…और सुबह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव

बनारस का ज़िक्र इसकी सुबहों के बिना अधूरा है. जहां शाम-ए-अवध इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार बदलने को मजबूर हुई, सुबह-ए-बनारस जाने कितनी सदियों से वैसी ही है. सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के लगने लगते हैं और चिड़ियों की चहचहाहट सुहागे का काम करती है.

/
(फोटो साभार: thrillophilia.com)

बनारस का ज़िक्र इसकी सुबहों के बिना अधूरा है. जहां शाम-ए-अवध इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार बदलने को मजबूर हुई, सुबह-ए-बनारस जाने कितनी सदियों से वैसी ही है. सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के लगने लगते हैं और चिड़ियों की चहचहाहट सुहागे का काम करती है.

(फोटो साभार: thrillophilia.com)

गत 28 मई को ‘द वायर हिंदी’ द्वारा ‘बनारस रा मगर दीदस्त दर ख्वाब…’ शीर्षक से प्रकाशित अदिति भारद्वाज की टिप्पणी निस्संदेह उन सारे बनारसप्रेमियों के लिए बेहतरीन सौगात है, जो कहते हैं कि उन्हें उसकी हर अदा से इश्क है.

लेकिन जानें क्यों, अदिति इस टिप्पणी में बनारस को ‘दुनिया के दिल का नुक्ता’ और गलियों-मंदिरों, रबड़ी-लस्सी, हींग-कचैरियों, भीड़ों, देश के कोनों-कूचों से आए श्रद्धालुओं-सैलानियों, साड़ियों, गंगा घाटों और राजाओं-याचकों के साथ गति-ठहराव, सत्ता, विद्या व मोक्ष वगैरह का शहर तो बताती हैं, मगर उस सुबह-ए-बनारस का जिक्र नहीं करतीं, जो शाम-ए-अवध और शब-ए-मालवा की तरह लासानी है और जिसके बगैर बनारस की तस्वीर पूरी नहीं होती.

प्रसंगवश, जहां शाम-ए-अवध अपने इतिहास के उतार-चढ़ावों के बीच कई बार अपना हाल व हुलिया बदलने को मजबूर हुई है, सुबह-ए-बनारस ने जाने कितनी सदियों से अपना रूप नहीं बदला है. दूसरे शब्दों में कहें, तो पूरब में मीलों दूर से अंधेरे को चीरते आते लाल-लाल सूरज की सुनहरी किरणों की मनोहारी आभा को अपनी लहरों की अद्भुत निर्मलता से अप्रतिम बना देने वाली गंगा की ही तरह इस दौरान उसका रूप स्थिर और शांत बना रहा है. फिर भी उसकी छटा नित्य नवीनता का ऐसा कौतुक रचती आई है कि उसे निहारने वाले बस निहारते ही रह जाते हैं.

सूरज की पहली किरण गंगा को छूती हुई उसके घाटों का स्पर्श करती है तो वे सोने के हो गए लगने लगते हैं और चिड़ियों का चहचहाना उसमें सुहागे का काम करता है.

यहां सुबह-ए-बनारस के साथ शाम-ए-अवध का जिक्र यों ही नहीं है. इसलिए है कि अतीत में दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है- और उनके मुरीद शायरों ने उन्हें ऐसे सूत्र में बांध रखा है कि किसी के लिए भी उन्हें अलगाना बहुत मुश्किल है. जहां राम अवतार गुप्ता ‘मुज्तर’ कहते हैं: शाम-ए-अवध ने जुल्फ में गूंथे नहीं हैं फूल, तेरे बगैर सुबह-ए-बनारस उदास है, वहीं वाहिद प्रेमी की मानें तो: है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव. और सुबह-ए-बनारस है रुख-ए-यार का परतव.

इतना ही नहीं, कई कहावतों में भी शाम-ए-अवध और सुबह-ए-बनारस का साझा है. इनमें एक कहावत यह है कि ‘शाम-ए-अवध को निकल जाते हो घर से और लौटते हो सुबह-ए-बनारस!’ दूसरी ओर कहने वाले यह भी कहते हैं कि दिल मेरा बनारस-सा है और मिजाज लखनऊ-सा. यह लालसा रखने वाले भी कम नहीं ही हैं कि ‘मैं सुबह बनारस की, तू अवध की शाम हो जा.’

