सर्वेश्वर चुप रहने वाले कवि नहीं थे…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.

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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना. (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

राजनीति में तो इन दिनों भूलने और याद न करने की एक बड़ी मुहिम चली हुई है: हम वह भूल जाएं जो सचमुच हुआ था लेकिन वह याद कर लें जो कभी हुआ ही नहीं. पर साहित्य में भी, दुर्भाग्य से लगभग, स्वाभाविक रूप से, यह होता रहा है कि नई पीढ़ियां पुरानी पीढ़ियों के कुछ लेखकों और कृतियों को याद रखती हैं और बाक़ी को भूल जाती हैं जबकि उनमें से कई तब भी और अब भी महत्वपूर्ण होती हैं.

ऐसे ही एक कवि-लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं जिन्हें इन दिनों उनकी कुछ राजनीतिक कविताओं के कारण तो याद किया जा रहा है पर उनका ज़्यादातर भुला दिया गया है जबकि अपनी तीन दशकों में फैली सक्रियता में वे एक बड़ी उपस्थिति थे. लगभग बीस बरस पहले उनकी रचनावली नौ खंडों में प्रकाशित हुई पर वे स्मृति-पटल से ओझल ही हो गए. रज़ा फाउंडेशन की विस्मृत कवियों को याद करने की एक सीरीज में पिछले दिनों एक शाम उन्हें याद किया गया. सर्वेश्वर जी को गए 40 वर्ष होने आए और कुल 4 बरस बाद उनकी जन्मशती होगी.

सर्वेश्वर जब हिंदी परिदृश्य में 1950 के आस-पास उभरे थे तो उनके साथ रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, धर्मवीर भारती, अजित कुमार, कुंवर नारायण, लक्ष्मीकांत वर्मा, श्रीकांत वर्मा आदि उनके समकालीन थे. सर्वेश्वर की कविता के वितान में उच्छल भावप्रवणता और बौद्धिक प्रखरता, कस्बाई संवेदना और कठोर नागरिक चेतना, कुआनो नदी और दिल्ली, बेचैनी-प्रश्नाकुलता और वैचारिक उद्वेलन आदि सभी मिलते हैं. वे उस समुदाय के अकेले कवि थे जिनके पास गहरी लोकस्मृति थी जो अंत तक उनके साथ रही.

एक लोकगीत को आधुनिक कविता में बदलते हुए उन्होंने भले कहा हो ‘चुपाई मारौ दुलहिन’ लेकिन सर्वेश्वर चुप रहने वाले कवि नहीं थे और स्वयं मुखर होकर कायर ओर चतुर चुप्पियों की भर्त्सना करने से नहीं चूके. उन्होंने अपने एक कविता संग्रह की भूमिका में लिखा था:

‘मैं यह जानता हूं कि कविता से समाज नहीं बदला जा सकता. जिससे बदला जा सकता है वह क्षमता मुझमें नहीं है. फिर मैं क्या करूं? चुप रहूं? उसे खुश करने का नाटक करूं, भड़ैंती करूं? वह मेरे मान का नहीं. सच तो यह है कि मैं कविता लिखकर केवल अपना होना प्रमाणित करता हूं. मैं यह मानता हूं कि हम जिस समाज में हैं, जिस दुनिया में हैं वहां हमें अपना होना प्रमाणित करना है…’

सर्वेश्वर की कई कविताओं को हम आज से क्रूर यथार्थ के बारे में, अप्रत्याशित रूप से, होने की तरह देख सकते हैं:

यह क्या हुआ
देखते-देखते
चारों तरफ़ गोबरैले छा गए.
गोबरैले-
काली चमकदार पीठ लिए
गंदगी से अपनी-अपनी दुनिया रचते
ढकेलते आगे बढ़ रहे हें
आत्मविश्वास के साथ!

जितनी विष्ठा
उतनी निष्ठा.

‘भेड़िया-2’ का एक अंश है:

भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ.
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फ़र्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता.

इस कविता का समापन यों होता है:

फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल
बर्फ़ में छोड़ दो
भूखे भेड़िये आपस में गुर्राएंगे
एक दूसरे को चीथ खाएंगे.

भेड़िये मर चुके होंगे
और तुम?

