किसी एक के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करते हुए ‘बुलडोज़र न्याय’ का विरोध कैसे होगा?

शुक्ला और त्यागी के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करने के पहले यह सोच लेना चाहिए कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ौरी कार्रवाई का औचित्य बन जाएगा. अब खुलकर बुलडोज़र का इस्तेमाल होगा. सरकारें यह करके कह सकेंगी कि वे कोई भेदभाव नहीं करतीं.

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(बाएं से) आदिवासी शख्स पर पेशाब करते प्रवेश शुक्ला, शुक्ला की संपत्ति पर बुलडोज़र कार्रवाई और पीड़ित के पांव पखारते मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: ट्विटर/एएनआई/शिवराज सिंह चौहान)

शुक्ला और त्यागी के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करने के पहले यह सोच लेना चाहिए कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ौरी कार्रवाई का औचित्य बन जाएगा. अब खुलकर बुलडोज़र का इस्तेमाल होगा. सरकारें यह करके कह सकेंगी कि वे कोई भेदभाव नहीं करतीं.

(बाएं से) आदिवासी शख्स पर पेशाब करते प्रवेश शुक्ला, शुक्ला की संपत्ति पर बुलडोज़र कार्रवाई और पीड़ित के पांव पखारते मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: ट्विटर/एएनआई/शिवराज सिंह चौहान)

‘एनएसए लगा दिया गया है, बुलडोजर भी चला दिया गया है और अगर जरूरत पड़ी तो मामाजी अपराधियों को 10 फुट जमीन के नीचे भी गाड़ देंगे. मामाजी का संदेश साफ है, इसलिए गलत मंशा वालों मध्य प्रदेश में अपराध करने से पहले 10 बार सोच लेना.’

यह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की भाषा है. इनसे हम उम्मीद करेंगे कि ये क़ानून की रक्षा करेंगे और उसे लागू करवाएंगे. इस बयान में मालूम होता है कि भारत की राजकीय और राजनीतिक चेतना का कितना पतन हुआ है. लेकिन क्या अकेला वह इन्हीं दोनों का पतन है.

सीधी में कथित रूप से भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध प्रवेश शुक्ला के एक आदिवासी दसमत रावत पर पेशाब करते हुए वीडियो के प्रसारित हो जाने के बाद व्यापक क्षोभ को देखते हुए शिवराज़ सिंह चौहान की सरकार ने यह वीरतापूर्ण कार्य किया. आमतौर पर बुलडोज़र मुसलमानों को सबक़ सिखाने के काम आता रहा है.इस बार वह एक ब्राह्मण हिंदू के घर पर चलाया गया.

क्या इससे यह साबित नहीं हो जाता कि भाजपा सरकारों पर या आरोप ग़लत है कि वह बुलडोज़र का इस्तेमाल सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ करती है? क्या इसके बाद भाजपा के आलोचकों को अपना मुंह बंद नहीं कर लेना चाहिए? उन्हें जो मुख्यमंत्री को ललकार रहे थे कि क्या वे एक भाजपा समर्थक, ब्राह्मण के घर, जिसने एक आदिवासी का अपमान किया, बुलडोज़र चलवा सकते हैं, जवाब दे दिया गया है.

कुछ लोग कह रहे हैं कि बुलडोज़र चलाने का नाटक है, घर तो साबुत बचा है. सिर्फ़ एक दीवार तोड़ी है और एक ग़ैर-ज़रूरी हिस्सा गिराया गया है. वे इस तुरंत न्याय से संतुष्ट नहीं हैं. वे चाहते हैं कि प्रवेश शुक्ला का पूरा घर वैसे ढहा दिया जाए जैसा मुसलमानों का घर ढहाया जाता है. उन्हें न्याय का एहसास नहीं हुआ या ‘अपराधी’ को सबक़ सिखलाने का पूरा मज़ा नहीं आया?

लेकिन इस बुलडोज़र कार्रवाई की चालाकी तो सबको दिखलाई पड़ ही रही है. लोग कह रहे हैं कि मुसलमान का तो मकान पूरा गिरा दिया जाता है लेकिन यहां सिर्फ़ दिखावा किया गया है. इसके जवाब में कुछ लोग उस परिवार का बाहर खुले में खाना बनाते हुए फोटो दिखला रहे हैं और कह रहे हैं कि यहां भी बुलडोज़र पूरे घर पर चला है.

सज़ा की इस मांग और ललकार और मुख्यमंत्री के इस मुंहतोड़ जवाब के बाद कहने को क्या रहता है? सिवाय इसके कि भाजपा को तसल्ली हो जानी चाहिए कि उसने हिंदू समाज को जैसा बनाना चाहा था वह उससे भी विकृत और वीभत्स बन गया है. भाजपा कामयाब हो गई है.

अब हम सब ख़ुद बुलडोज़र मांगने लगे हैं. जो मुसलमानों के मकान बुलडोज़र से गिराए जाने के ख़िलाफ़ थे उनमें भी कई अब इसे स्वीकार्य न्याय मानने लगे हैं. दूसरे सावधान कर रहे हैं कि शुक्ला और त्यागी के ख़िलाफ़ बुलडोज़र की मांग करने के पहले यह सोच लेना चाहिए कि यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ फ़ौरी कार्रवाई का औचित्य बन जाएगा. अब खुलकर बुलडोज़र का इस्तेमाल होगा, मुसलमानों को मुजरिम मानकर उन्हें गोली मारी जाएगी. सरकारें यह करके कह सकेंगी कि वे कोई भेदभाव नहीं करतीं. फिर हम किस तरह इस बुलडोज़र न्याय का विरोध कर पाएंगे?

