कुमार गंधर्व पर ध्रुव शुक्ल द्वारा लिखित ‘वा घर सबसे न्यारा’ संभवतः पहली ऐसी हिंदी किताब है जो उनके जीवन, गायकी, परंपरा और संपूर्ण व्यक्तित्व की बात एक जुदा अंदाज़ में करती है.
बहुत पुरानी बात है शायद 1978 की, देवास के महाराष्ट्र समाज में गणपति उत्सव के तहत कई प्रकार के कार्यक्रम होते थे, हम रोज बड़े चाव से जाते और सब कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते. एक दिन किसी का शास्त्रीय गायन था, बहुत देर तक हम मंच पर श्वेत वस्त्र पहने गंभीर, सुशील और सौम्य व्यक्तित्व को देखते रहे- जो अपने सह कलाकारों का सितार मिला रहा था और फिर बड़ी देर बाद उसने आलाप लेना शुरू किया, थोड़ी देर तक सा रे गामा, आ आ ई ई चलता रहा और जब कुछ राग नुमा शुरू किया तो मै हॉल के बाहर हो गया- लगा कि क्या गा रहा है बंदा समझ नहीं आया.
पर कालांतर में धीरे-धीरे संगीत के कार्यक्रमों में लगातार जाने से और छत्रपति शिवाजी मंडल के गणेशोत्सव, महाराष्ट्र समाज के कोजागरी उत्सव आदि में संगीत की महफ़िलें जमती थी. जो बड़े नाम हम लोग तब अखबारों में पढ़ते थे वे साक्षात मंच पर दिखाई देते थे- इसमें बिस्मिल्लाह खान, शोभा गुर्टू, भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, जाकिर हुसैन, किशोरी अमोणकर, रोनू मजुमदार आदि और आज यकीन करना मुश्किल है कि देवास जैसे कस्बे में ये सब हस्तियां अपना जलवा बिखेर चुकी हैं और दशकों पहले और मैंने सबको देखा सुना है.
इस सबका एक कारण था कुमार जी- कुमार जी यानी पंडित कुमार गंधर्व- भारतीय शास्त्रीय संगीत की मनीषा और अप्रतिम व्यक्तित्व.
हम सब जानते है कि कर्नाटक से यक्ष्मा से पीड़ित होकर वे मालवे में हवा बदलाव के लिए आए थे और फिर सदा के लिए यही के होकर रह गए. बीमारी के दौरान उन्होंने मालवा की वाचिक परंपरा में स्थानीय समुदाय के लोगों से लोकशैली में कबीर को सुना और फिर कुछ ऐसे गुना और बुना कि कबीर गायकी के वे आधार स्तंभ बन गए और दुनिया को कबीर के व्यवहारिक पक्ष से लेकर आध्यात्म को सिखाया, नए रागों की रचना की और शास्त्रीयता को चरम स्थिति तक पहुंचाया. आज कुमार गंधर्व शास्त्री संगीत की परंपरा में एक बड़ा नाम है और उनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है.
मालवा की चौकड़ी में अपने-अपने फन में माहिर और उस्ताद राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर, बाबा डीके और कुमार जी थे- जिन्होंने इस क्षेत्र में बहुत बड़ा काम किया, इन चारों मित्रों ने लोक के साथ जुड़कर यदि मै कहूं कि लोगों को पढ़ने-लिखने की समझ से लेकर कला, नाटक और संगीत की समझ पैदा की तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
एक एंबेसेडर में कुमार जी इंदौर जाते और अपने मित्रों के साथ नई दुनिया के पुराने दफ्तर में बैठते, चारों मित्र बैठकर खूब ठहाके लगाते, बातें करते और अपने कामों को कैसे बेहतर करें इस पर बात करते. देवास की हर गली-मोहल्ले में उनका तांगा घूमा करता और सबसे बड़े प्रेम से मिलते, उनके घर पर रियाज के समय के अलावा मित्रों और मुरीदों का हमेशा तांता लगा रहता और हमें इसी बहाने से बड़े संगीतकारों से मिलने का मौका मिलता.
स्वर्गीय नईम जी भी जाकर बैठते और फिर दोनों में जो उच्चारण से लेकर कबीर, रैदास, सूरदास आदि से लेकर सूफी और भक्तिकालीन कवियों पर बहस होती वह अनूठी होती. कुमार जी ने कई रचनाएं स्वयं लिखी और मालवा की लोकशैली में गाई जो आज किसी के लिए दोहरा पाना मुश्किल है.
