जब क्वीन विक्टोरिया ने अवध की राजमाता से मिलना तक ज़रूरी नहीं समझा था…

1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अवध के नवाब वाजिद अली शाह को जबरन अपदस्थ कर निर्वासित किए जाने के बाद उनकी मां एक शिष्टमंडल के साथ ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया से मिलने लंदन गई थीं. लेकिन विक्टोरिया ने मदद तो दूर, दस महीनों तक उनसे भेंट करना गवारा नहीं किया.

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ब्रिटेन के साउथहैंपटन में मलिका-ए-किश्वर. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अवध के नवाब वाजिद अली शाह को जबरन अपदस्थ कर निर्वासित किए जाने के बाद उनकी मां एक शिष्टमंडल के साथ ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया से मिलने लंदन गई थीं. लेकिन विक्टोरिया ने मदद तो दूर, दस महीनों तक उनसे भेंट करना गवारा नहीं किया.

ब्रिटेन के साउथहैंपटन में मलिका-ए-किश्वर. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा फरवरी, 1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को खलनायक बनाकर छल-बल से जबरन अपदस्थ व निर्वासित कर दिए जाने के बाद का वह जून का जलता हुआ महीना था, जब जनाब-ए-आलिया, मलिका-ए-किश्वर (राजमाता) व मरियम मकानी (विश्वमाता) कहलाने वाली नवाब की मां अपने सूबे के एक सौ चालीस जाने-माने लोगों के शिष्टमंडल के साथ ब्रिटेन की क्वीन विक्टोरिया से कंपनी की शिकायत करने गईं और अपनी उम्मीद के विपरीत उनके सत्तामद की ऐसी शिकार हुईं कि नाना विघ्नों व विपत्तियों के बीच उनके लिए स्वदेश लौटना भी दूभर हो गया.

उनके शिष्टमंडल में निर्वासित वाजिद अली शाह के भाई सिकंदर हशमत और युवराज मिर्जा हामिद अली बहादुर भी शामिल थे और सबको पूरा विश्वास था कि जैसे ही क्वीन को पता चलेगा कि कंपनी ने कैसी-कैसी कुटिल चालें चलकर वाजिद को बेहद असम्मानपूर्वक गद्दी से उतारा व निर्वासित किया है, वे न सिर्फ उसके फैसले को पलटकर उनका राजपाट उन्हें वापस लौटा देंगी, बल्कि नाइंसाफी बरतकर उनके साम्राज्य का नाम खराब करने वाले कंपनी के अफसरों को कड़ी से कड़ी सजा भी देंगी.

उनका यह विश्वास इस कारण कुछ ज्यादा ही मजबूत था कि उन दिनों अंग्रेज पूरी दुनिया में अपनी ‘सभ्यता’ का डंका बजा और उसके विस्तार का मिशन चला रहे थे. फिर उन्हीं दिनों क्यों, अपनी इस ‘सभ्यता’ का उनका गुमान (अलबत्ता, बेवजह) तो 1782 में भी ऐसा था कि उसने गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग से ब्रिटिश ससंद में महाभियोग का सामना करवा लिया था. उसका कुसूर यह था कि उसने अपने बेटे आसफउद्दौला से नाराजगी के कारण लखनऊ के बजाय फैजाबाद में रह रही बहू बेगम को 28 जनवरी, 1782 को आसफउद्दौला के ही हाथों सैनिकों से घिरवाने व लुटवाने ने ‘गर्हित भूमिका’ निभाकर अंग्रेजों की ‘उजली सभ्यता’ का नाम खराब कर डाला था.

बहरहाल, जानकारों के अनुसार पहले मलिका-ए-किश्वर के बजाय वाजिद अली शाह खुद ईस्ट इंडिया कंपनी की शिकायत के मिशन पर लंदन जाने वाले थे. लेकिन ऐन वक्त उन्हें पेचिश की बीमारी हो गई और डाॅक्टरों ने सलाह दी कि ऐसे में उनका लंदन की कठिन यात्रा पर जाना ठीक नहीं होगा. तब उन्होंने अपने भाई व युवराज के साथ मां को शिष्टमंडल की नेता बनाकर भेजा. निस्संदेह वे भी अपने साथ हुई नाइंसाफी के खात्मे की उम्मीद कर रहे थे.

