कुंवर नारायण के काव्य में अवध की विद्रोही चेतना, गंगा जमुनी तहजीब, नए-पुराने के बीच समन्वय और भौतिकता व आध्यात्मिकता के बीच समन्वय की सोच विद्यमान है.
कुंवर नारायण मूलतः विद्रोह और समन्वय के कवि हैं और यही मानव की मूल दार्शनिक प्रवृत्ति है. इसी भाव में व्यक्ति और उसका संसार चलता है और इसी भाव में एक पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी से टकराती है और इसी दार्शनिक भाव के बीच एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था निकलती है.
इसी द्वंद्व के बीच एक सत और असत का निर्धारण होता है और उसी से सच के कई अंधेरे पहलुओं से परदा उठता है और उसके नए रूप प्रकट होते हैं.
कुंवर नारायण का जाना स्वाधीनता संग्राम की उस पीढ़ी का जाना है जिसने इस देश को सिर्फ राजनीतिक स्तर पर ही नहीं दार्शनिक स्तर पर ढूंढने का प्रयास किया था और बीसवीं सदी के सर्वाधिक चेतनाशील दौर में अपने सपने को आकार दिया था.
विचित्र संयोग की बात है कि कुंवर नारायण का जन्म 1927 में उस समय हुआ जब देश अंग्रेजों से मुक्ति का आंदोलन लड़ रहा था और जब वे गए तो देश की बुद्धि और चेतना को कुंठित करने और उसे किसी नेता की डिब्बी में, तो किसी संगठन के ध्वज में, चंद नारों में या कानून की किसी दफाओं में कैद करने का प्रयास चल रहा है.
इसी दमघोटूं दौर को लक्षित करते हुए वे ‘अयोध्या’ में राम को सलाह देते हैं कि हे राम तुम लौट जाओ वापस क्योंकि यह तुम्हारा त्रेता युग नहीं यह नेता युग है. यहां अयोध्या को ही लंका बना दिया गया है.
अगर कुंवर जी की जीवन यात्रा अयोध्या से दिल्ली के बीच सिमटी हुई है तो उनकी काव्ययात्रा आत्मजयी और बाजश्रवा के बहाने के बीच. यही दो काव्य कुंवर जी के सृजन के मूल में हैं यही हमारी चेतना के भी.
यह हमारी राजनीति की यात्रा का भी प्रतीक है और हमारे समाज की सांस्कृतिक यात्रा का भी.
भारतीय परंपरा और दर्शन पर केंद्रित यह काव्य कठोपनिषद की कथा में पिरोए गए दार्शनिक संवाद के माध्यम से हम आज के समय से टकराते हैं और सृष्टि-बोध, शांति-बोध, सौंदर्य-बोध और मुक्ति-बोध ढूंढने की कोशिश करते हैं.
यही युवा पीढ़ी का उद्देश्य है जो अधिकार जमाने वाली पिछली पीढ़ी से टकरा कर नए समाज की रचना करती है.
इसीलिए आत्मजयी काव्य में नचिकेता कहता हैः—
असहमति को अवसर दो. सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके…..
उसे हताश मत करो
उपेक्षा से खिन्न न हो जाए कहीं
मनुष्य की साहसिकता
अमूल्य थाती है यह सबकी
इसे स्वर्ग के लालच में छीन लेने का
किसी को अधिकार नहीं.
आह तुम समझते नहीं पिता,
नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है….
सत्य जिसे हम इतनी आसानी से
अपनी अपनी तरफ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही सा रहा है.
कुंवर नारायण बीसवीं सदी की इसी विद्रोही चेतना को जगाते रहने वाले कवि हैं और उसकी प्रेरणा उन्हें सिर्फ प्राचीन ग्रंथों और अपनी काव्य दृष्टि से ही नहीं मिली बल्कि अपने आसपास घटित हो रहे राजनीतिक आंदोलनों से भी प्राप्त हुई.
फैजाबाद के एक संपन्न खत्री परिवार में जन्मे कुंवर नारायण के इर्दगिर्द गांधीवादी आंदोलन के साथ समाजवादी आंदोलन भी सक्रिय था.
समाजवादी आंदोलन की दो बड़ी विभूतियां आचार्य नरेंद्र देव और डा राम मनोहर लोहिया उसी जिले से थे. वे लोग उनके घर भी आते थे और कुंवर जी का लखनऊ से लेकर बनारस तक ऐसे कई परिवारों के बीच आना जाना था जिनमें उन लोगों का पदार्पण होता था.
यह सही है कि कुंवर नारायण को अपने जीवन में आर्थिक संघर्ष कभी नहीं करना पड़ा लेकिन वे अपनी पीढ़ी और अपने समाज के लिए सदैव आत्मसंघर्ष करते रहे.
