पुण्यतिथि विशेष: वाराणसी की कोलअसला विधानसभा क्षेत्र से नौ बार विधायक रहे भाकपा नेता ऊदल को बंगले या मंत्री पद के आकर्षण कभी बांधकर नहीं रख सके. स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सम्मान पेंशन शुरू हुई तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि ‘यह जेल जाने, वहां यातनाएं सहने वालों के लिए है. मैं तो कभी गोरी पुलिस के हाथ लगा ही नहीं.’
जब से वाराणसी को क्योटो जैसी दिव्य बनाने का सपना (पढ़िए: सब्जबाग) दिखाया गया है, उसको कई दूसरे कारणों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जब तब होने वाले ‘भव्य’ दौरों के लिए भी जाना जाने लगा है. विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि इन दौरों की ‘सफलता’ के लिए राजकोष से पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, लेकिन उनका यह आरोप कोई नैतिक प्रश्न नहीं खड़ा कर जाता.
हालांकि स्वतंत्रता के बाद एक समय ऐसा भी था, जब वाराणसी राजनीतिक ईमानदारी व नैतिकता की राजधानी हुआ करती थी. कभी लालबहादुर शास्त्री और कभी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जमीनी नेता ऊदल के कारण. इनमें ऊदल की बात करें, जिनकी आज पुण्यतिथि है, तो जिले के कोलअसला विधानसभा क्षेत्र से नौ बार विधायक रहने के बावजूद अपने अंतिम दिनों में वे इलाज के लिए वाराणसी के एक अस्पताल में गए तो उनके हाथ बहुत तंग थे. प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को इसका पता चला और उन्होंने सरकारी सहायता भेजी तो उन्होंने उसे इस जवाब के साथ लौटा दिया कि मैंने आज तक वेतन व भत्तों के अलावा अपनी जनता का एक पैसा भी कभी अपने ऊपर खर्च नहीं किया. सो, अंतिम समय में भी यह गुनाह नहीं करूंगा.
उनकी राजनीतिक नैतिकता का आलम यह था कि भले ही वे भाकपा में थे, ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के प्रेरक नेताओं की मिसाल देते तो कम्युनिस्ट ईएमएस नंबूदरीपाद व विधानचंद्र राय के साथ लालबहादुर शास्त्री, सम्पूर्णानंद व चंद्रभानु गुप्त जैसे कांग्रेसियों के नाम लेना भी न भूलते.
बहरहाल, छह जुलाई, 2005 को उसी अस्पताल में उनका निधन हो गया और उसके बाद के 18 सालों में ही उन्हें अकल्पनीय ढंग से भुला दिया गया- यहां तक कि उनकी पार्टी द्वारा भी. हालांकि, जानकारों के अनुसार, न उनके द्वारा की गई देश की सेवाएं इतनी कमतर थीं, न ही पार्टी की. पार्टी से तो वे आखिरी सांस तक इतने एकाकार रहे कि बार-बार दोहराते रहते थे कि उससे अलग वे कुछ भी नहीं हैं.
और बात है कि वे 1964 के हुए उसके विभाजन की टीस उन्हें सालती रहती थी. वे मानते थे कि उस वक्त वह दो धड़ों में न बंट जाती तो आज देश को नए विकल्प के लिए चिंतित न होना पड़ता. पार्टी में आई वह गिरावट भी उनकी चिंता का विषय हुआ करती थी, जिसके चलते उसके द्वारा तैयार किए गए अनेक जनपक्षधर कार्यकर्ताओं, नेताओं, सिद्धांतकारों, विद्वानों व लेखकों को पूंजीवादी चमक-दमक वाले दूसरे दल सुविधापरस्त बनाकर अपने पाले में खींच ले गए.
राजधानी में बंगला या मंत्री पद के आकर्षण ऊदल को कभी बांधकर नहीं रख सके. संविद सरकारों के दौर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश में सरकार में शामिल हुई तो भी वे पदाकांक्षी नहीं ही बने. आमतौर पर वे अपने गांव-जवार के लोगों के बीच ही प्रसन्न रहते थे. लखनऊ तभी जाते, जब विधानमंडल का सत्र होता. उन्होंने कभी अपनी सुरक्षा या ‘इकबाल’ जताने के लिए सरकारी-गैरसरकारी गनर या शैडो नहीं चाहे. कहते, ‘क्या करूंगा इनका? धन मैंने बटोरा नहीं और व्यक्तिगत दुश्मनी किसी से की नहीं है.’