इस रिश्ते के लिहाज से थोड़ा शाम-ए-अवध का जिक्र करें, तो सुबह-ए-बनारस के बरक्स वह इस अर्थ में बदकिस्मत रही है कि उसके इतिहास का कहर उस पर एक नहीं, कई-कई बार टूटा है. खासकर 1857 में ‘गदर’ से गुस्साए अंग्रेजों ने उस पर काबू पा लेने के बाद शाम-ए-अवध के रूप-रंग ही ही नहीं, चरित्र की भी हत्या कर दी. इस कारण आज शाम-ए-अवध का जिक्र छिड़ने पर जेहन में जो चित्र उभरता है, उसका एक सिरा नवाबों, रईसों और उनके दरबारियों की विलासिता तक भी जाता है.

क्या ताज्जुब कि कई महानुभावों के निकट शाम-ए-अवध का मतलब अवध की राजधानी लखनऊ के चौक बाजार की वेश्याओं के कोठों की रात हो गया है. इन महानुभावों के अनुसार उसमें तबले की थाप, घुंघरुओं की झनझनाहट, पायलों की झनकार, केवड़े व गुलाब की खुशबुओं और गलियों में लोगों की सिर झुकाए दबे पांव आवाजाही को छोड़कर कुछ है ही नहीं. लेकिन उनकी यह मान्यता शाम-ए-अवध पर लगभग वैसा ही अत्याचार है जैसा बनारस को सुबह के बजाय रांड-सांड व संन्यासियों का शहर बताकर उस पर किया जाता है.

सच्चाई यह है कि नवाबों के समय शाम-ए-अवध का रूप ऐसा नहीं था क्योंकि उस वक्त तक लखनऊ के चौक में तवायफें बसी ही नहीं थीं. फिर अवध में शाम सूरज डूबने से पहले के समय को कहते हैं और माना जाता है कि सूरज डूबने के बाद रात हो जाती है. शाम का मतलब है दिन की चौथे पहर की शुरुआत, जो महलों, गुंबदों, मीनारों और बागों के शहर लखनऊ में बहुत खास हुआ करती थी.

सूरज डूबने के समय इमारतों पर लगे तांबे व सोने के पत्तरों और गुंबदों व मीनारों से सूरज की सुनहरी किरणें टकराती थीं तो पूरा शहर वैसे ही सुनहरे रंग में रंग जाता था, जैसे सुबह बनारस के घाट. पूरे लखनऊ पर सोने की पतली चादर-सी बिछ जाती थी और देखने वालों की निगाहें इस तिलिस्म को निहारते नहीं थकती थीं. कहीं-कहीं सोने के पत्तरों पर खूबसूरत नक्काशी भी थी जो डूबते सूरज की रोशनी में और निखर आती थी. महलों के बाहरी हिस्सों का सफेद मसाला भी तब कुछ और ही चमक उठता था.

यों शाम-ए-अवध और सुबह-ए-बनारस के साझे के अलावा भी बनारस और अवध के कई ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं. अंग्रेजों ने 1798 में 21 जनवरी को अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला के पोते वजीर अली को (अपने बढ़ते दबदबे के बीच जिसे उन्होंने सूबे में अपने स्वार्थों की रक्षा के इरादे से नवाबी सौंपकर गद्दी पर बैठाया था) सत्ता संभालने के चौथे महीने ही धोखेबाजी का इल्जाम लगाकर अपदस्थ कर दिया, तो बनारस में ही कैद किया था.

ट्रैजेडी यह कि तब वजीर अली को बनारस में सत्रह साल उनकी कैद में गुजारने पड़े थे. कैद में ही उनका देहांत हुआ तो अंग्रेज़ों ने उसके अंतिम संस्कार पर सत्तर रुपये भी खर्च नहीं किए थे, जबकि उसके पिता नवाब आसफउद्दौला ने अप्रैल, 1794 में उसकी शादी के जश्न पर तीस लाख रुपये लुटा डाले थे!

गौरतलब है कि वजीर अली ने 1857 से भी 58 साल पहले बनारस में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर उनसे दो-दो हाथ किए थे. लेकिन इतिहास ने उसकी इस बगावत की स्मृतियों के साथ भी न्याय नहीं किया. दरअसल, वजीर अली को अवध की सत्ता में अंग्रेजों का अनुचित हस्तक्षेप सख्त नापसंद था. इसीलिए सोलह साल की उम्र में नवाबी हाथ आते ही उसने अपने अंग्रेज़परस्त वजीरों का दर्जा घटाना और स्वायत्तता की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था. गवर्नर जनरल जाॅन शोर लखनऊ आए तो उन्हें भी उसने ज्यादा भाव नहीं दिया था.