इन दिनों काफ़ी वायरल हो रही उनकी कविता ‘कभी मत करो माफ़-1’ में सर्वेश्वर शुरू में कहते हैं कि ‘यदि तुम्हारे घर के/एक कमरे में आग लगी हो/तो क्या तुम/दूसरे कमरे में सो सकते हो?’ और समापन करते हैं इस इसरार से कि ‘इस दुनिया में/आदमी की जान से बड़ा/कुछ भी नहीं है/न ईश्वर/न ज्ञान/न चुनाव/न संविधान. इनके नाम पर/कागज पर लिखी कोई भी इबारत/फाड़ी जा सकती है/और ज़मीन पर सात परतों के भीतर/गाड़ी जा सकती है.’

अज्ञेय ने, जो सर्वेश्वर के प्रथम पुरस्कर्ता भी थे, उचित ही कहा था कि ‘समकालीन सत्य और यथार्थ को जो कवि सफल और सबल हाथों से पकड़ सके हैं- जो सच्चे अर्थ में समकालीन जीवन में संपृक्त हैं- उनमें सर्वेश्वर जी का विशेष स्थान है.’

‘दिनमान’ साप्ताहिक में सर्वेश्वर साहित्य, संगीत, नृत्य, रंगमंच आदि पर समीक्षा भी लिखते थे. वे काफ़ी सख़्ती से लिखते थे. रघुवीर सहाय के बारे में वे लिखते हैं:

‘… रघुवीर सहाय उन कवियों में से हैं जो अपने से तटस्थ होकर, निर्मम होकर रचना करते हैं. ऐसा कर पाना जहां कवि का बहुत बड़ा गुण है वहीं वह कवि को कृत्रिमता में भी उलझा सकता है और निरंतर गहराई की खोज से विमुख भी कर सकता है.’

अजित कुमार के बारे में उनका मत है कि ‘अजित कुमार की कविता अज्ञेय और रघुवीर सहाय की भाषा की नक़ल में दुर्घटनाग्रस्त हो गई है.’

अज्ञेय के बारे में वे कहते हैं कि ‘अज्ञेय अब अपनी काव्य साधना के ऐसे शिखर पर पहुंच गए हैं जहां उनसे बदलाव की आशा करना व्यर्थ है बल्कि उनके प्रति अन्याय भी… अज्ञेय की रचनात्मक चिंता उन्हें बाहर की यात्रा से काटकर अंतर की यात्रा से जोड़ती है जो उनका गुण भी है और दुर्गुण भी.

श्रीकांत वर्मा के बारे में वे कहते हैं: ‘श्रीकांत ने अपनी कविता का बंधन तोड़ने के लिए फैलाव स्वीकार किया है जो स्वागतयोग्य है पर अपनी ही पुरानी कविताओं की शक्ति उन्हें अभी खोजनी है.’

सर्वेश्वर अपने से युवतर पीढ़ियों के कवियों को भी कोई रू-रियायत नहीं देते थे. उन्होंने ‘पहचान’ पत्रिका की अंतिम संख्या में प्रकाशित आग्नेय और सोमदत्त को लगभग खारिज़ करते हुए विष्णु नागर के पहले कविता संग्रह के बारे में लिखा: ‘यदि कविता सिर्फ़ चतुराई का नाम होती तो विष्णु नागर इन पांच कवियों में महाकवि होते. वह पहेली बनाते हैं कविता नहीं और दुर्भाग्य है उनका कि पहेली भी नहीं बना पाते. अंततः उनका उद्देश्य कविता से चौंकाने का ही लगता है और वे चाहते हैं कि कविरूप में दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींच लें.’

सिर्फ़ एक कवि जितेंद्र कुमार में उन्हें कोई दोष या कमी नज़र नहीं आती. वे कहते हैं: ‘कविता की वापसी के इस शोर में जितेंद्र कुमार की कविताएं ख़ामोश सादगी की कविताएं हैं… कविताओं में कोई बड़बोलापन नहीं है. गहरी अनुभूति की ख़ामोशी है जो इतनी तरल नहीं कि बह जाए, न ही इतनी ठोस कि भारी होकर जम जाए… राजनीतिक पतवादी इन कविताओं पर रूपवादी होने का आरोप नहीं लगा सकेंगे क्योंकि इन कविताओं ने जो रूप ग्रहण किया है वह सहज विन्यासित है. वह किसी विचार को छिपा ले जाने या उससे पलायन करने के लिए नहीं अपनाया गया है.’

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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