‘मस्जिद-ए-अयोध्या’ के तामीर होने में क्या मुश्किलें आ रही हैं?

अयोध्या में एक तरफ राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख़ तय हो रही है, वहीं, धन्नीपुर में मिली वैकल्पिक ज़मीन पर प्रस्तावित 'मस्जिद-ए-अयोध्या' की बस नींव रखी जा सकी है. मस्जिद निर्माण का ज़िम्मा संभाल रहा इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन नक़्शा पास कराने की जद्दोज़हद और धन की कमी से जूझ रहा है.

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धन्नीपुर में लगा इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन का बोर्ड. (फोटो साभार: ट्विटर/@IndoIslamicCF)

अयोध्या में एक तरफ राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख़ तय हो रही है, वहीं, धन्नीपुर में मिली वैकल्पिक ज़मीन पर प्रस्तावित ‘मस्जिद-ए-अयोध्या’ की बस नींव रखी जा सकी है. मस्जिद निर्माण का ज़िम्मा संभाल रहा इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन नक़्शा पास कराने की जद्दोज़हद और धन की कमी से जूझ रहा है.

धन्नीपुर में लगा इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन का बोर्ड. (साभार: ट्विटर/@IndoIslamicCF)

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नौ नवंबर, 2019 को राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के निपटारे के बाद अयोध्या में राम मंदिर व मस्जिद के निर्माण का रास्ता एक साथ साफ हुआ था-अलबत्ता, राम मंदिर के ‘वहीं’ जबकि मस्जिद के वैकल्पिक भूमि पर बनने का. लेकिन ये पंक्तियां लिखने तक जहां राम मंदिर का निर्माण पूरा होने की ओर बढ़ चला है, मस्जिद की सिर्फ नींव रखी जा सकी है. दूसरे शब्दों में कहें तो वह निर्माण शुरू होने की बाट ही जोह रही है.

कोई पूछे कि इसका कारण क्या है, तो जवाब मिलता है-यह मौसमी हवाओं का पैदा किया अंतर है, जो एक के लिए साधक तो दूसरी के लिए बाधक रही हैं.

इस जवाब से जिसको जो भी समझना हो, समझता रहे. जवाब देने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. फिर भी इसका इतना सीमित अर्थ कोई नहीं लगाता कि शासन व प्रशासन के सौतेलेपन से जैसे-तैसे पार पाने के बाद मस्जिद का निर्माण गंभीर धनाभाव के कारण नहीं हो पा रहा. क्योंकि इस सिलसिले में जो कुछ हो रहा है, उसकी जड़ें धनाभाव से बहुत आगे जा चुकी हैं.

इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि जहां इस मस्जिद के निर्माण को लेकर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार का मन सर्वोच्च न्यायालय का मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही किसी प्रमुख या उपयुक्त स्थान पर पांच एकड़ जमीन देने का आदेश आने के वक्त से ही साफ नहीं रहा, वहीं मुस्लिमों के बड़े हिस्से ने इस निर्माण में ‘राम मंदिर के प्रति सहयोगी और मस्जिद निर्माण में बाधक सरकार’ और उसके नियंत्रण वाले वक्फ बोर्ड की भूमिका से क्षुब्ध होकर असहयोगी रवैया अपना रखा है, जो उनके हाथ समेट लेने के कारण अर्थाभाव तक जा पहुंचा है.

यहां समझ लेना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया तो विवाद के मुस्लिम पक्षकार बाबरी मस्जिद के बदले भूमि लेने को राजी नहीं थे. उनका कहना था कि वक्फ एक्ट और शरीयत के अनुसार कोई मस्जिद न बेची जा सकती है, न किसी और उपयोग में लाई जा सकती है और न उसके बदले कोई और भूमि स्वीकार की जा सकती है.

तब उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने फैसले को लेकर ‘मुसलमानों की ओर से देश में कोई गलत संदेश जाने से रोकने के लिए’ आगे बढकर उक्त भूमि स्वीकार कर ली थी और उस पर मस्जिद व उससे जुड़े निर्माणों के लिए इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन बना डाला था.

चूंकि यह बोर्ड 1936 के यूपी मुस्लिम वक्फ एक्ट के तहत 1942 में मुस्लिम वक्फ संपत्तियों की देखरेख के लिए गठित किया गया था और इस अर्थ में ‘सरकारी’ है कि सरकार के नियंत्रण में काम करता है, इसलिए कई मुस्लिम हलकों को अंदेशा था कि उस पर यह भूमि स्वीकारने का सरकारी दबाव था.

प्रसंगवश, 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने देश के वक्फ कानूनों के समरूप बनाने के लिए अपने 1936 के एक्ट की जगह नया वक्फ एक्ट बनाया और 1995 में केंद्र ने अपना वक्फ कानून बनाया, तो एक जनवरी, 1996 से उसे लागू कर दिया था. इस कानून को भी 2013 में संशोधित किया गया था और अब उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड उसी के अधीन है.