इतिहासकारों की मानें, तो मलिका-ए-किश्वर को, जिनका एक और नाम ताजआरा बेगम था, बिना जरूरत दरे-दौलत से बाहर जाना सख्त नापसंद था. वे इतनी नाजुकमिजाज थीं कि अपने सुनहरे दिनों में लखनऊ में अपने रहने की जगहें मौसम के मिजाज के हिसाब से बदलती रहती थीं. जाड़ों में ‘छत्तर मंजिल’ में रहतीं, गर्मियों में ‘चौलक्खी कोठी’ में जबकि बरसातें ‘हवेली बाग द्वारिकादास’ में गुजारतीं. कभी तफरीह के लिए निकलतीं तो सैकड़ों खादिमाओं के साथ. एक बार जो पोशाक उनके जिस्म को छू लेती, दोबारा उसे कभी नहीं पहनतीं. ऐसी पोशाकें उनकी बांदियों व खवासों में बांट दी जाती थीं, लेकिन उन पर किया गया गंगा-जमुनी काम और सिलाई की बखिया उधेड़ दी जाती थी. ताकि उनके जिस्म के नाप का किसी भी बाहरी व्यक्ति को अंदाजा न हो सके. वे खूब जेवर पहनतीं और मूड के मुताबिक कहानियां सुनती थीं. उन्हें किस्से सुनाकर उनका मन बहलाने के लिए भी कई किस्सागो रखी गई थीं.

फिर भी उन्होंने ब्रिटेन की मलिका से ईस्ट इंडिया कंपनी की शिकायत के लिए लंदन जाने का जोखिम उठाया तो इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि उनको पूरा यकीन था कि चूंकि मलिका विक्टोरिया महिला भी हैं और मां भी, वे एक मां की यानी उनकी सीधी-सच्ची दरखास्त पर जरूर पिघल जाएंगी. उन्हें प्रसन्न करने के लिए वे बेशकीमती तोहफे, अल्मास, याकूत और जमुर्रुद के गंगा-जमुनी हार, जवाहरात जड़ी कंघी, सच्चे मोतियों की माला, बेहतरीन अंगूठियां, कीमती गंगा-जमुनी काम की एक से बढ़कर एक बेहतरीन पोशाकें और चांदी के थालों में तीस हजार रुपयों के सिक्के सौगात के तौर पर ले गई थीं.

कलकत्ता के मटियाबुर्ज से, जहां वे उन दिनों अपने अपदस्थ व निर्वासित पुत्र वाजिद अली शाह के साथ रहने को मजबूर थीं, रात के बारह बजे आरंभ हुए उनके इस मिशन को पूरी तरह गुप्त रखा गया था. इतना गुप्त कि उसकी किसी और अंग्रेज अफसर तो क्या, गवर्नर जनरल को भी सूचना नहीं दी गई थी. गवर्नर जनरल को 16 जून, 1856 की सुबह तब इसका पता चला था, जब मलिका-ए-किश्वर अपने साथियों के साथ समुद्र के रास्ते बहुत दूर निकल गई थीं.

लेकिन आगे कई और विपत्तियां उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं. जैसे ही उनका काफिला मिस्र पहुंचा, हीरे-जवाहरात व दस लाख रुपयों समेत उनका एक संदूक समुद्र में कहीं गिर गया और लाख ढूंढने पर भी नहीं मिला. कहते हैं कि उसमें एक करोड़ रुपये की चीजें थीं. आज के एक करोड़ रुपये की नहीं, उस वक्त के. लेकिन बेगम करतीं तो क्या करतीं, हाथ मलकर रह गई.

