क्या अब रीढ़ सीधी रखकर इस व्यवस्था में कोई सफल नहीं हो सकता?

देश के महाविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़ाने का क्या एकमात्र रास्ता जुगाड़ रह गया है?

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

देश के महाविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़ाने का क्या एकमात्र रास्ता जुगाड़ रह गया है?

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

एक बड़े-से कॉलेज में साक्षात्कार का समां. दिल्ली के व्यापारिक केंद्र में स्थित एक बड़ा, नामचीन, पुराना महाविद्यालय. स्थायी नौकरी के स्वप्न के सच हो जाने की मृगतृष्णा में, बेतहाशा उमड़ी भीड़. सबके-सब योग्य दिखते हुए. सबके सब ज़रूरतमंद. सब उम्मीदों से भरे. वर्ग की क्षमता के अनुसार सजे-धजे. अपनी-अपनी शैक्षणिक योग्यता का भारी पुलिंदा उठाए, एक विशाल-से कमरे में विराजमान. बस आंखों में उस घड़ी का इंतज़ार करते हुए कि कब आखिरकार उनकी बारी आए और वो अपनी सारी चिंताएं, निराशाएं और डर को एक झूठी मुस्कान से छिपाए, ख़ुद को हरसंभव सहज बनाकर,अंदर जा सकें, वहां आए महानुभावों को अपनी क़ाबिलियत का यक़ीन दिला सकें. उन पर यह राज़ खोल सकें कि जिस एक योग्य प्रत्याशी की उनकी अनुभवी आंखों को तलाश है, वो दरअसल, वही तो हैं.

वही तो हैं, जिन्होंने इतनी ज़ेहनी मशक़्क़तों से ऐसी डिग्रियां कमाई हैं. इतने सारे शोध-पत्र लिख डाले हैं, किताबें क्या, महाकाव्यों तक की रचनाएं कर रखी हैं. और यह सब कुछ महज़ एक अदद उद्देश्य के लिए कि ऐसे-ऐसे महाविद्यालयों की कक्षाओं में विद्यार्थियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी को अपने ज्ञान से सींच सकें. और इसके साथ जो कुछ अदना-सा मेहनताना मिल जाए उससे अपनी जीवन नैया को बेरोज़गारी की लहरों में गोतें लगाने से बचा सकें.

वस्तुतः वह यह सब कुछ साक्षात्कार लेने वालों को कह डालना चाहते हैं. पर साक्षात्कारकर्ता ऐसा कोई मौका उन्हें नहीं देना चाहते. उनसे कुछ ऐसे रस्मी सवाल पूछ भर लिए जाते हैं जिनसे जूझते हुए ही साक्षात्कार के लिए मुक़र्रर समय ख़त्म हो जाता है और एक खीझ भरी विवशता से उन्हें बाहर आ जाना होता है. पर उनका बस चले तो वह इन साक्षात्कारकर्ताओं से साफ़-साफ़ कह डालें कि अगर वाक़ई हमारी प्रतिभा देखकर आप क़ायल हो जाएं तब तो कोई बात ही नहीं. वरना कड़ी धूप में, पापड़ बेलकर पहुंचते, पसीने से भीगे बदन को गर्द खाए पंखों के सामने सुखाकर ख़ुद को भरसक तरोताज़ा बना, इंटरव्यू रूम में पेश होते अभ्यर्थी के साथ महज़ टाइम पास न करें.

या कुछ नहीं तो, वस्तुतः ही विषय के अथाह समुद्र से मोती की तरह चुने सवाल इस क़दर पूछे जाने लगें कि लगे कि साक्षात्कार नहीं बल्कि इनसाइक्लोपीडिया का रट्टा लगाने की प्रतियोगिता हो. जो बहुत संभव है पूछने वाले ने भी बस आज़माने भर को ही पूछा हो.

इस पूरे परिवेश की नाटकीयता से दिल डूबने-सा लगता है. साक्षात्कार क्या किसी नियम को निबाह देने भर की प्रक्रिया है? क्या आज कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि उसका चयन सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी योग्यता के आधार पर होगा? और अगर चयन न भी हो तो उसकी वजह भी स्पष्ट और वस्तुनिष्ट आधारों पर सिद्ध की जा सकेगी?

साक्षात्कार देने आए लगभग हर अभ्यर्थी की एक आम सहमति अगर होती है तो केवल इस बात पर कि जिस किसी ने किसी तथाकथित ऊपर वाले (शिक्षक,प्राचार्य,सभा-समितियों के अध्यक्ष, संगठन-प्रमुख,राजनीतिक साख रखने वाली हस्ती,संस्थाओं के निदेशकों) से कहकर साक्षात्कारकर्ताओं पर ज़ोर न डलवाया हो तो यहां तो कोई दाल नहीं गलने वाली.