कई मुस्लिम हलके कहते हैं कि जब मस्जिद इस सरकारी वक्फ बोर्ड द्वारा बनाई जा रही है तो उसके अच्छे-बुरे दोनों पहलुओं (जिनमें मस्जिद निर्माण में अप्रत्याशित विलंब भी शामिल है) की जिम्मेदारी मंदिर-मस्जिद में भेदभाव करने वाली उत्तर प्रदेश सरकार की है और उसे इसको स्वीकार करना चाहिए.

उनका यह भी कहना है कि यह सरकार 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के मस्जिद के लिए पांच एकड़ भूमि देने के आदेश के अनुपालन को लेकर उन ‘हिंदुत्ववादियों’ के गहरे दबाव में थी, जो बार-बार अयोध्या के परिक्रमा क्षेत्र में कोई नई मस्जिद स्वीकार नहीं करने की ‘घोषणा’ करते रहते हैं. अंततः उसने उनकी ‘संतुष्टि’ का ध्यान रखा था और अयोध्या शहर के बजाय अयोध्या जिले के सोहवल ब्लाॅक के धन्नीपुर गांव में विवाद की जगह से 22 किलोमीटर और राष्ट्रीय राजमार्ग से 250 मीटर दूर स्थित भूमि दी थी.

सौतेलेपन में उसने यह ध्यान भी नहीं रखा था कि उसके कृषि भूमि होने के कारण अयोध्या विकास प्राधिकरण से उस पर निर्माण की मंजूरी मिलने में बहुत मुश्किलें पेश आएंगी. पहुंच मार्ग संकरा होने के कारण अग्निशमन विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र मिलना भी मुश्किल होगा और प्रदूषण विभाग को भी आपत्ति होगी ही होगी.

जाने सरकारी दबाव के फलस्वरूप या क्यों, उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी भूमि स्वीकार करते हुए इन मुश्किलों की ओर ध्यान नहीं दिया और हिंदू मुस्लिम ‘सौहार्द के लिए उससे जुड़े बडे़ फैसलों की झड़ी लगा दी. उसके द्वारा गठित फाउंडेशन ने कहा कि वहां वह बाबरी मस्जिद से बड़ी ‘मस्जिद-ए-अयोध्या’ बनाएगा, जो बाबर या किसी अन्य मुगल सम्राट के नहीं बल्कि 1857 के देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के अवध के हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक व हरदिलअजीज नायक मौलवी अहमदउल्लाह शाह के नाम पर होगी.

अयोध्या मस्जिद परिसर की प्रस्तावित योजना का ब्लूप्रिंट. (फोटो साभार: ट्विटर/@IndoIslamicCF)

मस्जिद का पूरा कॉम्प्लेक्स भी इन्हीं मौलवी के ही नाम पर होगा, जिसमें एक इंडो इस्लामिक रिसर्च सेंटर, एक सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, एक पुस्तकालय, एक संग्रहालय, एक सामुदायिक रसोई और एक संस्कृति केंद्र भी होगा. यह भी कहा गया कि अस्पताल एक सौ बेड का होगा, जिसे बाद में बढ़ाकर 200 बेड का कर दिया जाएगा. इसी तरह सामुदायिक रसोई में रोज एक हजार जरूरतमंदों के लिए भोजन पकाया जाएगा, जिसे बाद में बढ़ाकर दो हजार कर दिया जाएगा. इस सामुदायिक रसोई में अस्पताल में मरीजों व तीमारदारों के अलावा कोई भी जरूरतमंद अपनी भूख मिटा सकेगा.

वर्ष 2021 में 26 जनवरी को यानी गणतंत्र दिवस के दिन मस्जिद की नींव रखकर फाउंडेशन ने मुसलमानों की ओर से एक और लोकतांत्रिक संदेश देना चाहा था. साथ ही उम्मीद जताई थी कि वर्ष 2023 की समाप्ति तक न सिर्फ मस्जिद तामीर कर दी जाएगी बल्कि उसके कॉम्प्लेक्स के अन्य निर्माण भी पूरे कर लिए जाएंगे. उसने इतिहास और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ प्रोफेसर पुष्पेश पंत को म्यूजियम/आर्काइव्स का कंसल्टेंट क्यूरेटर नियुक्त किया, जबकि मस्जिद का डिजाइन प्रोफेसर एसएम अख्तर से बनवाया था. धन एकत्र करने हेतु दो खाते भी खोले थे- मस्जिद निर्माण के लिए धन जुटाने हेतु अलग और अन्य ढांचों के लिए धन जुटाने हेतु अलग.

लेकिन जल्दी ही फाउंडेशन को लगभग तीन सौ करोड़ रुपये के अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का नक्शा पास कराने में ही दिन में तारे नजर आने लगे.

अयोध्या विकास प्राधिकरण की आपत्तियों (जिनमें से एक संबंधित भूमि के कृषि भूमि होने से संबंधित थी और प्राधिकरण का कहना था कि उसका भू-उपयोग बदले बगैर नक्शा पास नहीं किया जा सकता.) के निस्तारण के बाद उसने बारह करोड़ रुपयों का भारी-भरकम शुल्क जमा करने को कहा तो फाउंडेशन ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए कि उसके पास तो इतना धन ही नहीं है- केवल पचास लाख रुपये हैं, जबकि प्राधिकरण ने पूरा शुल्क जमा किए बिना नक्शा स्वीकृत करने से इनकार कर दिया.

