कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जगदीश स्वामीनाथन जैसे आद्यरूपकों का सहारा लेते हुए अपना अद्वितीय आकाश रचते थे, उसके पीछे सक्रिय दृष्टि को महाकाव्यात्मक ही कहा जा सकता है, लेकिन उसमें गीतिपरक सघनता भी हैं. जैसे कविता में शब्द गुरुत्वाकर्षण शक्ति से मुक्त होते हैं, वैसे ही उनके चित्रों में आकार गुरुत्व से मुक्त होते हैं.
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन ने कभी सात कविताएं लिखी थीं. वे अपने को कवि नहीं मानते थे हालांकि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कमलेश आदि कई हिंदी कवियों से उनकी गहरी दोस्ती थी. उन पर कई कवियों ने कविताएं भी लिखीं, जिनमें मेक्सिकन कवि आक्तावियो पाज़ शामिल हैं.
उनकी कविता में गहरी रुचि थी: वे कभी जिगर मुरादाबादी की जीवनी लिखना चाहते थे. उन्होंने भारत भवन में महादेवी के आने के अवसर पर सत्रह हिंदी कवियों को चित्रित कर चित्रकाव्य की एक विलक्षण पुस्तक बनाई थी. भोपाल में ही उन्होंने उर्दू के महाकवि इक़बाल का ‘शाहीन’ नामक स्मारक शिल्पित किया था.
21 जून को उनके 95वें जन्मदिवस पर सात चित्रकारों द्वारा उनकी कविताओं पर बनाए गए प्रिंट्स का एक पोर्टफोलियो और उनके साथ लिए गए इंटरव्यूज़ का एक संकलन जारी हुए. इसके अलावा उन्हें और उनकी कविताओं को याद किया गया, पाठ, मंचन और व्याख्या द्वारा. स्वामी के दो कवितांश हैं:
जैसे एक दिन बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
यह जो सामने पहाड़ है, इसके पीछे एक और पहाड़ है/जो दिखाई नहीं देता
स्वामी की कविता जो कहती है, वह उनकी कला करती है. एक और अंश है:
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज/वह वादी नहीं इस पहाड़ की चुप्पी है.
जैसे कविता में मुखरता और मौन का, बोलने और चुप्पी का युग्म होता है वैसा स्वामी की कला में भी है. स्वामी की कला पर लगता है सबसे प्रामाणिक ढंग से बात काव्यात्मक ढंग से ही की जा सकती है. वे एक प्रखर बौद्धिक थे, पर वे कविमन चित्रकार थे.
याद आते हैं दो कवियों के कथन. अमेरिकी कवि वालेस स्टीवेंस ने कहा था: ‘जो यथार्थ है वह निरंतर अयथार्थ में निमग्न होता रहता है… कविता एक सतह का आलोकन, चट्टान में आत्म की गतिविधि होती है.’
रूसी कवि जोसेफ़ ब्रॉडस्की ने कहा था भारतीय अध्यात्म के बारे में कि वह एक पहाड़ के नज़दीक जाने पर पता चलने जैसा है कि इन पहाड़ों के पीछे और पहाड़ हैं और उनके भी पीछे और पहाड़ हैं.
स्वामी जिस तरह से आद्यरूपकों का सहारा लेते हुए अपना अद्वितीय आकाश रचते थे उसके पीछे सक्रिय दृष्टि को महाकाव्यात्मक ही कहा जा सकता है लेकिन उसमें गीतिपरक सघनता और लालित्य भी हैं. इसे असाधारण काव्य-क्षमता ही कहा जा सकता है. जैसे कविता में शब्द गुरुत्वाकर्षण शक्ति से मुक्त होते हैं वैसे ही स्वामी के चित्रों में आकार गुरुत्व से मुक्त होते हैं. वे सभी, फिर चट्टान हो या पहाड़, चिड़िया हो या पेड़, स्पेस में तैरते-उड़ते हैं- ‘आकाश में उड़ जाएगा जंगल’ काव्यपंक्ति की चित्रों में चरितार्थता. बल्कि कहें कविता की चित्रार्थता.
यों तो प्रकृति, कविता और कला दोनों का ही सदियों से स्थायी विषय रही है. स्वामी की कलाकृतियों में शाश्वत प्रकृति इतिहास की जगह ले लेती है- स्वामी के यहां समय नहीं, सिर्फ़ जगह है. वे इतिहास से मुक्ति प्रकृति में पाते-चित्रित करते हैं. उनके यहां इतिहास प्रकृति से अतिक्रमित होता है. उनकी कला में प्रकृति न तो लैंडस्केप है, न कोई अवधारणात्मक युक्ति. प्रकृति रंगस्थली है, क्रीड़ाभूमि. स्वामी के नज़दीक प्रकृति मनुष्य का शाश्वत पड़ोस और इतिहास दोनों ही है.