प्रश्न सिर्फ़ मुसलमानों का नहीं, यह कहा जा सकता है. हालांकि आज के भारत में हमें मालूम है कि पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल मुसलमानों के साथ हो रही नाइंसाफ़ी और हिंसा का ही है. उस हिंसा में हो सकता है बजरंग दल जैसे संगठन दिखते हों लेकिन प्रायः हिंदू समाज को उससे कोई विशेष उज्र हो, इसका कोई सबूत नहीं मिलता.

बल्कि हममें से कई यह कहकर इस हिंसा की गंभीरता को कम करना चाहते हैं कि ये कुछ सिरफिरों की हरकत है और जो ऐसा कर रहा है, वह असली हिंदू नहीं. लेकिन अब इसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं करते.

अब इस हिंसा के लिए वजह खोज ली जाती है और इस हिंसा के लिए मुसलमानों को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है: लड़कियां क्यों हिजाब पहनती हैं, खुले में नमाज़ क्यों पढ़ी जाती है, आख़िर वे गोश्त क्यों खाते हैं, कुर्बानी क्यों करते हैं, गाय और बकरी क्यों पालते हैं, दाढ़ी क्यों रखते हैं, टोपी क्यों लगाते है, वंदेमातरम क्यों नहीं बोलते, सरस्वती वंदना क्यों नहीं गाते, मदरसे में क्यों जाते हैं, हिंदू औरतों से मोहब्बत क्यों करते हैं! यह फ़ेहरिस्त और लंबी हो सकती है. कहा यह जा सकता है कि मुसलमान आख़िर है ही क्यों? उसके होने भर से हिंदुओं में हिंसा उबलने लगती है.

प्रवेश शुक्ला के घिनौने कृत्य के प्रकाशित हो जाने के बाद कहा गया कि वह नशे में था. यह नशा इस सरकार के आने के बाद हिंदू समाज, ख़ासकर सवर्ण हिंदुओं में बांटा गया है. उन्हें इसकी आदत पड़ गई है. इस नशे में मुसलमानों और ईसाइयों के साथ हर तरह की हिंसा की जाती रही है. लेकिन जब इसकी आदत पड़ जाए तो यह हर उसके साथ की जा सकती है जिसे छोटा या हीन माना जाता है.

हिंदू समाज में हीनों की श्रेणियां हैं. आदिवासी तो उस हिसाब से हीनतम हैं. वे हिंदू भी नहीं. प्रभुत्व के इस नशे में प्रवेश ने उस घिनौनेपन का प्रदर्शन किया जो इस सामाजिक अवचेतन में बसा हुआ है.

भारत में ‘दुर्भाग्यवश’ संविधान आदिवासियों को भी मताधिकार देता है. इसलिए उन्हें उस वक्त नाराज़ नहीं किया जा सकता जब चुनाव क़रीब हों. वे मुसलमान नहीं हैं जिनका अपमान करके, जिनके ख़िलाफ़ हिंसा करने के बाद उन्हें किसी तरह की सांत्वना देने की मजबूरी नहीं. बल्कि इससे और हिंदू वोट बढ़ सकते हैं. लेकिन मध्य प्रदेश में सिर्फ़ हिंदू वोट से काम नहीं चलेगा. आदिवासी वोट निर्णायक हो सकता है. इसी वजह से सिर्फ़ बुलडोज़र चलवाने तक न रुककर मुख्यमंत्री ने अपमान और हिंसा के शिकार आदिवासी दसपत रावत को अपने आवास बुलाकर उसके पांव पखारकर अपने माथे को उन्हीं हाथों से छुवाने का नाटक किया. भय आदिवासी क्रोध का और उससे ज़्यादा उसके वोटों के जाने का था.

जितना घिनौना प्रवेश शुक्ला का कृत्य था, मुख्यमंत्री की यह हरकत उससे कम वितृष्णा नहीं पैदा करती. वे किसकी तरफ़ से माफ़ी मांग रहे थे या प्रायश्चित कर रहे थे? और भारत में अन्याय होने पर क़ायदे से इंसाफ़ निश्चित करने की जगह इस प्रकार का प्रहसन क्यों स्वीकार्य माना जाता है? मुख्यमंत्री का काम संवैधानिक तरीक़े से क़ानून के राज की रक्षा है. वह ख़ुद को एक राजा की तरह कैसे पेश कर सकते हैं जिसकी मर्ज़ी से सज़ा तय होगी?

हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रभुत्व के बाद हिंदू जनमानस में हुए पतन का एक नमूना यह घटना है. इस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया देखी जा रही है उससे निराशा ही होती है. यह हिंदू समाज दूसरे समाजों को ख़ुद में सुधार लाने की चुनौती देता है लेकिन अपने भीतर कभी झांककर नहीं देखना चाहता. हमेशा ऐसी घटनाओं को, जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है, अपवाद कहकर वह सच्चाई से मुंह चुराना चाहता है. इससे आशंका होती है कि प्रवेश शुक्लाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी ही होगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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