रज़ा की कृतियों में आधुनिकता का एकांत है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है. 

पेरिस के सेंटर द पाम्पिदू में रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी. (फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन/फेसबुक पेज)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है.

पेरिस के सेंटर द पाम्पिदू में रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी. (फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन/फेसबुक पेज)

15 मई 2023 को पेरिस के सेंटर पाम्पिदू की गैलरी 4 में सैयद हैदर रज़ा की तीन महीने चलने वाली ऐतिहासिक प्रदर्शनी का आख़िरी दिन था. दोपहर को जब हम वहां पहुंचे तो लगभग एक घंटे की अवधि में चालीस-पचास दर्शक वहां कलाकृतियां देख रहे थे. मुझे लगा कि रज़ा में आधुनिकता की शास्त्रीय आभा है जो आकर्षित करती है. मेरी पत्नी रश्मि, जो मेरे साथ प्रदर्शनी देख रही थीं, ने कहा कि उन्हें लगता है कि रज़ा की कलाकृतियां एक तरह के उदास एकांत की अभिव्यक्ति हैं. यह एकांत आधुनिकता का एकांत है: उसमें तनाव, गहमागहमी है पर अंततः वह एकांत है, अपने साथ, अपनी कला में अपने जीवन की बेचैनी से मानो अपसरण कर पाया गया एकांत.

आधुनिकता को पश्चिम में अब कम से कम दो साल हो गए. उसकी एक लंबी परंपरा बन गई और उसकी अदम्‍य प्रयोगशीलता और नवाचार कई चरणों में निरंतर रही है. रज़ा इस परंपरा में अवस्थित तो हैं पर वे उससे अलग अपनी राह बनाते हैं.

पचास सालों से अधिक पहले रची गई उनकी कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है. यह जानबूझकर केंद्र नहीं हाशिया चुनना है.

इस प्रदर्शनी का एक हासिल मेरे लिए यह भी है कि पहली बार मैंने यह पहचाना कि रज़ा आलोक के, प्रकाश से भी चित्रकार हैं. एक तरह से वे एकांत की उज्ज्वलता के कवि हैं: उनके लिए एकांत भी कला है.

रिल्के रज़ा के प्रिय कवि थे. वे पेरिस में दशकों तक अपने स्टूडियो में काम शुरू करने के पहले रिल्के की कुछ पंक्तियां, फ्रेंच अनुवाद में, मंत्र की तरह, प्रार्थना की तरह दोहराते थे. रिल्के के बुद्ध पर लिखी एक कविता की ये पंक्तियां मुझे रज़ा के चित्रों को देखते हुए याद आईं:

बाहर की ओर एक गरमाहट मदद करती है
क्योंकि ऊंचे, ऊपर ऊंचे
तुम्हारे अपने सूर्य उग रहे हैं
अपरिमित और चक्कर लगाते उद्दीप्त हो रहे हैं
फिर, कुछ है जो शुरू हो रहा है जीवित होना
तुममें जो सूर्यों से अधिक देर तक टिका रहेगा…

रज़ा का बिंदु अंततः सूर्य ही है.

उस शाम एक आभार-भोज में सेंटर के अध्यक्ष ने बताया कि रज़ा की प्रदर्शनी को पचास हज़ार से कहीं अधिक दर्शकों ने देखा है. यह मरणोत्तर उपलब्धि है. उनके जीवनकाल में इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने उनके चित्र कभी नहीं देखे-सराहे.

बारिश में वेनिस

कुछ अरसे पहले ख़बर आई थी कि वेनिस में सूखा पड़ा है और उस शहर की विख्यात नहरों में पानी की कमी इतनी हो गई है कि उनमें गोंडोला नहीं चल पा रहे हैं जो, पैदल गलियों में चलने के अलावा अंदरूनी यातायात का मुख्य माध्यम होते हैं. इस स्थिति के ठीक उलट जब हम एक दिन की एक झटपटिया सैर के लिए वेनिस पहुंचे तो वहां लगातार बारिश हो रही थी, जो पूरे दिन और रात, अगले दिन सुबह हमारे वेनिस छोड़ते समय भी अविरल होती रही थी.

बारिश को असह्य बनाती ठंडी ज़ोरदार हवा चल रही थी जो ठिठुरन भी पैदा कर रही थी. हम पेरिस से एक सस्ती हवाई यात्रा कर वेनिस पहुंचे थे और हमारे पास सामान बहुत कम था पर बारिश इतनी और हवा इतनी तेज़ थी कि वहीं ख़रीदे छाते हमें भीगने से बचाने में कामयाब नहीं हो सके. इतालवी न जानने के कारण होटल तक पहुंचने की कोशिश में कई बार भटके और भीगते रहे. किसी तरह होटल मिला तो उसकी प्रबंधक हमें अपने कमरों में पहुंचाकर शाम पांच बजे ही रात भर के लिए अपने घर चली गई.

रश्मि और मैं तो पहले वेनिस आ और घूम चुके थे. पर मेरी बेटी दूर्वा और नातिन ताविषी के लिए यह दिन बहुत दुर्भाग्य का रहा. कुछ भी नहीं देख पाए. मैं याद तो करता रहा रेनर मारिया रिल्के, एज़रा पाउंडऔर जोसेफ़ ब्राडस्की को, जिनमें से दो की समाधि भी वेनिस में है और पिछली बार हम वहां जा पाए थे. इस बार कहीं जाना बेहद त्रस्तिकर था. फिर भी, हिम्मत कर सेंट मार्क चौक तक गए तो वहां पानी भरा था और लगातार बारिश के कारण वहां लगाए लकड़ी के पट्टों पर चलना दूभर हो रहा था.

