राष्ट्रगान न गाने पर सज़ा: किसी का सम्मान करने को बाध्य कैसे किया जा सकता है

भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता इंसानी रिश्ता नहीं है. वह ताक़तवर और कमज़ोर का संबंध है. कमज़ोर जब चीख नहीं सकता तो ख़ामोश रहकर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है. ताक़तवर के पास उसे इसकी सज़ा देने की ताक़त है.

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Srinagar: Security personnel patrols a deserted street at Lal Chowk on the 33rd day of strike and restrictions imposed after the abrogration of Article of 370 and bifurcation of state, in Srinagar, Friday, Sept. 6, 2019. (PTI Photo) (PTI9_6_2019_000065B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता इंसानी रिश्ता नहीं है. वह ताक़तवर और कमज़ोर का संबंध है. कमज़ोर जब चीख नहीं सकता तो ख़ामोश रहकर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है. ताक़तवर के पास उसे इसकी सज़ा देने की ताक़त है.

Srinagar: Security personnel patrols a deserted street at Lal Chowk on the 33rd day of strike and restrictions imposed after the abrogration of Article of 370 and bifurcation of state, in Srinagar, Friday, Sept. 6, 2019. (PTI Photo) (PTI9_6_2019_000065B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है.’

एक खबर पढ़ते हुए रघुवीर सहाय की यह कविता याद आ गई. जम्मू कश्मीर में एक कार्यक्रम के दौरान जब ‘जन गण मन’ गाया जा रहा था तो कुछ लोग खड़े नहीं हुए. यह ‘अमन के लिए साइकिल चलाइए’ कार्यक्रम का समापन समारोह था जिसका समापन इन गिरफ़्तारियों में हुआ. कार्यक्रम में जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मौजूद थे और उनकी उपस्थिति में राष्ट्रगान गाया जा रहा था. ऐसे गंभीर राष्ट्रीय क्षण में बैठे रह जाने से बढ़कर असभ्यता क्या हो सकती है?

जब बाहर लोग कहने लगे कि 14 लोग गिरफ़्तार हुए हैं तो राज्य की पुलिस ने सफ़ाई दी कि यह गिरफ़्तारी नहीं है और असभ्य आचरण के लिए सिर्फ़ 11 लोगों को निरुद्ध किया गया है. गिरफ़्तारी और निरुद्ध करने में जो भी ज़बानी फ़र्क हो, बात एक ही है. इन सबको 7 दिनों के लिए हिरासत में भेज दिया गया है. यह उन्हें आगे अच्छा व्यवहार करने के लिए तम्बीह है.

हिरासत के आदेश में कहा गया कि इसकी आशंका है कि आगे वे क़ानून व्यवस्था भंग कर सकते हैं. आज अगर वे राष्ट्रगान के समय खड़े नहीं हुए तो आगे जाने क्या कर बैठें?

यह सब पढ़कर मुझे 2016 का दिल्ली का एक वाक़या याद आ गया. संसद मार्ग थाने में कुछ नौजवानों को पकड़कर लाया गया. पूछा उनका क़सूर क्या था तो उन्होंने बतलाया कि उन्हें पकड़ते वक्त पुलिसवालों ने कहा कि वे जेएनयू टाइप लग रहे हैं. ऐसे लोगों को सड़क पर आज़ाद छोड़ने से शांति-व्यवस्था भंग होने का ख़तरा था.

जब मैंने थाना प्रमुख से कहा कि उन्हें छोड़ देना चाहिए तो उसने उनकी तलाशी लेना शुरू कर दिया. उनमें से एक के बैग से स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया का झंडा निकला. उसने मुझसे कहा, ‘आप ऐसे आदमी को छोड़ने को कहते हैं!’ मैंने पूछा, ‘आख़िर इस झंडे से क्या एतराज है.’ उसने कहा, ‘आज यह झंडा लेकर चल रहा है, कल रिवॉल्वर लेकर घूमेगा!’

इसका क्या जवाब हो सकता था! उस थानेदार की तरह ही जम्मू कश्मीर की पुलिस को ‘जन गण मन’ के वक्त बैठे लोग आगे उपद्रव करते दिखलाई पड़ रहे हैं. पुलिस से अदालत भी सहमत है.

