हिंदी के कुछ लेखकों की भारतीयता वैश्विकता विरोध में चली गई है. कुंवर नारायण के साथ ऐसा नहीं है. वे पूर्व-पश्चिम का कोई द्वंद्व न देखते हैं, न दिखाते हैं. उनके यहां ‘कोई दूसरा नहीं’ है.
जर्मन भाषा और चेकमूल के लेखक फ्रांज काफ्का के मूल शहर प्राहा (जिसे आम बोलचाल में भारत में प्राग भी कहा जाता है) में जाकर कुंवर नारायण को जो लगा था उसे अपनी कविता ‘काफ्का के प्राहा में’ की आरंभिक पंक्तियों में उन्होंने इस तरह दर्ज किया है-
एक उपस्थिति से ज्यादा उपस्थित
हो सकती है कभी कभी उसकी अनुपस्थिति
इसमें संशय नहीं होना चाहिए कि ये पंक्तियां और ये कविता कुंवर नारायण ने प्राहा शहर में काफ्का की स्मृति को लेकर लिखा था. काफ्का वहां नहीं था पर था पर ये सिर्फ काफ्का या प्राहा के बारे में सही नहीं है. कालिदास और उज्जयिनी, कबीर और वाराणसी, ग़ालिब और दिल्ली के बारे में भी सही है. और अब ये हिंदी और कुंवर नारायण के बारे में भी सही है.
कुंवर नारायण भी अब जब हमारे बीच नहीं रहे तो भी अपनी अनुपस्थिति में अधिक उपस्थित रहेंगे- भारत में, हिंदी भाषा में, दिल्ली में और लखनऊ में. वैसे उनका अपना शहर तो लखनऊ था लेकिन कालांतर में दिल्ली भी ‘अपना’ हो गया था.
उठना नहीं चाहिए, पर सवाल उठ सकता है कि वे क्यों उपस्थित रहेंगे?
उत्तर में कोई एक कारण नहीं बताया जा सकता है. कई कारणों का समुच्चय है जिसकी वजह से कुंवर नारायण की हिंदी कविता में हमेशा उपस्थिति रहेगी. ये तो बहुज्ञात है कि हिंदी कविता के क्षितिज पर उनकी आरंभिक पहचान ‘आत्मजयी’ के रचयिता की है.
ये एक महाकाव्यात्मक रचना है और ‘कठोपनिषद’ के उस वृतांत पर है जिसमें नचिकेता अपने पिता वाजश्रवा से असंतुष्ट होता है और पिता नाराज होकर उसे मृत्यु को दे देते हैं. नचिकेता यम के पास चला जाता है.
‘आत्मजयी’ एक दार्शनिक काव्य है और विचारस्वातंत्र्य की प्रस्तावना करने वाला काव्य ग्रंथ भी. ये लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार की आवश्यकता को रेखांकित करता है. नचिकेता अपने पिता से कहता है-
तुम्हारे इरादों में हिंसा
खंग पर रक्त-
तुम्हारे इच्छा करते ही हत्या होती है!
तुम समृद्ध होगे
लेकिन उससे पहले
समझाओ मुझे अपने कल्याण का आधार
ये निरीह आहुतियां. यह रक्त. यह हिंसा.
ये अबोध तड़पनें. बीमार गायों-सा जन-समूह
‘मेरी आस्था को बल दो’- कहते ही
तुम्हारा हाथ ऊपर उठता है- एक वध और
यह अंतिम है. इसके बाद वरदान…
मेरी आस्था कांप उठती है.
मैं उसे वापस लेता हूं.
नहीं चाहिए तुम्हारा यह आश्वासन
जो केवल हिंसा से अपने को सिद्ध सकता है.
नहीं चाहिए वह विश्वास जिसकी चरम परिणति हत्या हो
मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूं.
अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक.
अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त.
अपनी उदासी में अधिक उदार.
ये अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि कुंवर नारायण भारतीय औपनिषदिक परंपरा के कवि है. इस लिहाज से हिंदी कविता में अन्यतम है पर सिर्फ इतना ही उनका काव्य-सत्य नहीं है.
वे परंपरा के विस्तार के कवि भी हैं. उनकी रचनाशीलता में भारतीयता निबद्ध है, लेकिन वैश्विकता भी है. हिंदी के कुछ लेखकों की भारतीयता वैश्विकता विरोध में चली गई है.