व्यक्तिगत ईमानदारी और अनूठी नैतिकताओं की उनके द्वारा खींची गई खासी लंबी लकीर के बावजूद उनकी स्मृतियों से सामाजिक कृतघ्नता के चलते आज हमें उनकी ठीक-ठीक जन्मतिथि तक नहीं पता. इतना भर पता है कि 1922 में वाराणसी जिले के देवराई गांव में एक किसान परिवार में जन्मे और 1944 में क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी से राजनीतिक यात्रा आरंभ की. उसी के टिकट पर 1952 में कोलअसला (तब वाराणसी पश्चिम) सीट से उत्तर प्रदेश विधानसभा का पहला चुनाव लड़े और हारे.
बाद में प्रदेश की कांग्रेसी सरकार ने बहुचर्चित सीरदारी कानून बनाया और कमजोर वर्गों के शोषण, उत्पीड़न व उनसे बेगार लेने की समस्याएं बेकाबू हो चलीं, तो वाराणसी में किसान-जमीन्दार संघर्ष में दो जानें चली गईं. इसे लेकरं निचली अदालत ने 1953 के अंत में ऊदल को उम्रकैद समेत कुल 29 साल की सजा सुनाई. लेकिन 1955 में उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर उनका राजनीतिक जीवन बचा दिया.
अनंतर, उनकी पार्टी का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हो गया, जिसके बाद वे यावतजीवन उसी के होकर रहे. 1957 में कोलअसला से ही पहली बार उसके विधायक बने तो 1962 व 1967 में भी जनता के विश्वासभाजन बने रहे. लेकिन 1969 में इसी जनता ने नाराज होकर कांग्रेस के हाथों उनका विजय अभियान रुकवा दिया. अलबत्ता, उसी ने आगे 1974, 1977 व 1980 के लगातार तीन चुनाव जिताकर उनसे हैट्रिक भी बनवाई. फिर 1985 में शिकस्त खिलाकर 1989, 1991 व 1993 के विधानसभा चुनावों में उनसे एक और हैट्रिक बनवाई. लेकिन 1996 में अपने आखिरी चुनाव में वे भाजपा के अजय राय से कुछ सौ वोटों से हार गए.
अपने राजनीतिक जीवन को वे इस मायने में बहुत सफल मानते थे कि उन्हें उसमें आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ऐसे सच्चरित्र देशप्रेमियों का साथ मिला, व्यक्तिगत स्वार्थ जिन्हें छू तक नहीं पाए थे. स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सम्मान पेंशन शुरू हुई तो उन्होंने यह कहकर उसे नहीं लिया कि ‘यह पेंशन तो जेल जाने और वहां यातनाएं सहने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के लिए है. मैं तो कभी गोरी पुलिस के हाथ लगा ही नहीं.’
हालांकि कोई अन्य स्वतंत्रता सेनानी उनका स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेना प्रमाणित कर देता तो भी उन्हें पेंशन मिल जाती. तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द ने उनसे इसका वादा भी किया था. लेकिन उन्होंने वह पेंशन तो नहीं ही ली, उसे न लेने का क्रेडिट भी नहीं लिया. कोई जिक्र करता तो कहते, ‘मैं क्या, नंबूदरीपाद ने तो केरल का मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी सारी संपत्ति पार्टी को सौंप दी थी.’
हां, ऊदल की राजनीति में परिवारवाद की कोई जगह नहीं थी. अपने परिवार के किसी सदस्य को-कोटा, परमिट और एजेंसी आदि तो क्या, छात्रवृत्ति दिलाने में भी उन्होंने कभी अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया. न ही अपनी संतानों को राजनीति में लाए. राजनीति में परिवारवाद शुरू करने के लिए वे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व उनकी बेटी इंदिरा गांधी के कट्टर आलोचक थे. उनके अनुसार ‘इससे भी बुरा यह हुआ कि 1967 के बाद इस परिवारवाद को दूसरे दलों के नेताओं ने भी अपना लिया.’
एक बार उन्हें उत्तर प्रदेश विधानसभा का अध्यक्ष बनाने की पेशकश की गई तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक मनाकर दिया. हालांकि बाद में सबसे वरिष्ठ विधायक होने के नाते कई विधानसभाओं के गठन के वक्त प्रोटेम स्पीकर बनते रहे. 1991 के विधानसभा चुनाव में राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद की हवा बही, भाजपा ने बहुमत पा लिया और सदन में उसके विधायकों ने ‘जोश’ में भरकर ‘जय श्रीराम’ कहकर श्रीराम के नाम पर शपथ लेना शुरू कर दिया तो प्रोटेम स्पीकर के तौर पर उन्होंने यह बहुचर्चित व्यवस्था दी कि संविधान ईश्वर और सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ लेने के दो ही विकल्प देता है.