इससे खफा अंग्रेज साजिशें रचने पर उतरे तो उसने बेचारगी में डेढ़ लाख रुपये सालाना पेंशन और अवध की सुदूर दक्षिणी सीमा पर स्थित बनारस के रामनगर में नजरबंदी ‘स्वीकार’ कर ली थी. फिर भी न उसकी जगह अवध के नवाब बने उसके चाचा सआदत अली खान को चैन था, न उनके संरक्षक अंग्रेज़ों को ही. उसके शातिराने व पलटवार के अंदेशे परेशान करने लगे तो दोनों ने मिलकर तय किया कि उसे बनारस से ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय कोलकाता भेज दिया जाए.

वजीर अली को इसका पता चला तो उसने बनारस स्थित अंग्रेज़ कमांडर जार्ज फ्रेडरिक चेरी को संदेश भिजवाया कि वह उनसे मिलकर प्रतिवाद करना चाहता है. चेरी राजी हो गए तो 14 जनवरी, 1799 को गुपचुप योजना के तहत अपने सिपहसालारों इज्जत अली व वारिस अली के साथ उसके ‘मिंट हाउस’ जा धमका, जहां सिपहसालारों के साथ गए लश्कर ने बिना कोई पल गंवाए कमांडर कैंप को घेरकर न सिर्फ कमांडर चेरी बल्कि कैप्टन कानवे, रॉबर्ट ग्राहम, कैप्टन ग्रेग इवांस व सात अंग्रेज सिपाहियों को भी मार गिराया.

इस लश्कर का अगला निशाना नदेसर स्थित मजिस्ट्रेट एम. डेविस का घर बना और वहां भी उसने कई संतरियों को मौत के घाट पहुंचा दिया. लेकिन बाद में मजिस्ट्रेट को बचाने आई अंग्रेज़ों की फौज लाशें बिछाने लगीं, तो उसके पांव उखड़ गए. अंततः 21 जनवरी, 1799 को इस लश्कर ने कैदी वजीर अली को लेकर भाग निकलने में ही अपना भला समझा.

यह लश्कर जैसे-तैसे राजस्थान के बुटवल पहुंचा तो वजीर अली को जयपुर के राजा के यहां शरण मिल गई. लेकिन बाद में अंग्रेज़ उसे इस शर्त पर कब्जे में लेने में सफल रहे कि न फांसी देंगे, न बेड़ियों में जकड़ेंगे. शर्त के मुताबिक, उन्होंने उसको कोलकाता की फोर्ट विलियम जेल भेज दिया. 15 मई, 1817 को वहीं उसकी मौत हो गई तो उसे पश्चिम बंगाल के कैसिया बागान कब्रिस्तान में दफनाया गया.

जानकारों के अनुसार, बनारस में मकबूल आलम रोड स्थित ईसाइयों के कब्रिस्तान में अंग्रेज कमांडर चेरी व उसके साथी कैप्टनों की याद में निर्मित स्मारक पर वजीर अली का नाम आज भी उनके कातिल के रूप में दर्ज है.

अवध और बनारस का एक और रिश्ता तब बना जब नवाब आसफउद्दौला ने 1776 में सूबे की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दी और बहू बेगम नाम से प्रसिद्ध उसकी मां उम्मत-उल-जोहरा ने उससे अनबन के कारण भरपूर शाही खजाने के साथ फैजाबाद में ही बनी रहने का फैसला किया.

बाद में अंग्रेज गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग ने आसफउद्दौला को बहकाया कि वह अपनी मां बहू बेगम का खजाना अपने पिता शुजाउद्दौला का बताकर अधिकारपूर्वक लूट ले. हेस्टिंग बनारस की एक लड़ाई में बहू बेगम द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध राजा चेत सिंह का साथ देने को लेकर उनसे नाराज था. इसलिए आसफउद्दौला से मिलकर उसने भी उन पर चढ़ाई कर दी थी.

28 जनवरी, 1782 को, बहू बेगम द्वारा कई पिटारे हीरे-जवाहरात देकर इस चढ़ाई से निजात पाने की कोशिश करने के बावजूद अंग्रेजी सेना फाटक तोड़कर उनके मोती महल में घुस गई और एक करोड़ बीस लाख रुपए लूट लिए थे. बेटे द्वारा मां को लूटने के इस शर्मनाक कृत्य में साझीदारी के लिए इंग्लैण्ड की संसद में हेस्टिंग की कठोर भर्त्सना की गई थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)