केंद्र सरकार के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय आज प्रयोगशाला में बदल चुका है, जहां जल्दबाज़ी में और बिना किसी गहन विचार-विमर्श के मनमाने निर्णय लिए जा रहे हैं. सीयूईटी, चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम ऐसे ही कुछ फैसले हैं और विद्यार्थी इनमें हो रही लापरवाही का नतीजा भुगतने के लिए मजबूर हैं.
कुछ दिन पूर्व 29 जून को नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने देशभर के 257 विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए आयोजित परीक्षा की उत्तर-कुंजी (आंसर-की) और विद्यार्थियों के द्वारा हल किए गए प्रश्न-पत्र को उनके द्वारा दिए गए उत्तर के साथ जारी किया. इसके साथ ही विद्यार्थियों को कहा गया कि जिन प्रश्नों के उत्तर उनके अनुसार गलत हैं और उत्तर-कुंजी में दिए गए जवाब से वे असहमत हैं तो उस पर 1 जुलाई तक अपनी आपत्ति दर्ज करा सकते हैं, जिसके लिए उन्हें प्रति प्रश्न 200 रुपये जमा करवाना होगा. यूजीसी चेयरमैन एम. जगदीश कुमार ने बाकायदा इस संबंध में ट्वीट कर इसकी जानकारी दी.
यूं तो यह एक सामान्य स्थापित प्रक्रिया है, जिस पर कोई विवाद नहीं है, लेकिन इस वर्ष यह पूरी प्रक्रिया विवादों में आ गई क्योंकि बहुत बड़ी संख्या में उत्तर-कुंजी में गलत विकल्पों को सही उत्तर के रूप में चिह्नित किया गया. 29 जून को उत्तर-कुंजी जारी होने के अगले दिन बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के मंचों पर इन गड़बड़ियों को उजागर करने लगे.
क्या है उत्तर-कुंजी की गलतियां?
एनटीए द्वारा प्रारंभिक रूप में जारी किए गए प्रश्नों के उत्तर-कुंजी पर एक सरसरी निगाह डालते ही कई बड़ी-बड़ी गलतियां अनायास दिख जाती है, जिन्हें कोई भी सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति प्रथमदृष्ट्या बता सकता है. बिल्कुल सामान्य प्रश्नों के विकल्प भी उत्तर-कुंजी में गलत दिए गए. उदाहरण के लिए, 6 जून की तीसरी पारी में राजनीति विज्ञान के टेस्ट में एक प्रश्न इंडियन नेशनल आर्मी के संस्थापक के बारे में पूछा गया और इसका जवाब उत्तर-कुंजी में भगत सिंह बताया गया, जबकि प्रश्न-पत्र में दिए गए विकल्प के अनुसार सही उत्तर सुभाषचंद्र बोस हो सकता है.
अब अगर कोई विद्यार्थी इस एक गलत उत्तर पर अपनी आपत्ति दर्ज करना चाहता है तो पहले उसे 200 रुपये जमा करवाने होंगे, फिर यह एजेंसी उसकी जांच के बाद उसे ठीक करेगी. इसी तरह यूरोपियन यूनियन के झंडा का चित्र देते हुए उससे संबंधित 5 प्रश्न पूछे गए और इन सभी प्रश्नों का उत्तर भी गलत चिह्नित कर दिया गया. एजेंसी द्वारा जारी उत्तर कुंजी में यूरोपियन यूनियन का मुख्यालय पेरिस बताया गया, जबकि सही उत्तर ब्रसेल्स है.
इसी तरह एक अन्य प्रश्न ‘किस देश ने यूरोपियन यूनियन को छोड़ा है’ का उत्तर यूएसए बता दिया गया है, जबकि सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी समझ सकता है कि अमेरिका यूरोपियन यूनियन का सदस्य देश कैसे हो सकता है? अगर कोई विद्यार्थी केवल इन छह प्रश्नों पर ही अपनी आपत्ति दर्ज करवाना चाहे तो उसे इसके लिए 1,200 रुपये जमा करवाने होंगे.