देवास शहर की ख्याति इस बड़े गायक से थी यह कहने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं- अपने काम के सिलसिले में मैं जब भी बाहर जाता हूं तो देवास को लोग न जानते हो, पर जब कुमार गंधर्व का जिक्र करता हूं तो एकदम पहचान जाते है कि ‘अरे वो उड़ जाएगा हंस अकेला, या माया महाठगिनी, या गुरुजी मै तो एक निरंतर ध्याऊं जी या सुनता है गुरु ज्ञानी वाले कुमार जी का शहर.’
देश-विदेश तो है ही है पर मालवा के देवास, इंदौर, उज्जैन, भोपाल, शाजापुर, रतलाम या किसी दूरस्थ गांव में हर आदमी के पास कुमार जी के ढेरों किस्से है और आज भी उनके नाम पर कोई आयोजन हो तो लोग दूर-दूर से सुनने चले आते है. बड़े कलाकार यहां जब मंच पर होते है तो बहुत सतर्क होकर गाते या बजाते है- क्योकि यहां का श्रोता कुमार जी के संगीत से दीक्षित है और थोड़ी-सी भी गलती बर्दाश्त नहीं करता- तुरंत पकड़ लेता है और खड़े होकर बोल देता है पूरी विनम्रता से और निश्चित ही इसमें कुमार जी जैसे कालजयी विराट व्यक्तित्व का बहुत बड़ा योगदान है.
आज भी देश दुनिया के लोग उनके घर आते हैं. प्रतिवर्ष 8 एवं 9 अप्रैल को मध्य प्रदेश शासन की उस्ताद अल्लारखा अकादमी आयोजन करती है जिसमें चयनित कलाकार को मप्र शासन द्वारा स्थापित पुरस्कार दिया जाता है. साथ ही उनके घर पर उनकी पुण्यतिथि 12 जनवरी को निजी आयोजन होता है, जहां शीर्ष कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं.
बाजारवाद ने बहुत कुछ बदला है पर नहीं बदला है तो लोगों द्वारा कलाकारों को सम्मान देने का रिवाज और जब तक कुमार जी या बड़े कलाकारों की साधना जीवित है तब तक यह परंपरा बनी रहेगी.
‘वा घर सबसे न्यारा‘ ध्रुव शुक्ल द्वारा लिखित कुमार जी के जीवन पर लिखी संभवतः हिंदी में पहली पुस्तक है जो उनके जीवन, गायकी, परंपरा और संपूर्ण व्यक्तित्व की बात एक जुदा अंदाज में करती है. सेतु प्रकाशन से कुमार जी के शताब्दी वर्ष में इस किताब का आना हिंदी जगत के लिए कौतुक की बात है.
हिंदी कवि अशोक वाजपेयी ने सही लिखा है कि हिंदी कवि कथाकार ध्रुव शुक्ल ने जो प्रयत्न किया है वह मूल्यवान और कुमार जी के बारे में अब तक जो लिखा पढ़ा गया है, उसमें कुछ नया रोचक और सार्थक जोड़ता है. इस जीवनी में कुमार जी के बारे में पहले से जाना हुआ है, उसे जो कम या बिल्कुल भी नहीं जाना हुआ है- उसे निरंतरता में जोड़कर एक ऐसा वितान चित्रित हुआ है जिसमें कुमार जी के संघर्ष, सौंदर्य बोध, हर्ष और विषाद विफलता है और रसिकता सभी गुंथे हुए हैं. भौतिक समय और संगीत समय की तात्कालिकता, परंपरा के उत्खनन और नवाचार के जोखिम आदि की बहुत रोचक व्याख्याएं है यथास्थान बड़े मार्मिक ढंग से उभरती हैं.
कुमार गंधर्व की जीवन कथा संघर्ष और लालित्य की कथा एक साथ है – उसमें भारतीय आधुनिकता की अपनी कथा भी अंतर्भूत है ध्रुव शुक्ल ने यह जीवनी संवेदना, समझ और भाषा में काव्यात्मक अनुगूंज उद्दीप्त करते हुए बहुत मनोयोग से लिखी है. 200 पृष्ठों में छपी यह किताब 9 अध्यायों में विभक्त है जिसमें कुमार जी के जन्म कथा, संस्कार कथा, साधन कथा, श्वेत श्याम चित्रों की गैलरी, साध्य कथा, संदर्भ और कुमार जी के बारे में तथ्यों के बारे में बात करती है.