उन्हें इससे भी बड़ा अफसोस तक हुआ, जब अंग्रेज अपनी जिस ‘सभ्यता’ पर बड़ा घमंड करते थे, उसे तिलांजलि देकर क्वीन विक्टोरिया ने दस महीनों तक उनसे भेंट करना गवारा नहीं किया और सिद्ध करने लगीं कि सत्ताएं क्रूर हो जाएं तो न उनकी क्रूरता की कोई सीमा रह जाती है और न ही उन्हें किसी सभ्यता की रक्षा की फिक्रमंद रहने देती हैं.

जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, लंदन में ये दस महीने अवध की राजमाता पर बहुत भारी पड़े. इतने कि उन्हें बारंबार खून के आंसू पीने पड़े. इतने लंबे प्रवास का खर्च उठाने के लिए उन्हें अपने बेशकीमती जेवर तक बेच देने पड़े. फिर चार जुलाई, 1857 को उनकी और क्वीन विक्टोरिया की भेंट के लिए खास जनाना दरबार लगाया गया, तो भी दोनों की भेंट दुआ-सलाम तक सीमित रह गई. प्रिंस एडवर्ड भी, जो तब 12 वर्ष के थे, इस भेंट के दौरान उपस्थित थे और अवध की राजमाता ने भेंट के दौरान उनका बहुत मान व दुलार किया था.

लेकिन इसके बावजूद विक्टोरिया ने पसीजने से इनकार कर दिया. उन्होंने हफ्ते भर बाद फिर बात करने का वायदा जरूर किया, लेकिन उसे निभाया नहीं, क्योंकि तब तक उन्हें सूचना मिल गई थी कि अवध में बागी देसी फौजों ने बेगम हजरत महल के साथ मिलकर बगावत कर दी है और लखनऊ में अंग्रेज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगे हैं. उन्हें यह भी पता चल चुका था कि जब बकिंघम पैलेस में अवध की राजमाता उनसे हाथ मिला रही थीं, लखनऊ में अंग्रेज रेजीडेंसी में गोलीबारी झेल रहे थे.

फिर तो उनका रवैया पूरी तरह बदल गया था और उन्होंने यह तक नहीं समझना चाहा था कि अवध की राजमाता की शिकायत में दम नहीं होता तो ‘विलासिता में डूबा’ लखनऊ यों तोपों और तलवारों से दो-दो हाथ कर इतिहास में अपना नया परिचय क्यों दर्ज कराता?

विडंबना यह कि राजमाता की आरजू-मिनती के साथ मिशन के दौरान उनका सारा किया-धरा बेकार हो गया तो भी उनके बुरे दिनों का अंत नहीं हुआ. उस दुर्दिन में उनके साथ गए शिष्टमंडल में भी मतभेद उभर आए और वह गुटों में बंट गया. इसके चलते राजमाता फांस व मक्का के रास्ते स्वदेश लौटकर आखिरी बार अवध की धरती को चूमने का अपना अरमान भी पूरा नहीं कर पाईं क्योंकि निराश होकर देश लौटने की यात्रा शुरू करने के अगले ही दिन पेरिस पहुंचते-पहुंचते उन्हें इतना रक्तस्राव होने लगा कि वहीं उनके प्राण निकल गए.

पेरिस में मलिका-ए-किश्वर की क़ब्र. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

आनन-फानन में उनको वहीं दफनाने का फैसला किया गया, तो उनके जनाजे में शाह-ए-ईरान और रोम के सुल्तान भी आए. फिर तो उनकी कब्र के लिए तीस हजार रुपयों की जमीन खरीदी गई और उस पर 10 हजार रुपयों का संगमरमर लगाया गया. बाद में फ्रांस की सरकार ने वहां एक मस्जिद भी बनवाई.

दूसरी ओर, वाजिद के भाई सिकंदर हशमत राजमाता से भी ज्यादा मुश्किलों में फंसे. उनकी लंदन में ही अपनी दो नवजात बेटियों के साथ मौत हो गई. अलबत्ता, युवराज मिर्जा हामिद अली बहादुर सुरक्षित रहे लेकिन अफसोस कि मजबूरी-ए-हालात ने उन्हें रोने का मौका भी नहीं दिया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.) 

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