हिंदी विषय की उत्तर-कुंजी में तो गलतियों की भरमार है. मुहावरों का अर्थ बताना रहा हो या फिर विलोम शब्द बताना या फिर उपसर्ग का प्रयोग बताना; उत्तर कुंजी में गलत विकल्प को ही सही बता दिया गया. यहां तक कि अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों में भी एनटीए द्वारा गलत विकल्प को ही सही उत्तर बता दिया गया. उदाहरण के लिए, ‘अतिक्रमण’ शब्द में ‘अति’ क्या होगा’, एनटीए के अनुसार ‘अति’ उपसर्ग न होकर विलोम शब्द है. इसी तरह एक अन्य प्रश्न में ‘सत्’ उपसर्ग से निर्मित शब्द ‘स्वतंत्रता’ को बता दिया गया, जबकि विकल्प के अनुसार सही उत्तर ‘सद्भावना’ होगा.
हिंदी में इस तरह के लगभग 16 गलत उत्तर कुंजी में दिए गए. यानी अगर कोई विद्यार्थी इन सभी गलत उत्तर को चैलेंज करेगा तो उसे केवल इस एक पेपर के लिए 3,200 रुपये का भुगतान करना होगा.
सही विकल्प के साथ उत्तर-कुंजी तैयार करने की पूरी जिम्मेदारी परीक्षा लेने वाली संस्था- एनटीए की बनती है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे उसे गलतियों से मुक्त रखेंगे. लेकिन जिस बड़े पैमाने पर उत्तर-कुंजी में प्रश्नों के गलत जवाब थे, उससे मन में आशंका उठना स्वाभाविक था कि क्या यह जानबूझकर किया गया, ताकि बड़े पैमाने पर विद्यार्थी अपनी आपत्ति दर्ज करें और उसी अनुसार वे इसका शुल्क भी जमा करें!
अगर हम ऊपर लिखे गए दो विषय को ही लें, तो सभी गलत उत्तर पर अपनी आपत्ति दर्ज कराने के लिए किसी एक विद्यार्थी को कम-से-कम 4,400 रुपये खर्च करने पड़ेंगे और यह कोई छोटी रकम नहीं है. सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के लिए इतनी राशि खर्च करना अपने ऊपर आर्थिक बोझ डालना होगा. यह खुल्लम-खुल्ला अभिभावकों के पैसे की लूट मात्र ही नहीं है बल्कि विद्यार्थियो के साथ अन्याय भी है.
बहुत सारे विद्यार्थी अपने भविष्य को देखते हुए शायद कई प्रश्नों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराने के लिए यह राशि दे भी दें, लेकिन इससे मूलभूत प्रश्न खत्म नहीं हो जाता कि राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा एजेंसी इतनी लापरवाही से भरा रवैया क्यों दिखाया है जबकि इससे बच्चों का भविष्य जुड़ा हुआ है. वास्तव में, यह पूरी प्रक्रिया दोषपूर्ण और विद्यार्थियों के हितों के विरुद्ध नहीं है तो फिर क्या है?
उत्तर-कुंजी में गलत विकल्प को चिह्नित करने की पूरी जिम्मेदारी एनटीए की है लेकिन इसकी भरपाई करेंगे विद्यार्थी. यह खुल्लम-खुल्ला लूट नहीं तो क्या है कि एनटीए खुद गलत उत्तर देकर आपत्ति दर्ज कराने के नाम पर उसकी वसूली कर रहा है. पहले एजेंसी को स्वयं उत्तर-कुंजी की विसंगतियों में सुधार करना चाहिए था और फिर सही विकल्प के साथ उत्तर-कुंजी जारी कर आपत्ति मांगना चाहिए था. लेकिन एजेंसी ने समयसीमा खत्म हो जाने के बाद यह घोषणा की कि वे सही विकल्प के साथ उत्तर-कुंजी फिर से जारी कर रहे हैं, लेकिन इस समय तक हजारों विद्यार्थियों ने अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपनी आपत्तियां दर्ज करवा चुके हैं और संभवतः करोड़ों रुपये की कमाई एनटीए की हो भी चुकी है.