ऐसे भारतीयतावादी लेखक यूरोप और पश्चिम के खिलाफ ही अपनी भारतीयता को पेश करते हैं, उनके यहां पूर्व बनाम पश्चिम का द्वंद्व है और वे पीड़ित ग्रंथि के साथ ‘भारतीय’ होते हैं.
कुंवर नारायण के साथ ऐसा नहीं है. वे पूर्व और पश्चिम या यूरोप बनाम भारत का कोई द्वंद्व न देखते हैं और न दिखाते हैं. दरअसल उनके यहां ‘कोई दूसरा नहीं’ है. इसलिए उन्होंने इब्न बतूता पर भी कविता लिखी, अभिनव गुप्त और अमीर खुसरो पर भी.
दो साल पहले प्रकाशित उनका काव्यग्रंथ ‘कुमारजीव’ कुमारजीव नाम के उस अर्ध-भारतीय मूल अनुवादक-विद्वान पर है जो चौथी शताब्दी में हुए, जिन्होंने संस्कृत-पालि बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया था.
‘आत्मजयी’ उपनिषद की परंपरा का आख्यान है तो ‘कुमारजीव’ बौद्ध परंपरा का स्वीकार. कुंवरजी ने ‘सरहपा’ नाम के सिद्ध पर कविता लिखी इसीलिए वे वृहत्तर भारतीयता के कवि थे.
क्या कुंवर नारायण सिर्फ दार्शनिक और वैचारिक प्रत्ययों के कवि थे? कदापि नहीं. अपने लंबे काव्यजीवन में उन्होंने बार बार समकालीनता से मुठभेड़ किया और अपनी पक्षधरता दिखाई है. ‘अयोध्या 1992’ कविता की ये पंक्तियां इसका साक्ष्य हैं-
हे राम
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य…
… अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है…
… सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण- किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक…
अबके जंगल वे जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि!
कुंवर नारायण मानवतावाद के कवि रहे लेकिन वहीं तक सीमित नहीं. एक स्तर पर मानवतावाद मनुष्य केंद्रित है और उसमें प्रकृति कहीं नेपथ्य में है. मगर कुंवर नारायण में प्रकृति के प्रति सहचर का भाव है. इस अर्थ में वे कालिदास की उस विचार सरणि के निकट है जिसमें प्रकृति जीतने के लिए नहीं बल्कि सहजीवन के लिए है.
‘अभिज्ञान शांकुतलम’ में जब पिता कण्व पालिता पुत्री शकुंतला को दुष्यंत के पास भेजने की तैयारी में है तो वृक्षों से कहते हैं- ‘वो शकुंतला अपने पतिगृह को जा रही है जो आपको (पेड़ों को) जल पिलाए बिना स्वयं जल नहीं पीती थी, जो आभूषण-प्रिय होने पर भी आपके पल्लवों को नहीं तोड़ती थी (अपने श्रृंगार के लिए) और जो आपके भीतर फूलों के आगमन पर उत्सव मनाती थी; उस शकुंतला को जाने की अनुमित दें.’
कुंवरजी की कई कविताओं में प्रकृति के प्रति ये दृष्टिकोण उजागर हुआ है. ‘एक घनिष्ठ पड़ोसी’ में एक पेड़ को पड़ोसी बताते हुए कहते हैं-
जब भी बैठ जाता हूं थककर
उसकी बगल में
चाहे दिन हो या रात
वह ध्यान से सुनता है मेरी बातों को
कहता कुछ नहीं
बस, एक नया सवेरा देता है मेरी बेचैन रातों को
उसकी बांहों में चिड़ियों का बसेरा है,
हर घड़ी लगा रहता उनका आना-जाना
कभी कभी जब अपना घर समझकर
मेरे घर में आकर ठहर जाते हैं
उसके मेहमान
तो लगता है चिड़ियों का घोंसला है मेरा मकान,
और एक भागती ऋतु भर की सजावट है मेरा सामान.
ऐसा कवि क्यों कर हमारे बीच हमेशा उपस्थित नहीं रहेगा?
(लेखक साहित्य-फिल्म-रंगमंच-कला के आलोचक और डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार हैं)