भले ही किसी ने बरसों किसी कॉलेज में एड-हॉक शिक्षण किया हो, या किसी ने कितनी सारी पुस्तकें लिखी हों, अगर उसके पास कोई जुगाड़ न हुआ तो सब मिथ्या है, सब व्यर्थ. और इस बात की पूरी गारंटी है कि अगर आपके ऊपर किसी का वरदहस्त है तो आपने अभी शोध भी न किया हो, किसी कक्षा में विद्यार्थियों का मुंह भी न देखा हो, तो भी आप निर्विवादित चुन लिए जाएंगे.

अंधेरनगरी यह नहीं तो और क्या! और इससे भी बड़ा अंधेर कि सबने इस तथ्य को सार्वभौमिक सत्य की तरह आत्मसात कर लिया है, क्या शिक्षक, क्या विद्यार्थी. बहुत संभव है अधिकतर ने इस सत्य पर मुहर लगाने के लिए अपने-अपने ज़ोर भी लगवा लिए हों, पर सोचा जाए तो, क्या इन महाविद्यालयों में, देश की राजधानी के कॉलेजों में पढ़ाने का क्या वाक़ई यही एक रास्ता रह गया है? और कोई विकल्प नहीं? रीढ़ सीधी रखकर क्या अब इस शिक्षण व्यवस्था में कोई सफल नहीं हो सकता?

सोचने की बात यह है कि, क्या सबके सब अपना जुगाड़ लगाकर आते हैं, या शायद मन में अब भी एक उम्मीद बची होती हो कि आज उनकी क़िस्मत ही साथ दे दे. हर धर्म के अनुयायियों की तरह ही इंटरव्यू देने आने वाले विद्यार्थियों की भी अपनी-अपनी मान्यताएं, अपने-अपने भ्रम होते हैं. मसलन, जो कहीं कोई दिल्ली की बाहर की यूनिवर्सिटी का पढ़ा हुआ हो तो वह मानकर ही चल रहा होता है कि बस दिल्ली वालों को ही ‘ये लोग’ लेते हैं, उनका तो कोई चांस ही नहीं, वो तो बस तमाशा देखने पहुंच गए हैं.

समझ नहीं आता कि अस्पृश्यता के संवैधानिक रूप से ग़ैरक़ानूनी होने के बाद भी कैसे ये तथाकथित ‘ये लोग’ ऐसा भेदभाव कर रहे हैं. फ़र्ज़ करें अगर किसी के पास यह तथाकथित जुगाड़ न हो तो क्या वह ऐसे साक्षात्कारों में बस भीड़ बढ़ाने पहुंचता है? क्या वह उस भीड़ का हिस्सा बन जाता है जिसकी तरफ़ इशारा करके ये साक्षात्कारकर्ता कह सकें कि भई हमने तो पूरी ऑफ़िशियल कार्रवाई करके, विश्वविद्यालय के नियमों के शत-प्रतिशत पालन के साथ साक्षात्कार करवा कर अपनी रिक्तियां भरी हैं. अब एक अनार और हज़ार बीमार हों तो इसमें न तो विश्वविद्यालय कुछ कर सकता है और न ही कॉलेज.

पर क्या वह स्वीकार करेंगे कि भीड़ वाक़ई भीड़ जमा करने के लिए ही थी, असल में जिनसे रिक्तियां भरवाई गई हैं वो तो ज़ोर डलवाने वाले प्राणी थे. अब यह क्या नया लोकतंत्र है जहां जिसकी लाठी उसकी भैंस, मतलब जिसका जितना ज़ोर, जितनी ऊंची पहुंच, उतनी तय सफलता?

साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था कि वो सुबह कभी तो आएगी. जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी. साक्षात्कार की इस झूठी प्रक्रिया को भी कभी-न-कभी बदलना पड़ेगा. वजह यह कि जब तथाकथित ऊपर वालों की सिफारिशों से शिक्षा के इन मंदिरों में स्थान बना लेने वाले होनहारों में जब योग्यता, शिक्षण की बुनियादी शर्तों का ज़रा भी अभाव पाया जाएगा तब बहुत संभव है कि इन साक्षात्कारकर्ताओं को दोषी पाया जाएगा. उन्हें इस बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा जहां किसी छोटे-मोटे स्वार्थ के अधीन होकर उन्होंने एक निर्णायक होने की गंभीर और पवित्र ज़िम्मेदारी का पास नहीं रखा.

प्रेमचंद ने अपनी कहानी पंच परमेश्वर में कहा था कि पंच में परमेश्वर वास करते हैं, न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता. फिर इन महाविद्यालयों में जहां न केवल उस विभाग के अनुभवी शिक्षक साक्षात्कार लेने बैठते हैं, बल्कि विश्वविद्यालय के संबंद्ध विभाग से भी बाह्य विशेषज्ञों को बुलाया जाता है, विभागाध्यक्षों को पूरी कारवाई का साक्षी बनाया जाता है, तब कैसे सबकी आंखें बंद हो जाती हैं? कैसे सब अपने किसी परिचित को या किसी सिफारिशी अभ्यर्थी को योग्य से योग्य, अनुभवी-से अनुभवी अभ्यर्थी पर तरजीह देने पर मजबूर हो जाते हैं, सैंकड़ों विद्यार्थियों को अपनी योग्यता सिद्ध करने देने के अवसर से महरूम कर देते हैं.