ऐसी स्थिति में क्या जिन्होंने पैसे जमा करवा दिए हैं क्या यह एजेंसी उनके पैसे वापस करेगी, उत्तर शायद ‘नहीं’ में हो.
सीयूईटी: दोषपूर्ण और जल्दबाजी भरा फैसला
कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (सीयूईटी) वस्तुतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की देन है, जिसे काफी जल्दबाजी में लागू किया गया है. इसे संचालित करने वाली संस्था एनटीए की स्थापना भी अभी 2017 में ही हुई है और इतने कम समय में ही यह संस्था सीयूईटी के अलावा मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, यूजीसी नेट आदि जैसे दर्जनों राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं का संचालन करने लग गया है.
जाहिर है कि इतने कम समय में इतने बड़े स्तर की परीक्षाओं के संचालन के लिए जो आधारभूत ढांचा और तंत्र होना चाहिए, वह नहीं बन पाया है. इसी का नतीजा है कि इस वर्ष सीयूईटी की परीक्षा के बाद जो उत्तर-कुंजी जारी की गई, उसमें बड़े पैमाने पर त्रुटियां रह गई और गलत उत्तर को सही बता दिया गया. भले ही यूजीसी चेयरमैन एम. जगदीश कुमार ‘टाइपो एरर’ बताकर लीपापोती करने का प्रयास करें, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि यह बहुत गंभीर लापरवाही है.
अगर ‘टाइपो एरर’ इतने बड़े स्तर पर है तो यह अनायास नहीं हो सकता और इसकी जांच कर जिम्मेदारी तय होनी चाहिए. इससे यह भी स्पष्ट है कि कहीं न कहीं इस परीक्षा के संचालन के लिए जो ‘ब्लूप्रिंट’ पहले से तैयार होना चाहिए, वह उनके पास नहीं है. इस वर्ष 2023 में करीब 14 लाख छात्र-छात्राओं ने सीयूईटी स्नातक के लिए अपना पंजीकरण कराया था और लाखों की संख्या में देशभर के विभिन्न केंद्रों पर इस प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए. कुल 257 केंद्रीय, राज्यस्तरीय और निजी विश्वविद्यालय इस परीक्षा के आधार पर अपने यहां नामांकन देंगे. इस संख्या से इस टेस्ट परीक्षा के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है. इसके बाद भी बड़े पैमाने पर उत्तर-कुंजी में गलती का होना, इस परीक्षा के संचालन में संस्था की संरचनागत असफलता का परिणाम है, जिसको बना पाने में इसकी गवर्निंग काउंसिल विफल रही है.
केंद्र सरकार के दवाब में आकर इस संस्था ने पिछले वर्ष 2022 से सीयूईटी शुरू तो कर दिया था, लेकिन इसके सुचारू संचालन के लिए जो योजना होनी चाहिए थी, उसको बनाने में यह विफल रहा. पिछले साल विद्यार्थियों को एक ओर परीक्षा के दौरान कई तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ा तो दूसरी ओर जानकारी के अभाव में बहुत सारे विद्यार्थी अपेक्षित विषय की परीक्षा नहीं दे पाने के कारण प्रवेश-प्रक्रिया से ही वंचित रह गए थे. परीक्षा में हुई गड़बड़ियों का नतीजा यह हुआ कि रिजल्ट निकालने में विलंब हुआ और इस कारण विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रवेश-प्रक्रिया काफी देर से शुरू हुई.
शैक्षणिक सत्र 2022-2023 के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश-प्रक्रिया 31 दिसंबर 2022 तक चली, परिणामस्वरूप प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों की पढ़ाई आधी-अधूरी ही हो पाई और उनका काफी समय बर्बाद हो गया. यहां यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि इसी शैक्षणिक सत्र 2022-2023 से चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम भी बिना किसी तैयारी के आनन-फानन में दिल्ली विश्वविद्यालय में लागू कर दिया गया है, जिसका हाल यह है कि अभी तक विश्वविद्यालय सभी वर्षों और सेमेस्टर का सिलेबस भी तैयार नहीं कर पाया है.
