हिंदी अंचल को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. उसका लक्ष्य बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटा सांप्रदायिकता-हिंसा, भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग को बढ़ावा देना है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. उसका लक्ष्य बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटा सांप्रदायिकता-हिंसा, भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग को बढ़ावा देना है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

ग़ालिब ने ‘ज़हराब’ यानी ज़हरीला पानी का इस्तेमाल अपने एक शेर में रूपक की तरह किया था. लेकिन इस समय हिंदी अंचल में ज़हराब की बाढ़-सी लाने का एक बहुत सोचा-समझा और राजनीतिक रूप से वोट-खींचू अभियान शुरू हो गया है. अनेक विश्लेषणकारों ने इसकी आशंका जताई थी और वह तेज़ी से सचाई में बदलती जा रही है.

यह ज़हराब नफ़रत, झूठ, लांछन, अफ़वाह, उत्तेजक सार्वजनिक वक्तव्यों और आधी-अधूरी ख़बरों से मिलकर बना है. उसका लक्ष्य धर्म-संप्रदाय-जाति आदि को लेकर धर्मांधता-सांप्रदायिकता-हिंसा, आपसी भेदभाव और सामाजिक समरसता के भंग आदि को बढ़ावा देना है. ज़ाहिर है कि यह लक्ष्य 2024 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर निर्धारित किया गया है और इसके पीछे यह सूझ-बूझ सक्रिय है कि हिंदी अंचल ऐसा है जहां यह ज़हराब आसानी से फैल और चुनाव जीता जा सकता है.

इसका एक चतुर-दुष्ट पक्ष यह भी है कि बढ़ती विषमताओं, बेरोज़गारी, बेकारी, महंगाई आदि के ज्वलंत मुद्दों से जनता का ध्यान हटा दिया जाए और सांप्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण में उसे फंसाकर फिर एक बार झांसों में ला दिया जाए. मध्य प्रदेश, उत्तराखंड आदि में इस अभियान की शुरुआत की जा चुकी है.

यही मुक़ाम है कि हिंदी अंचल को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार कर सकना चाहिए. क्या जब ग़रीबी और विषमताएं लगातार बढ़ रही हैं, शिक्षा को ख़र्चीला बाज़ारू बनाया जा रहा है, जब करोड़ों नौजवान शिक्षित होकर भी बेकार हैं और बेरोज़गारी बेतरह बढ़ रही है, जब भारतीय सभ्यता-भारतीय संस्कृति-भारतीय परंपरा-भारतीय धर्मों के सभी उजले मानवीय मूल्य और स्मृतियां कुचली जा रही हैं; जब सत्ता से असहमत होने के लोकतांत्रिक अधिकार को सख़्ती से दबाया जा रहा है, जब पुलिस मनमानी कर अन्याय और अत्याचार का बल बन गई है; जब संवैधानिक संस्थाएं और न्यायालय तक पक्षपाती आचरण करने लगे हैं तब इन सबको भुलाकर हिंदी अंचल हिंदू-मुसलमान के खेल में फंसकर, सतही धर्मांधता और सांप्रदायिकता के खूंख़ार झांसे में आकर उन शक्तियों का साथ देगा जिनके किए-धरे का हम शिकार हैं.

इस अंचल को अपने साहित्य और कलाओं, अपने उदग्र विचारकों को इस क़दर नहीं भुला देना चाहिए कि उसके पास संघर्ष करने, विचार करने, विवेक का साथ देने, बिगड़े संतुलन को दुररस्त करने, अपनी सच्ची नागरिकता को स्वतंत्रता-समता-न्याय के पक्ष में सन्नद्ध करने की प्रेरणा और क्षमता, इच्छा और संकल्प ही न बचे. सारे देश की आंखें इस पर लगी हैं कि हिंदी अंचल की राजनीति में क्या होता है.

हिंदी और उसके अंचल को इस समय अपनी सभ्यतागत, लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी समझकर सार्वजनिक आचरण करना चाहिए. अन्यथा हिंदी अंचल भारत-विचार की उदात्त, मानवीय और भारतीय दृष्टि के साथ विश्वासघात करेगा. हमें ज़हराब नहीं साफ़ पानी और साफ़-सुथरा माथा चाहिए जो झूठ-घृणा-अन्याय-अत्याचार का कड़ा प्रतिरोध कर सके.

दो सहचर चित्रकार

भारतीय अमूर्तन के मूर्धन्यों में गिने जाने वाले अम्बा दास की जन्मशती मनाई जा रही है: किसी सार्वजनिक संस्थान या अकादेमी द्वारा नहीं बल्कि निजी पहल पर. ऐसे एक आयोजन में अम्बा दास और जगदीश स्वामीनाथन के संबंध पर विचार करने का सुयोग जुटा. दोनों मित्र थे. ग्रुप 1890 में शामिल थे.

स्वामी एक बार भोपाल से अम्बा दास से मिलने नार्वे गये थे जहां वे बरसों से रह रहे थे. अम्बा दास स्वामी के निमंत्रण पर भारत भवन में अतिथि कलाकार के रूप में आए थे. यह मित्रता अपनी जगह है. पर उनका कला में साहचर्य एक अधिक गहरे स्तर पर था.

वैसे तो स्वामी ने कहा था कि ‘हमने कभी एक-दूसरे की आत्मा के रहस्यों की पड़ताल करने की कोशिश नहीं की’ पर, अगर उनकी कला का, उनकी आत्माओं से कुछ रिश्ता था तो उन्होंने उसके रहस्यों की पड़ताल सहज भाव से ज़रूर की. दोनों की कोशिश कला को प्रतिनिधित्व, अर्थ और इतिहास से मुक्त करने की थी.