लगभग तीस बरसों पहले स्वामी के निधन के बाद मैंने यह लिखा था:
‘स्वामीनाथन के लिए कला स्वतंत्रता और कल्पना का जनपद है. वे संप्रेषण के किसी सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे क्योंकि ऐसा कोई सिद्धांत कला को माध्यम या उपकरण बनाता है. स्वामीनाथन उस कला को घटिया मानते थे किसी ‘दूसरे’ की वाहक हो. आधुनिकता को अक्सर इतिहास से जोड़कर ही परिभाषित किया जाता है और वह स्वतंत्रता और वरण का ऐतिहासिकीकरण करती है. लेकिन स्वामीनाथन इस तरह के ऐतिहासिकीकरण की कोई मजबूरी नहीं मानते थे और दरअसल उसे बंधनकारी पाते थे. उनका संघर्ष आधुनिकता को इतिहास से मुक्तकर उसे मानो सारे समय पर आज़ादी से विहार करने की छूट देने का था.
यह विरोधाभास ही है कि इसके साथ ही स्वामीनाथन भारतीय कला-दृश्य पर अपने ऐतिहासिक हस्तक्षेप के प्रति गहरी सजगता रखते थे. भारत में आधुनिकता पश्चिम से मुठभेड़ से उपजी है इस अवधारणा पर उन्हें गंभीर आपत्ति थी. उनके लिखे भारत में एक अधिक मुक्त-व्यापक और संग्रथित निरंतरता के रूप में आधुनिकता है. वे इसी भारतीय आधुनिकता से समकालीनता की अपनी परिभाषा में लोक आदिवासी को उतना ही प्रामाणिक हिस्सेदार बनाकर, आदिवासी को रूमान से और शास्त्रीय को मिथ से अलग कर, उन्हें ऐसी निरंतरता में भागीदार बना पाते थे.’
अब यह साफ़ समझ में आता है कि स्वामीनाथन की कला आधुनिकता का प्रसन्न क्षण है. बहुत दुर्लभ, कई बार नितांत अकेला लगता प्रसन्न क्षण है जहां तमाम ऐतिहासिक बोझ, अर्थ की रूढ़ियां, तनाव-तकलीफ़ सब झर गए हैं. राग अपनी लगभग दिगंबर दीप्ति में विराग है.
98 के कृष्ण खन्ना
5 जुलाई को भारत के मूर्धन्य चित्रकार कृष्ण खन्ना 98 बरस के हो गए. हम उनका अभिवादन करने जब गुड़गांव स्थित उनके घर गए तो वे अपने परिवार से घिरे बैठे थे. इस आयु में उनकी ऊर्जा, स्फूर्ति, स्मरण-शक्ति और जिजीविषा चकित करती है, बहुत असाधारण लगती है. लगभग तीन घंटे अविराम हम प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप, भारत भवन आदि के दिनों को उनके साथ याद करते रहे. बीच-बीच में उनके संबंधियों, मित्रों आदि के फोन आते रहे. वे जबाव देकर फिर अपनी बात जारी रखते रहे. उनकी यादें इतनी स्पष्ट और विविध हैं कि उनका अभिलेखन एक पूरे युग का बहुत रोचक, आत्मीय और बौद्धिक वृत्तांत हो सकता है.
बातचीत के दौरान यह विचार थोड़ा प्रबल हुआ कि जल्दी ही प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप की एक बृहत प्रदर्शनी आयोजित होनी चाहिए, जिसमें संस्थापक सदस्यों के अलावा बाद में उससे जुड़ने वालों के काम भी शामिल हों. तय तो हमने यह भी किया कृष्ण के 100 बरस होने पर उन पर एकाग्र एक बड़ा आयोजन किया जाए. उनकी एक नई और विस्तृत जीवनी भी लिखी जानी चाहिए.
बातचीत में हमने हुसैन, रज़ा, सूज़ा, तैयब मेहता, वासुदेव गायतोंडे, अकबर पद्मसी, रामकुमार, स्वामीनाथन, रिचर्ड बोर्थोलोम्यू, रूडी वान लाइडन आदि को भी याद किया. कृष्ण से मिलना एक किस्म की पवित्र और अदम्य कला-जिजीविषा के साथ समय बिताने जैसा रहा. हम कृतज्ञ, अभिभूत लौटे.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)