हालत यह है कि कुछ विषयों में तो सेमेस्टर शुरू होने पर सिलेबस बनकर तैयार होता है. अर्थात विद्यार्थियों को यह नहीं मालूम है कि उन्हें किस वर्ष में कौन-सा पेपर पढ़ना है और उसके अंतर्गत अध्ययन की इकाई क्या-क्या होंगे? क्या यह विद्यार्थियों के साथ अन्याय नहीं है? क्या यह ‘अकडेमिक फ्रॉड’ नहीं है कि बिना किसी निश्चित और पूर्ण पाठ्यक्रम-योजना की जानकारी दिए उन्हें किसी कोर्स में प्रवेश लेने के लिए मजबूर कर दिया गया?
सरकार की भूमिका
केंद्र सरकार के लिए उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय आज प्रयोगशाला में बदल चुका है, जहां मनमाना निर्णय लिया जा रहा है. सीयूईटी, चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम, मल्टीपल एंट्री-इग्ज़िट, मुक्स, स्वयम् आदि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देना आदि कई ऐसे निर्णय हैं, जिन्हें जल्दबाजी में और बिना किसी गहन विचार-विमर्श के लागू किया जा रहा है.
दरअसल, उच्च शिक्षा में निजी और विदेशी विश्वविद्यालय के प्रवेश को सुनिश्चित करने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए सरकार वर्तमान ढांचे को तोड़ने पर अमादा है. लेकिन, यह तभी संभव होगा जब दिल्ली विश्वविद्यालय, बीएचयू, जामिया और जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी साख खो दें.
प्रवेश-प्रक्रिया में देरी और इस कारण विलंबित हो रहे शैक्षणिक सत्र, अनिश्चित पाठ्यक्रम, सिलेबस निर्माण में सरकारी हस्तक्षेप, आए दिन सुधार के नाम पर नए-नए मनमाने फरमान आदि के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी उच्च शिक्षण संस्था की साख आज धूमिल हो रही है. वर्ष 2022 में प्रवेश-प्रक्रिया में हुई देरी के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न पाठ्यक्रमों में जहां सीटें खाली रह गईं, वहीं दिल्ली एनसीआर में स्थित कई बड़े निजी विश्वविद्यालयों में अन्य वर्षों की तुलना में अधिक नामांकन देखा गया.
सरकार द्वारा उच्च शिक्षा के लिए उठाए जा रहे विभिन्न कदम निजी पूंजी को बढ़ावा देने वाले हैं. हमारे देश में बनने वाली योजनाओं की विडंबना यह है कि वे राजनीतिज्ञों से नियंत्रित होती हैं और नौकरशाहों से संचालित, उच्च शिक्षा भी इसका अपवाद नहीं हैं. वर्तमान केंद्र सरकार के लिए शिक्षा अब सामाजिक सरोकार न होकर व्यावसायिक उपक्रम में बदल चुका है.
जो शिक्षा राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व का मसला होता था, वह व्यापार समझौतों का हिस्सा बनकर कारोबार में तब्दील हो गया है. निजी विश्वविद्यालयों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी और उसमें बड़े-बड़े कॉरपोरेट खिलाड़ियों का उतरना उच्च शिक्षा के बाजारीकरण, निजीकरण और पूंजीकरण के बड़े खतरे की ओर संकेत है, जिसका सामना आने वाले समय में करना होगा.
भारत जैसे विभिन्नता और विविधता वाले विशाल देश के लिए जहां बड़े पैमाने पर गरीबी है, असमानता है, कई प्रकार के भेदभाव और असंतुलन हैं तथा बहुत बड़ी आबादी अभी भी उच्च शिक्षा के दायरे से बाहर है, वहां उच्च शिक्षा के लिए वित्तीय बजट अनुदान में कमी लाना और स्वायत्तता के नाम पर वित्तीय जरूरत को स्वयं पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करना वंचित तबके को इस दायरे से बाहर रखने का एक षड्यंत्र ही कहा जा सकता है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर जिस तरह की नीतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है उसमें कमजोर आर्थिक वर्ग के लोगों के लिए उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाना अत्यंत कठिन हो जाएगा.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं और विश्वविद्यालय की अकेडमिक काउंसिल के सदस्य रह चुके हैं.)