उनकी चेष्टा कला को प्रशंसा, आलोचना और बाज़ार से अप्रभावित रखने की भी थी. राजनीति, विचारधारा और सामाजिक संप्रेषण से अलग दोनों ही कला की प्राथमिकता में विश्वास करते थे. दोनों का ही अक़ीदा था कि कला ज़रूरी तौर पर सचाई का अनुकरण या अनुगमन नहीं करती और अक्सर स्वयं सचाई होती है. दी हुई सचाई में इज़ाफ़ा, उसका विस्तार या उसके किसी अज्ञात पक्ष का उद्घाटन. दोनों की दृष्टि में कला में स्मृतियां, निजी अनुभव, जीवन-प्रसंग, कल्पना, सृजनात्मकता सभी आवयविक रूप से संगुम्फित होते हैं: कला स्मृति का रूप, कला सचाई का रूप, कला कल्पना का रूप, कला सत्यापन का रूप.

दोनों ही चित्रकार यह मानते थे कि कला मनुष्यों द्वारा रची जाती है और अपने आप अवतरित नहीं होती. वह मानवीयता का इसरार करती है लेकिन वह मानवीयता का वृत्तांत या उस पर रिपोर्ट नहीं होती. उन्हें पता था कि विचार अक्सर कला नहीं उपजाते, पर कला अक्सर विचार उपजाती है. कला की अपनी वैचारिक सत्ता होती है और उसे कहीं और विकसित विचारों का उपनिवेश बनाना कला-विरोधी काम है.

अम्बा दास अल्पभाषी थे: गहरे विनय में वे यह मानते थे कि उनके पास कहने को लगभग कुछ नहीं है. उनकी कला कुछ न कहने की कला भी है. उसकी निर्गुणता लगभग शुरू से ज़ाहिर है. उसमें, जैसा स्वामी अक्सर इसरार करते थे, सचाई के बिंब नहीं, बिंब की सचाई है. वह खुद है और किसी और के बारे में होने से इनकार करती है. कला को किसी न किसी के बारे में होने की जो व्यापक रूढ़ि है उससे दोनों ही कलाकार मुक्त थे.

अम्बा दास ने अपने बारे में भी बहुत कम लिखा. एक टिप्पणी में उन्होंने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उनमें से कुछ हैं: ‘असीम’, ‘स्पेस का हर हिस्सा सांस लेता है’, ‘कॉस्मिक संपूर्ण की अनंत व्यवस्था’, ‘सच्चा, शुद्ध और निराकार’, ‘रहस्योद्घाटन.’

वे यह जोड़ते हैं: ‘वह किसी चीज़ की तस्वीर नहीं है, वह स्वयं वह चीज़ है. क्रिया में ही रहस्योद्घाटन समाहित है. कला, सारी इच्छाओं और प्रतिवर्तनों से मुक्त और असंबद्ध, अभिव्यक्ति है सर्जनात्मक संकल्प की, अंदर से देखने पर आद्यरूपक और बाहर से अमूर्तन, लेकिन फिर भी, वही, ‘यह मैं नहीं हूं जो जीता है, वह मुझे जीती है.’

अम्बा दास इलियट की एक कविता से शब्‍द लेकर कहते हैं ‘न कहीं से, न किसी ओर’. अम्बा दास के यहां कॉस्मिक स्पंदन और दिग्वहीनता किसी को भी नज़र आती है. वे असीम के साधक हैं: उनके चित्र कई बार लगता है कि कैनवास की सीमा के पार अदृश्य हो जाते हैं.

स्वामीनाथन ने अम्बा दास के दो कैटलॉगों में टिप्पणियां लिखीं. उन्होंने कहा: ‘…कैनवास उद्बुद्ध करता है अपने बाहर के संसार के शाश्वत प्रवाह को, एक कॉस्मिक गति और गलियारे से स्पंदित होते हुए, फ्रेम के अंदर.’

उन्होंने जोड़ा: ‘…प्रकाशवर्ष पार करते हुए स्थिर चिंतन के एक क्षण में… स्वामी का मत है कि अम्बा दास की कला ‘मुक्ति की शांत आवाज है: एक दुनिया, क्षोभ और शांति की, विलय और संतुलन की, निराशा और अनुराग की, पर कभी भी घृणा की नहीं… खलबली की दुनिया, द्रुत परिवर्तन और तूफ़ानी ख़ामोशियों की….’ सारे उद्वेलन के बावजूद अम्बा दास के चित्रों और दृष्टि में जो केंद्रीय मौन है, जो अकथनीयता है उसे स्वामी ने बख़ूबी समझा.

अगर हम दोनों को साथ पढ़ें तो ज़ाहिर होगा कि इन दो चित्रकारों में परस्पर कितनी गहरी समझ और तादात्म्य था. दोनों की सिर्फ़ कला ही प्रचलित मुहावरों और शैलियों से अलग नहीं थी बल्कि कला को समझने की भाषा भी बिल्कुल अलग थी. दूसरी ओर, जिस शब्दावली में अम्बा दास अपने कला के बारे में कुछ बताते हैं, उससे मिलती-जुलती भाषा में स्वामीनाथन उसकी व्याख्या करते हैं. यह देखा और कहा जा सकता है कि यह मैत्री और साहचर्य आधुनिक भारतीय कला-जगत में बहुत कम और दुर्लभ रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)