फरवरी 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने की घटना के एक दिन बाद डेरोल रेलवे स्टेशन पर हुए दंगों से संबंधित चार मामलों में 52 लोगों को आरोपी बनाया गया था, जिनमें से 17 की मुक़दमे के दौरान मौत हो गई. अब स्थानीय अदालत ने ‘सबूतों की कमी’ का हवाला देते हुए बाक़ी सभी आरोपियों को बरी कर दिया.
नई दिल्ली: गुजरात के पंचमहल जिले के हलोल की एक सत्र अदालत ने 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के चार मामलों में सभी 35 जीवित आरोपियों को बरी कर दिया है. दंगों में 3 लोगों की मौत हुई थी.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मुकदमे के दौरान गवाहों के पलट जाने के कारण ‘सबूतों की कमी’ के कारण आरोपियों को बरी कर दिया गया.
12 जून के अपने आदेश में, जो 15 जून को उपलब्ध हुआ, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हर्ष त्रिवेदी की अदालत ने दंगों के सुनियोजित होने का दावा करने के लिए ‘छद्म-धर्मनिरपेक्ष मीडिया और नेताओं’ को भी फटकार लगाई.
हलोल के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हर्ष त्रिवेदी ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन संदेह से परे यह साबित करने में विफल रहा कि अभियुक्त दंगों के चार मामलों में शामिल थे, जिनमें रूहुल पड़वा, हारून अब्दुल सत्तार तसिया और यूसुफ इब्राहिम शेख को कथित रूप से घातक हथियारों का इस्तेमाल करके मार डाला गया था और फिर अपराध के सबूतों को गायब करने के लिए उन्हें जला दिया गया था. यह घटना गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगने की घटना के एक दिन बाद 28 फरवरी 2002 को डेरोल रेलवे स्टेशन पर हुई थी.
अदालत ने कहा कि सभी 35 अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है क्योंकि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अभियुक्तों ने उन धाराओं के तहत अपराध किया था, जो उन पर लगाई गई थीं. कुल मिलाकर 2002 में कलोल पुलिस थाने में दर्ज मामलों में 52 लोगों को आरोपी बनाया गया था. उनमें से 17 लोगों की मुकदमे की सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई थी. मुकदमा 20 से अधिक वर्षों तक चला.
अदालत ने यह भी कहा कि पीड़ित विभिन्न अधिकारियों के सामने दर्ज कराए गए अपने बयानों में असंगत थे. अदालत ने कहा, ‘मामले में अभियोजन पक्ष के गवाहों, विशेष रूप से दंगों के कथित पीड़ित मुस्लिम गवाहों ने दंगों के व्यापक रूप से भिन्न-भिन्न विवरण दिए हैं…’
अदालत ने आगे कहा, ‘इसके अलावा, दोषियों के साथ-साथ निर्दोष व्यक्तियों को फंसाए जाने का एक बड़ा खतरा है. यह देखते हुए कि ऐसे मामलों में पक्षकार अपने अधिक से अधिक दुश्मनों को फंसाने की कोशिश करते हैं, इसलिए निर्दोष व्यक्तियों को झूठा फंसाए जाने की संभावना को न्यायाधीश द्वारा हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए.’
अदालत ने पाया कि मामलों में पुलिस गवाह अविश्वसनीय थे क्योंकि उनमें से किसी ने भी जांच के दौरान और मुकदमे के दौरान बदमाशों की पहचान नहीं की है.
प्रमुख गुजराती लेखक और कांग्रेस नेता कन्हैयालाल मुंशी का हवाला देते हुए अदालत ने कहा, ‘कन्हैयालाल मुंशी ने एक बार कहा था कि यदि हर बार अंतर-सांप्रदायिक संघर्ष होता है, तो बहुमत को दोषी ठहराया जाता है… इस मामले में पुलिस ने अनावश्यक रूप से अपराध में अभियुक्तों को फंसाया है. पुलिस ने हिंदू समुदाय से आने वाले क्षेत्र के प्रमुख हिंदू व्यक्तियों- डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, व्यवसायी, पंचायत अधिकारी आदि- को फंसाया. सूडो-सेकुलर मीडिया और संगठनों के हंगामे के कारण आरोपी व्यक्तियों को अनावश्यक रूप से लंबे मुकदमे का सामना करना पड़ा है.’
आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था जिसमें गैरकानूनी सभा, दंगा और डकैती के साथ अन्य धाराएं शामिल हैं. साथ ही साथ बॉम्बे पुलिस अधिनियम की धारा 135 के तहत भी मामला दर्ज किया गया था.