ताविषी दो-तीन क्यूरिओ दुकानों में जा पाई. रात के भोजन के लिए ऐसा रेस्तरां चुनना पश्चिम में हमेशा कठिन रहता है जहां कुछ शाकाहारी भोजन मिल जाए. इस बीच एक अच्छी बात यह हुई है कि पेरिस से लेकर वेनिस तक के बहुत सारे रेस्तरांओं में बांग्लादेशी वेटर और रसोइये हैं जिनसे थोड़ी-बहुत हिंदी बोली जा सकती है. सो, एक रेस्तरां चौक के पास ही एक गली में मिल गया. वहां का प्रबंधक बांग्लादेशी था.

क़िस्सा कोताह, हम रात देर गए होटल वापस लौटे. जूते इतने भीग चुके थे कि रात भर में वे सूख नहीं पाए. सुबह जल्दी हम भरपूर बारिश में वाटर टैक्सी लेकर, जो ख़ासी ख़र्चीली साबित हुई, रेलवे स्टेशन तक गए. ट्रेन, प्रत्याशित रूप से साफ़-सुथरी आरामदेह थी और उसमें बैठकर हम रोम के लिए रवाना हो गए.

एक दिन वेनिस में पूरी तरह अकारथ गया और उस अकारथता से कुछ मुक्ति मिली. यों बारिश जीवनदायी होती है पर कभी-कभी वह बहुत मज़ा-बिगाड़ू भी हो सकती है. वेनिस में यही हुआ. वेनिस में नीचे बहता या हिलोरें लेता पानी मनोरम है पर जब सिर पर लगातार बरसने लगता है तो मन बिफर जाता है.

रोम में दो दिन

रोम को लेकर कई कहावतें बरबस याद आती हैं: ‘रोम में वही करो जो रोमन करते हैं’, ‘रोम एक दिन में नहीं बना’. लगभग पांच घंटे के ट्रेन सफर के बाद हम जब रोम के तरमीनी स्टेशन पर उतरे तो मौसम सुहावना था, गुलाबी-सी ठंड थी. संयोग से हमारा होटल स्टेशन से पैदल जा सकने की दूरी पर था. दोपहर के भोजन का समय हो चुका था.

इतावली भोजन संसार भर में विख्यात और लोकप्रिय है हालांकि उसमें टमाटर और पनीर का इस्तेमाल इतना अधिक होता है कि मुझे रुचिकर नहीं लगता. पर शाकाहारियों के लिए उनका मार्गरीटी पिज़्ज़ा आसानी से हर कहीं मिल जाता है.

दो दिनों में रोम को ठीक से देखना संभव नहीं है और आपको सख़्ती और व्यावहारिकता से चुनना पड़ता है कि क्या देखें. रश्मि और बच्चे तो बस में शहर का एक चक्कर लगाने चले गए. मैं नहीं गया क्योंकि मैं दो बार पहले रोम घूम चुका हूं. वेनिस की ऊब और थकान भी पूरी तरह से दूर नहीं हो पाई थी. शाम को होटल के नज़दीक एक चीनी रेस्तरां मिल गया जहां अंग्रेज़ी समझने वाले थे, अंतरंग सुरुचिपूर्ण था और खर्चीला नहीं था. उन्होंने शाकाहारी चीजे़ं भी फुर्ती से बना और परोस दीं.

हमने अगले और आखि़री दिन में कोलेसियम और वेटिकन सिटी जाना तय किया. वाहन व्यवस्था करने में कुछ देर लगी और जब तक हम वहां याने कोलेसियम पहुंचे तो इस अद्भुत स्मारक पर भारी भीड़ थी. यह एक वृत्ताकार जटिल और बहुत ऊंची संरचना है. उसमें बैठकर, हज़ारों की संख्या में, राजसी परिवार, भद्रजन, अधिकारी और सामान्य नागरिक ग्लेडिएटरों के दुस्साहसिक कारनामों से लेकर अपराधियों को दिए गए मृत्युदंड के तहत उन्हें सबके सामने खाए जाने के लिए भूखे शेरों के सामने फेंके जाने के नृशंस कार्य देखते थे.

भव्यता और क्रूरता साथ-साथ और आमोद का कारण थी. याद आया कि चिंतक वॉल्टर बेंजामिन ने कहा था कि सभ्यता का इतिहास, साथ ही, बर्बरता का इतिहास भी है. (There is no document of civilization that is not also a document of barbarism.)

याद आई पोलिश कवि चेष्वाव मीवोष की कविता ‘काम्प्यो द फ़्यूरी’ और उसकी ये पंक्तियां:

यहां इसी चौक पर
ज्योदार्नो ब्रूनो जलाया गया था,
जल्लाद ने चिता की आग जलाई
जिज्ञासु भीड़ से घिरे हुए.
और जैसे ही लपटें शांत हुईं
मधुशालाएं फिर से खचाखच भरी हुई
जैतून और नींबू की टोकनियां
बेचने वाले अपने सिरों पर लिए हुए.

हम वेटिकन सिटी तक पहुंचे तो पहले वहां जितना पैदल चलना था उतना चल पाना हम पति-पत्नी के लिए संभव नहीं था. सो बेटी-नातिन ही गए और हम लौट आए. वे वहां से लौटती हुई इस फव्वारे को भी देखती आईं, जहां यह किंवदंती सक्रिय है कि उसमें सिक्का डालने से मनोकामना पूरी होती है. अगली सुबह हम रोम एयरपोर्ट पर थे जहां सुरक्षा जांच कराते हुए मेरा फोन छूट गया और अब तक वापस नहीं मिला है. इस असावधानी को कोई रोमन भूल क्यों मानेगा?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)