी पत्रिका ‘तुगलक’ में लिखे गए 2021 के एक लेख को आधार बना रही है. यह पत्रिका हिंदू दक्षिणपंथी विचारों के लिए भी जानी जाती है.

गुरुमूर्ति ने भी इसी तरह के दावे किए थे जो सरकार ने कुछ दिनों पहले किए हैं. उन्होंने श्री कांची कामकोटि पीठम के 68वें प्रमुख श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती द्वारा 1978 में अपने एक शिष्य के साथ साझा की गई स्मृति को अपने दावे का आधार बनाया था.

सरकारी डॉकेट में प्रसिद्ध तमिल लेखक जयमोहन द्वारा लिखित ‘वॉट्सऐप हिस्ट्री’ नामक एक ब्लॉग पोस्ट भी शामिल है, जो सरकार द्वारा प्रस्तुत विवरण का उपहास उड़ाती है. यह स्पष्ट नहीं है कि डॉकेट में जयमोहन का वह लेख क्यों प्रकाशित किया गया जो सरकार के अपने दावों का खंडन करता है.

डॉकेट तमिलनाडु के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के 2021-22 के वार्षिक नीति नोट का भी हवाला देता है, जिसमें कहा गया है कि राजदंड सत्ता के हस्तांतरण को दर्शाता है. हालांकि, द हिंदू ने बताया है कि यह संदर्भ 2022-23 और 2023-24 के नीति नोटों से हटा दिया गया था.

द न्यूज मिनट की रिपोर्ट में कहा गया है कि यास्मीन खान की किताब ‘द ग्रेट पार्टीशन’ में उल्लेख है कि राजदंड का हस्तांतरण ‘निजी आवास पर जश्न के हिस्से के रूप में हुआ था, न कि एक आधिकारिक समारोह के रूप में.’

कोई ऐतिहासिक स्रोत इस बात की पुष्टि नहीं करता है कि राजदंड सौंपा जाना एक आधिकारिक समारोह था, इसलिए सरकार के दावे निश्चित तौर पर संदिग्ध हैं. न तो माउंटबेटन की ओर से और न ही राजाजी और नेहरू समेत भारत के संस्थापक जनों द्वारा सत्ता के हस्तांतरण के दस्तावेजों में से कोई भी राजदंड को एक बधाई की रस्म से अधिक महत्वपूर्ण के रूप में उद्धृत नहीं करता है.

द वायर  से बात करते हुए इतिहासकार माधवन के. पलट, जो सलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू’ के भी संपादक हैं, ने कहा, ‘जो एक व्यक्ति को समझना चाहिए वह यह है कि सत्ता के हस्तांतरण के समय भारत एक उपनिवेश था. जनवरी 1950 में भारत के स्वयं को संप्रभु घोषित करने तक यह ऐसा ही बना रहा. 1947 में सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, संप्रभुता का नहीं. इसका कोई अर्थ नहीं है कि शाही राजदंड को संवैधानिक रूप से सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया था.’

बीबीसी हिंदी के साथ अपने साक्षात्कार में पलट ने सरकार के दावों का समर्थन करने वाले रिकॉर्ड की कमी की ओर इशारा किया. उन्होंने कहा, ‘अगर माउंटबेटेन ने नेहरू को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर ये सौंपा होता, तो इसका पूरा प्रचार भी किया जाता. सत्ता हस्तांतरण के बारे में सभी तस्वीरों में भी ये होता, क्योंकि इस तरह के प्रचार का अंग्रेज़ बहुत ख़्याल रखते थे. सेंगोल ताजपोशी के दौरान क्वीन के राजदंड जैसा है और वे इसको प्रचारित करना पसंद करते. मुझे नहीं लगता कि माउंटबेटन ने इसे नेहरू को दिया था.’

उन्होंने कहा, ‘दूसरी बात है कि नेहरू औपनिवेशिक देश की ओर से सत्ता के ऐसे किसी प्रतीक को कभी स्वीकार नहीं करते. ये प्रतीकवाद ग़लत है. उन्होंने सीधे केवल भारत की जनता, संविधान सभा, संविधान या इसके समकक्ष किसी संस्था से ही सत्ता को स्वीकार किया होगा.’

प्रोफ़ेसर पलट ने कहा, ‘प्रतीक के रूप में नेहरू ने वायसरॉय से इसे नहीं लिया होगा. माउंटबेटन को गवर्नर जनरल बने रहने के लिए कहना एक बात है, लेकिन नेहरू ने प्रतीक के रूप में जिस अंतिम बात की इजाज़त दी होगी, वो इसी किस्म की रही होगी.’

प्रोफ़ेसर पलट स्वीकार करते हैं कि संभव है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने किसी तरह का एक उपहार स्वीकार किया हो, लेकिन सत्ता हस्तांतरण का नहीं. सत्ता के प्रतीक के तौर पर तो नहीं, बिल्कुल भी नहीं.

उन्होंने कहा, ‘इस मठ का मुखिया या उसका प्रतिनिधि कौन था जो नेहरू को सत्ता के प्रतीक के तौर पर कुछ भी सौंपता? उसका लोकतांत्रिक अधिकार क्या था? कुछ भी नहीं. अगर ये वाक़ई सत्ता हस्तांतरण था तो इसके कुछ साक्ष्य होने चाहिए, कुछ रिकॉर्ड या ऐसा ही कुछ होना चाहिए न कि अधीनम (मठ) या एक ज्वैलर के कहे को सच माना जाए. ऐसे महत्वपूर्ण घटनाओं का आधिकारिक रिकॉर्ड होना चाहिए. लेकिन कहीं भी कुछ नहीं है.’

प्रोफ़ेसर पलट ने कहा, ‘अगर सत्ता हस्तांतरण का यह इतना महत्वपूर्ण प्रतीक है तो ये इलाहाबाद म्यूज़ियम में क्यों रख छोड़ा गया था और इसे बाहर आने में 75 साल क्यों लगे?’

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)