आख़िर इन साक्षात्कार लेने वालों की ऐसी भी क्या मजबूरियां हैं? क्या आपसी अहम का मुद्दा इन साक्षात्कारकर्ताओं के बीच भी आ जाता है, जिन पर दबाव होता है कि अपने सिफ़ारशी विद्यार्थी को किसी भी तरह कहीं रखवाएं, वरना इनके सहयोगी इस काम में सफल हो गए, तो इनकी तो साख कम हो जाएगी?

विडंबना तो यह है कि इस पूरे छद्म चयन में भी लैंगिक असमानता का भूत डोलता रहता है. मसलन अगर पति-पत्नी दोनों ही किसी साक्षात्कार पैनल में हैं तो बहुत संभव है कि पति के सिफारशी अभ्यर्थियों का चांस ज़्यादा है न कि पत्नी या एक स्त्री का.

इसलिए, कभी-न-कभी तो, इन साक्षात्कारकर्ताओं को शिक्षा को एक व्यवसाय में तब्दील होने देने में अपनी मौन सहभागिता का जवाब देना पड़ेगा. या फिर जब इन विभागों से, साल-दर-साल निकलने वाली, औसत ज्ञान और क्षमता वाले विद्यार्थियों की पीढ़ियां, न केवल शिक्षा बल्कि रोजगार के अवसरों में भी पिछड़ती, देश की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था पर दोहरा बोझ बनती जाएगी, तब शायद इस पूरी अकादमिक व्यवस्था की ताश की बनी दीवार ढहकर गिर जाएगी.

और सबकी जड़ में सिर्फ एक ही मुद्दा सालता रहेगा कि आखिर शिक्षा जो किसी भी समाज की नींव है, उसकी इमारत को घुन की तरह अंदर-ही अंदर खोखला किया किसने? क्योंकि सवाल तो उठाए जाएंगे, आज नहीं तो कल. आज नहीं तो कल, सवाल उठाए जाएंगे न केवल दोषियों पर, बल्कि उन तमाम बुद्धिजीवियों पर, नागरिक समुदाय पर जो बस तटस्थ रहकर सब कुछ दिन-दहाड़े होते देख रहे हैं, चुप हैं.

बहरहाल, शिक्षा के संस्थान जिस गहरे त्रासद दौर से गुजर रहे हैं वहां इस पूरी साक्षात्कार व्यवस्था को बेहतर बनाने की घोर आवश्यकता है. इसे आपसी अहम और स्वार्थ का मसला न बनाकर ज़रूरी है कि मानवीय दृष्टि से देखा जाए.

एक तरफ सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में एड-हॉक पढ़ाते आ रहे शिक्षक हैं, जिन्होंने न केवल रोजगार का बल्कि जीवन का भी एक लंबा हिस्सा इसी व्यवस्था में रहकर बिताया है. और आज उन्हें ही रातों-रात उनकी आजीविका से अलग कर, उन नौजवानों के समानांतर लाकर साक्षात्कार देने के लिए मजबूर कर दिया गया है, जिनके पास आजीविका के कई और अवसर आएंगे.

इन साक्षात्कारों में न जाने ऐसी कितनी स्त्रियां हैं जो संभवतः अपने घर का एकमात्र सहारा हैं, और जो अभी कुछ अरसे तक यह जिम्मेदारी निभा भी रही थीं, पर जिन्हें एड-हॉक के खत्म होने पर फिर से साक्षात्कारों में चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. और स्थिति की भयावहता यह है कि ऐसे अनुभवी शिक्षकों की जगह, कभी-कभार तो स्नातकोत्तर से निकले, शोध में बस नाम लिखवाए विद्यार्थियों को चुन लिया जाता है!

ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होता कि सालों इन कॉलेजों में अपनी सेवाएं देने वाले इन शिक्षकों को उनके ही स्थान पर स्थायी तौर पर ले लिया जाता और नई खेप के अभ्यर्थियों के लिए नई-ताज़ा रिक्तियां निकाली जातीं जहां चयन का पैमाना होता, सिर्फ और सिर्फ उनकी योग्यता और ज़ेहानत.

निदा फ़ाज़ली कहते थे किहुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं, हुकूमतें जो बदलता है वो समाज भी हो, ऐसे वे हमें यानी नागरिक समुदाय को भी और उन सभी को, जिन्हें अपने वर्ग, शिक्षा, धर्म की बदौलत थोड़े भी विशेषाधिकार मिले हुए हैं, उन्हें प्रश्न तो उठाने होंगे, गलत होते जाने की रवायत को बदलने का हौसला तो रखना होगा, तभी तो हम इंसान बने रहेंगे.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)