इस किताब में सबसे अच्छी बात यह है कि कुमार जी ने जो भजन गाए उन भजनों को यथावत दिया हुआ है, साथ ही उन भजनों को राग में कैसे पिरोया क्यों गया और भजनों के चयन पर उनकी क्या फिलॉसफी थी इस पर भी विस्तृत बातचीत की है. कुमार जी की पत्नी और लगभग हर मंच पर ताउम्र साथ देने वाली वसुंधरा कोमकली, बेटी कलापिनी, सुयोग्य कलाकार और बड़े बेटे मुकुल शिवपुत्र के साथ भी बातचीत और संगीत की रोचक चर्चाओं का ज़िक्र है.
देवास के साथ-साथ उनका वृहन्न मित्र मंडल आदि पर भी लंबी टिप्पणियां है. यह सब इतना जीवंत है और प्रांजल भाषा में लिखा गया है कि आप एक सांस में सब पढ़ जाते हैं क्योंकि ध्रुव शुक्ल ने इस पुस्तक की रचना ही इस तरह की भाषा में की है कि आप सहसा किताब छोड़ नहीं पाते.
रजा फाउंडेशन ने इस पुस्तक को छापा है, पुस्तक का बहुत सुंदर प्रकाशन सेतु प्रकाशन, नोएडा ने किया है. यह पुस्तक पेपरबैक भी उपलब्ध है जिसकी कीमत 250 रुपये है. सिर्फ संगीत प्रेमियों को ही नहीं बल्कि हमारे मूर्धन्य गायकों के स्वभाव, काम और उनकी साधना को समझने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना चाहिए पुस्तक संग्रहणीय और विचारणीय है.
जब होवेगी उमर पूरी…. और हम सबको एक दिन उड़ जाना है, अकेले संत और निर्मोही हंस की तरह सब कुछ और विराट माया महाठगिनी को छोड़कर, कुछ दृश्य है जो आंखों के सामने कौंधते है, आज उनकी स्मृतियों को बहुत सघनता से महसूस करते हुए कोमलता से आरोह अवरोह में खड़ा भीग रहा हूं.
स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका की विभागाध्यक्ष और कबीर की अध्येता प्रोफ़ेसर लिंडा हैज़ अब भी देवास आती हैं, जिनके साथ हम लगभग 30 वर्षों से मालवा में कबीर की वाचिक परंपरा पर काम कर रहें है, कभी शबनम वीरमणि जिन्होंने चार खूबसूरत फिल्में बनाई हैं- कभी आए थे गुणाकर मुळे, या डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल – अभी तक सैकड़ों लोगों को उस द्वारे ले जा चुका हूं, पर अब न शहर रहा- जहां संगीत की स्वर लहरियां बहती थीं, रसधार के साथ सूख गई क्षिप्रा, क्षरित हो रही है टेकड़ी और सुर कर्कश हो गए हैं, शहरों की हवा कलुषित हो गई है कबीर मंडलियां खत्म होकर दर्दनाक दास्तानों में तब्दील हो रही हैं.
अब कोई नहीं कहता या गाता- ‘हिरणा समझ बुझ बन चरना’ और हम देवासवासी अब नहीं सुनते प्रभाती सुबह चार बजे से, जो टेकड़ी पर बजती थी- ‘कुदरत की गत न्यारी या झीनी झीनी चदरिया या भोला मन जाने रे अमर मेरी काया भोला.’
कुछ बरस पहले पंडित जसराज जब उसी मंच से गाने आए और हम लोगों ने शाल ओढ़ाई तो बोले- ‘मां कालिका की गोद में बैठा हूं और यह शाल मेरे पीछे मेरे अवगुणों को ढांक देगी, कुमार का फोटो मुस्कुरा रहा है और जो गाया जसराज ने- ‘माता कालिका भवानी, जगत जननी भवानी.’
उस दिन मंच से वैसा फिर कभी गा नही पाए, इस मंच पर शोभा गुर्टू ने गाया हो, वसंतराव देशपांडे या बिस्मिल्ला खां साहब ने बजाई हो शहनाई या किरण देशपांडे का तबला या किशोरी आमोणकर या यूं कि कोई एक नाम बताओ बाबू साहब जो संगीत के आसमान पर उभरा और यहां दस्तक देकर न गया हो.
हिंदी के बड़े कवि अग्रज अशोक वाजपेयी जी से मुआफी सहित-
‘तुम यहां से चले गए हो
पर
थोड़े नही पूरे के पूरे यही रह गए हो’
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)