दूसरी ओर,  इसी सिलसिले में अग्निशमन विभाग द्वारा दिया गया अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) इस शर्त के अधीन है कि मस्जिद कॉम्प्लेक्स का पहुंच मार्ग चौड़ा किया जाएगा.

इस तरह बात फिर वहीं पहुंच गई, जहां से चली थी. धनाभाव के चलते अब फाउंडेशन ने अस्पताल, पुस्तकालय, म्यूजियम व सामुदायिक रसोई आदि बनाने की अपनी योजना स्थगित कर दी है और सिर्फ मस्जिद निर्माण के लिए संशोधित नक्शा पास कराने की तैयारी कर रहा है, ताकि कम शुल्क जमा करके काम चलाया जा सके.

उसका दावा है कि मस्जिद निर्माण आरंभ हो जाएगा तो उसे तेजी से डोनेशन मिलेगा. तब पूरे प्रोजेक्ट का नक्शा पास करवा लिया जाएगा और बाकी निर्माण किए जाएंगे. लेकिन वह यह नहीं बताता कि अब तक इतना धन क्यों नहीं जुटा पाया कि अपनी घोषणाओं पर यथासमय अमल कर सके.

जो बात बिना उसके बताए समझी जा सकती है, वह यह कि स्थानीय स्तर पर यानी धन्नीपुर में इस मस्जिद को लेकर शायद ही कहीं कोई उत्साह हो क्योंकि वहां मस्जिदों की फिलहाल कोई कमी नहीं है. बाबरी मस्जिद से 22 किलोमीटर दूर होने के कारण यह मस्जिद उसका विकल्प भी नहीं ही है.

फिर भी राम मंदिर के लिए धन-वर्षा के भरपूर प्रचार के बीच मस्जिद को लेकर और तो और मुसलमानों में भी ऐसा निरुत्साह चौंकाता है और चर्चित लेखक व ‘फोर्स’ पत्रिका की कार्यकारी संपादक गजाला वहाब की सालभर पहले लिखी यह बात याद दिलाता है कि बाबरी मस्जिद के मामले में इंसाफ के बजाय पांच एकड़ भूमि स्वीकार करना यह स्वीकार लेने जैसा है कि मुस्लिम समुदाय को इंसाफ की जरूरत ही नहीं है-साथ ही देश में उनका दोयम दर्जा ‘वैध’ हो गया है.

क्या आश्चर्य कि ऐसे में कई मुसलमानों को लगता है कि इस मस्जिद के निर्माण में सहयोग करना भेदभावकारी योगी सरकार को सहयोग करना और भविष्य में दूसरी मस्जिदों के स्थानांतरण का मार्ग प्रशस्त करना है. बाबरी मस्जिद की कानूनी लड़ाई से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक गहराई से जुड़े रहे अयोध्या वासी खालिक अहमद खान इसे दीन व दुनिया दोनों से जाने के रूप में देखते हैं.

चौंकाने वाली एक और बात यह है कि धन्नीपुर में नागरिक सुविधाएं अपने न्यूनतम स्तर पर हैं. फिर भी फाउंडेशन के अस्पताल व सामुदायिक रसोई आदि के निर्माण के ऐलान तक कोई उत्साह नहीं जगा पाए हैं. क्यों भला?

जानकार कहते हैं कि सरकारी नियंत्रण वाले वक्फ बोर्डों को लेकर मुसलमानों में धारणा है कि वे उनकी सामुदायिक संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता नहीं बल्कि भ्रष्टाचार बरतते हैं, इसलिए जहां वे हाथ लगाते हैं, ज्यादातर मुस्लिम व मुस्लिम संगठन अपने को उनसे दूर कर लेते हैं. तिस पर उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड और उसके द्वारा गठित इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन का अपना कोई कोष नहीं है और वे धनाभाव दूर करने के लिए नागरिकों की दानशीलता पर ही निर्भर हैं. क्या वे वक्फ संपत्तियों से भी धन जुटा सकते हैं? इसका जवाब हां में भी मिलता है और न में भी.

दूसरी ओर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय नेता सूर्यकांत पांडे कहते हैं कि केंद्र व प्रदेश सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे मुसलमानों को ध्वस्त बाबरी मस्जिद के बदले में मस्जिद बनाकर देतीं. छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद देश को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इसका वादा भी किया था. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने फैसले में उक्त ध्वंस को आपराधिक कृत्य करार देने के बावजूद मोदी व योगी सरकारें उनके उक्त वादे को लेकर तनिक भी सदाशयी नहीं हैं.

इसके उलट गत दिनों मस्जिद के लिए दी गई भूमि में बिजली के खंभे गाड़ दिए गए और फाउंडेशन को उन्हें हटवाने में भी खासी मशक्कत करनी पड़ी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)