इस पूरे प्रसंग में जम्मू कश्मीर पुलिस की चतुराई देखी जा सकती है. उसने कहीं यह नहीं कहा कि राष्ट्रगान के वक्त बैठे रहने की यह सज़ा है. ऐसा इसलिए कि 2021 में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मामले में 2018 तौसीफ़ अहमद के ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए कहा था कि राष्ट्रगान के गाए जाने के समय किसी का खड़ा न होना कोई जुर्म नहीं है. अधिक से अधिक आप उसे राष्ट्रगान की अवमानना कह सकते हैं. लेकिन वह अपराध नहीं है.

आख़िर आप मुझे किसी का सम्मान करने को बाध्य कैसे कर सकते हैं? सम्मान हृदय से उपजता है. डंडे के बल पर आप मुझे खड़ा कर सकते हैं लेकिन उस समय भी आपके लिए मेरे मन से बद्दुआ ही निकलती होगी. इस मामूली-सी बात को तानाशाह और उसके कारिंदे न समझते हों, ऐसा नहीं लेकिन उन्हें यह बर्दाश्त नहीं कि सार्वजनिक तौर पर यह दिखलाई पड़ जाए कि कुछ ऐसे लोग हैं जिनके मन में उनके लिए इज्जत नहीं और वे उसका दिखावा भी नहीं करना चाहते.

हम अदालती और क़ानूनी नुक़्ते को छोड़ भी दें और असली मसले पर बात करें. आख़िर हम इसकी कल्पना ही कैसे कर सकते हैं कि जम्मू कश्मीर के लोगों में किसी भी ऐसे प्रतीक के लिए सम्मान या स्नेह होगा जो भारत से जुड़ा है. भारत का मतलब ही कश्मीर के लोगों के लिए फ़ौज, जेल, दमन है. वह एक तरह की औपनिवेशिक ताक़त है जिसका कश्मीरियों के साथ ज़बरदस्ती का रिश्ता है.

अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने और जम्मू कश्मीर को दो टुकड़ों में बांटकर उसका राज्य का दर्जा छीन लेने की अपमानजनक कार्रवाई के बाद यह इच्छा कि कश्मीरियों के मन में भारत या भारतीयों के लिए कोई जगह हो, मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं. भारतीय राज्य ने और अधिकतर भारतीयों ने यह साबित कर दिया है कि वे कश्मीर को ज़मीन और दूसरे संसाधनों के रूप में ही देखते हैं जिन पर क़ब्ज़ा किया जाना है.

हाल में ‘भूमिहीनों को भूमि’ देने की सरकारी योजना भी दरअसल कश्मीर की आबादी की शक्ल बदल देने की कोशिश का ही एक हिस्सा है. कश्मीर में हर किसी के हाथ-पैर बंधे हुए हैं और हर ज़बान पर ताला है. कोई अख़बार असली खबर दे नहीं सकता और अपनी आज़ाद राय कोई रख नहीं सकता. सज्जाद गुल और फ़हद शाह की गिरफ़्तारियों के अलावा प्रेस क्लब पर क़ब्ज़ा और उसके भी पहले ‘कश्मीर टाइम्स’ पर छापे के ज़रिये उसे नाकाम कर देने की घटनाएं पुरानी नहीं पड़ी हैं.

हाल कश्मीर में जी-20 का जो जश्न मनाया गया, उस समय एक विदेशी ने ठीक ही कहा कि ऐसा लगता है कि कश्मीर की सड़कों से सब कुछ बुहारकर बाहर कर दिया गया है, यहां तक कि उसके लोगों को भी.

कश्मीर के बारे में फ़ैसला कश्मीर के लोग नहीं कर रहे और उपराज्यपाल उस भारत के प्रतिनिधि हैं जो कश्मीर के लोगों के लिए आक्रांता है. उनका या उनकी उपस्थिति में किसी भी भारतीय प्रतीक का सम्मान कश्मीरी कर पाएंगे, यह उम्मीद ग़लत है.

भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता इंसानी रिश्ता नहीं है. वह ताकतवर और कमजोर का संबंध है. कमजोर जब चीख नहीं सकता तो ख़ामोश रहकर अपना प्रतिरोध दर्ज करता है. ताकतवर के पास उसे इसकी सज़ा देने की ताक़त है. इसलिए भारत की पुलिस ने 11 कश्मीरियों को जेल में डाल दिया है. भारत को लेकर इससे डर बढ़ सकता है लेकिन उसकी इज्जत में इज़ाफ़ा होगा, क्या यह सोचा भी जा सकता है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)