नास्तिक होने के बावजूद उन्होंने वाराणसी जैसी धर्मनगरी को अपनी कर्मभूमि बनाया था और साक्षात्कारों में खुलकर स्वीकारते थें कि वे ईश्वर और कर्मकांड में विश्वास नहीं करते, क्योंकि ईश्वर दरअसल है ही नहीं. होता तो अपने स्वार्थों के लिए दूसरों को लूटने-मारने वालों पर बज्र गिरा देता. वे पूछते थे कि अगर ईश्वर एक और सबका है तो उसके नाम पर एक दूजे से दुश्मनी क्यों है? एक देश दूसरे देश से और एक जाति दूसरी जाति से क्यों लड़ती रहती हैं?
वामदलों को अपना स्वाभाविक मित्र बताने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपने सुनहरे दिनों में वामदलों में तोड़-फोड़ आरंभ कर भाकपा के मित्रसेन यादव जैसे दिग्गज को तो अपनी ओर कर लिया लेकिन उस वक्त ऊदल पर डोरे डालने की उनकी हिम्मत नहीं हुई. बाद में भी उन्हें ऊदल की डांट सुनकर रह जाना पड़ा.
उन्हीं दिनों किसी ने ऊदल से पूछा कि उन्हें भाजपा नेता कल्याण सिंह और सपा नेता मुलायम सिंह यादव में किसी एक को चुनना पड़े तो वे किसे चुनेंगे? उनका जवाब था-किसी को नहीं. कल्याण सिंह सांप्रदायिक नंबर वन हैं जबकि मुलायम अपने कृत्यों से सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं. कल्याण भी असत्य वाचन करते हैं और मुलायम भी. मुलायम और कुछ भी हों, समाजवादी नहीं बल्कि अविश्वसनीय राजनीतिज्ञ हैं, लोकतंत्र के दुश्मन नंबर वन और जिस थाली में खाते हैं, उसमें छेद करने से भी बाज नहीं आते.
देश की राजनीति के गलत राह पर चली जाने का सबसे बड़ा जिम्मा वे कांग्रेस पर डालते थे, क्योंकि जाति-धर्म के आधार पर उम्मीदवारों का चयन उसी ने शुरू किया. बाद में दूसरे दलों ने उसे परंपरा बना दिया तो क्षेत्रवाद व संप्रदायवाद विकराल हो गए. उन दिनों ऊदल को लगता था कि देश का भविष्य और उसके संकटों का समाधान इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस की जगह वामपंथी दल लेंगे या सांप्रदायिक जातिवादी शक्तियां.
एक और बात. विधायक के तौर पर न वे कभी सदन में हंगामे पर उतरे, न ही वेल में गए. उन पर उस पुरानी परंपरा की गहरी छाप थी, जिसके तहत सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों सदन के नियम और अनुशासन से बंधे रहते थे. विधानसभाध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई सदस्य एक शब्द भी नहीं बोलता था और वेल में जाने के बजाय अपने आसन पर खड़ा होकर ही विरोध प्रकट करता था. तब विधानसभाध्यक्ष सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों को एक आंख से देखते थे और खुद को सत्तापक्ष का संरक्षक नहीं बनाते थे. मंत्री भी पूरी तरह तैयार होकर सदन में आते और अपनी जिम्मेदारी पूरे मन से निभाते थे.
बकौल ऊदल- सदनों में हल्ले-गुल्ले व हंगामे की प्रवृत्ति तो 1985 के बाद शुरू हुई औरा विधायक सरकारी अधिकारियों के तबादले रुकवाने के लिए भी हंगामा करने व वेल में जाने लगे. सत्तापक्ष ने भी विपक्ष का ऐसा अनादर आरंभ कर दिया, जैसे उसे किसी और जनता ने चुना हो, विपक्ष को किसी और जनता ने.
बकौल ऊदल: ‘अब तो चुने हुए विधायक भी ऐसे-ऐसे धतकरम करते हैं, जैसे पहले नौकरशाह करते लजाते थे. समझते नहीं कि हमारा देश बहुधर्मी व बहुजातीय देश है और इसे हम तभी तक एक रख सकेंगे, जब तक जातीयता, क्षेत्रीयता और धार्मिकता आदि से दूर रहेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)