उनका यह संघर्ष हमारे युग की विचारधाराओं का संघर्ष है. हमारे युग के सत्य के अन्वेषण का संघर्ष है और अतिसंघर्ष से ऊबे मनुष्य के समन्वय का विवेक है.
कुंवर नारायण हिंदी की व्यापक जातीय चेतना के कवि हैं और उनकी व्याप्ति सार्वजनीन, सार्वदेशिक और सर्वकालिक हैं.
इसके बावजूद उनकी काव्य चेतना में अवध की विद्रोही चेतना, गंगा जमुनी तहजीब और नए पुराने के बीच समन्वय और भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच समन्वय की सोच विद्यमान है.
उनमें वह तहजीब है जो हमारी सभ्यता और राष्ट्रीयता के लिए जरूरी है और जिसे घृणा और युद्ध की नवनिर्मित इच्छा में हम भूलते जा रहे हैं.
विडंबना है कि पिछली सदी में युद्ध को भोग चुका मानव इस सदी में फिर युद्ध के बहाने खोज रहा है. वैसे लोगों के लिए अपने से दूर गए पुत्र की वापसी पर होने वाली खुशी को कुंवर नारायण ‘वाजश्रवा के बहाने’ में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैः—
तुमको खोकर मैंने जाना
कि हमें क्या चाहिए
कितना चाहिए
क्यों चाहिए संपूर्ण पृथ्वी
जबकि उसका एक कोना
बहुत है देह बराबर जीवन
जीने के लिए
और पूरा आकाश खाली पड़ा है
एक छोटे से अहं को भरने के लिए
दल और कतारें बनाकर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं
दूसरों को मारकर
जबकि सब कुछ जीता जा चुका है
हारा जा चुका है जीवन के अंतिम
सरहदों पर
नचिकेता का पिता वाजश्रवा से संवाद करके विद्रोह करना, यम के पास जाना और मृत्यु व सत्य का रहस्य जानना हर वर्तमान की आवश्यकता है.
कोई युवा अगर पिता से विद्रोह नहीं करता तो वह नया कुछ सृजित नहीं कर पाता. यह सामान्य जीवन का भी अनुभव है कि अक्सर पुत्रों को अपने पिता ही सबसे ज्यादा अत्याचारी लगते हैं.
उन्हें लगता है कि वे एक दकियानूसी सोच में कैद हैं और उनके जीवन को कुंठित कर देना चाहते हैं. इसीलिए युवा अपनी परंपराओं से, अपने घर से और अपने पिता से विद्रोह करने का जोखिम उठाता है.
लेकिन यह भी व्यापक अनुभव है कि जब वह जीवन में लंबी दूरी तय कर चुका होता है तो उसे अहसास होता है कि पिता से लड़ना निरर्थक था, उनकी कितनी बातें सही थीं और उनके पास लौटना कितना जरूरी.
पुराने संबंधों को तोड़कर दूर निकलने और फिर उन्हें पाने के लिए लौट आने की कथा ही आत्मजयी और बाजश्रवा के बहाने के बीच चलती रहती है. यही हमारी सभ्यता की क्रांति और निरंतरता की भावना है और यही हमें मानवीय भी बनाती है.
इसीलिए जब नचिकेता वापस आता है तो गृह आतुरता की भावना घेर लेती है और वह पिता से मिलकर बेहद भावुक हो जाता है. हालांकि तब तक बहुत कुछ बदल चुका होता है. उन्हीं स्थितियों को कुंवर जी इन शब्दों में व्यक्त करते हैः—
पिता से गले मिलता
आश्वस्त होता नचिकेता
कि उसका संसार अभी जीवित है
उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे के तुतलाते हस्ताक्षर
कि मां केवल एक शब्द
नहीं समूची भाषा है
अच्छा लगता
बार-बार कहीं
दूर से लौटना
अपनों के पास
उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें हों
असंख्य समय हो
और लौटने के लिए
हर जगह अपना
एक घर
यात्राओं की यही अनंत इच्छा लिए हमारी सभ्यता विचरण करती है. कभी इस महाद्वीप से उस महाद्वीप तक तो कभी इस वन से उस वन तक और कभी इस ग्रह से उस ग्रह तक.
यह यात्रा व्यक्तिगत भी है और समष्टिगत. लेकिन इस यात्रा में अपने मूल पर लौट कर आने की एक इच्छा सदैव विद्यमान रहती है. पर वह लौटना स्वाभाविक होना चाहिए, जबरदस्ती का नहीं. इस यात्रा और वापसी में असहमति को अवसर देना चाहिए और सहिष्णुता को आचरण.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)