सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को उस पर लगे आरोपों के ख़िलाफ़ अधिकार देता है, कहा कि सभी आरोपियों को चुप रहने का अधिकार है और जांचकर्ता उन्हें बोलने या अपराध स्वीकारने के लिए मजबूर नहीं कर सकते. जांच में ‘सहयोग’ का मतलब ‘स्वीकारोक्ति’ नहीं हो सकता.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को इस बात पर जोर देते हुए कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को उन पर लगे आरोपों के खिलाफ अधिकार देता है, कहा कि सभी आरोपियों को चुप रहने का अधिकार है और जांचकर्ता उन्हें बोलने या अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि जांच में ‘सहयोग’ का मतलब ‘स्वीकारोक्ति’ नहीं हो सकता. इस प्रकार जांच एजेंसी आरोपियों के खिलाफ सिर्फ इसलिए मामला नहीं बना सकती क्योंकि वे चुप रहने का विकल्प चुनते हैं.
पीठ ने उत्तर प्रदेश के एक आपराधिक मामले की सुनवाई करते हुए पूछा, ‘सहयोग का मतलब कबूलनामा नहीं हो सकता…वह (आरोपी) चुप रहना क्यों नहीं चुन सकता? जब संविधान प्रत्येक व्यक्ति को चुप रहने का अधिकार देता है, तो इसे असहयोग के तर्क के रूप में कैसे उठाया जा सकता है?’
चुप्पी का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (3) में है, जिसमें कहा गया है कि किसी को भी अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. यह प्रावधान आरोपी को आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार देता है, जो कानून का एक मौलिक सिद्धांत है.
आपराधिक न्यायशास्त्र के तहत किसी व्यक्ति को उचित संदेह से परे दोषी साबित करना अभियोजन पक्ष का कर्तव्य माना जाता है. जब तक अन्यथा सिद्ध न हो जाए, अभियुक्त निर्दोष ही रहता है.
अदालत ने तर्क दिया कि किसी आरोपी के चुप रहने के फैसले को कुछ परिस्थितियों में नकारात्मक निष्कर्ष के रूप में माना जा सकता है, लेकिन यह उचित संदेह से परे उस व्यक्ति के अपराध को साबित करने के अभियोजन पक्ष को उसके कर्तव्य से मुक्त नहीं कर सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश मामला एक डॉक्टर दंपति से संबंधित है, जहां पत्नी ने उनके पति के खिलाफ दहेज उत्पीड़न और मारपीट के आरोप लगाए थे. फरवरी में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी शख्स की गिरफ्तारी पूर्व जमानत याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद मई में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान की.
गुरुवार को जब मामला सुनवाई के लिए आया, तब आरोपी शख्स के वकील ने एक या दो हफ्ते की मोहलत मांगी, लेकिन उनकी पत्नी के वकील ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई. पीठ द्वारा पूछे जाने पर पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि वह व्यक्ति जांच में सहयोग नहीं कर रहा है और इस प्रकार वह अदालत की किसी भी कृपा का पात्र नहीं है.
इस पर पीठ ने पलटवार करते हुए कहा कि कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि कोई आरोपी इस आधार पर सहयोग नहीं कर रहा है कि उसने सभी आरोप कबूल नहीं किए हैं.
अदालत ने कहा, ‘आप यह कहते रहेंगे कि उसने तब तक सहयोग नहीं किया जब तक उसने अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों को कबूल नहीं कर लिया. लेकिन आपराधिक कानून न्यायशास्त्र और संविधान इसे इस तरह नहीं देखते हैं.’
प्रत्येक व्यक्ति के अपने खिलाफ न बोलने या चुप रहने के संवैधानिक अधिकार का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा कि वह किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं कर सकती क्योंकि यह बयान है कि उसने अपने अपराध स्वीकार नहीं किए हैं.
इसके बाद पीठ ने उस व्यक्ति की अंतरिम जमानत की अवधि बढ़ा दी और दंपति से मतभेदों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए मध्यस्थता पर विचार करने को कहा. उसके बाद सुनवाई को चार सप्ताह के लिए टाल दिया गया.