कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: देश में घृणा, परस्पर अविश्वास, भेदभाव, अन्याय, झूठ, अफ़वाह सभी में अद्भुत विस्तार हुआ है. राजनीति, मीडिया, धर्म, सामाजिक आचरण सभी मर्यादाहीन होने में कोई संकोच नहीं करते. राजनीति की सर्वग्रासिता, सार्वजनिक ओछापन-टुच्चापन लगभग अनिवार्य माने जाने लगे हैं.
पिछला लगभग एक दशक भारतीय राजनीति, समाज, आर्थिकी, बुद्धि और ज्ञान, धर्म, मीडिया आदि अनेक क्षेत्रों में बड़ी उथल-पुथल का रहा है. ऐसा दावा बार-बार किया जाता है कि उसमें ‘सबका साथ और सबका विकास’ हुआ है. विकास का अक्सर अर्थ सुविधाओं, अवसरों, संसाधनों में विकास और विस्तार का होता है. अगर जो हुआ है उस पर वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार और आकलन किया जाए तो प्रवृत्तियों, परिवेश, घटनाओं आदि में विस्तार और बढ़ोतरी को साफ़ देखा जा सकता है.
सबसे पहले तो देश में घृणा, परस्पर अविश्वास, भेदभाव, अन्याय, झूठ, अफ़वाह सभी में अद्भुत विस्तार हुआ है. ऐसे लोग बहुत बढ़ गए हैं जो झूठ बोलते, झूठ फैलाते और झूठ में यक़ीन करते हैं. वादों, झांसों और जुमलों में भी बड़ी बढ़त हुई है. सार्वजनिक संवाद में अभद्रता, नीचता और झगड़ालूपन भी बहुत बढ़ गए हैं. धर्मांधता, कट्टरता, सांप्रदायिकता और जातिवाद में भी देशव्यापी इज़ाफा हुआ है: अंधविश्वासों, कर्मकांडों में निष्ठा और उनके पालन में भी विस्तार हुआ है.
राजनीति, मीडिया, धर्म, सामाजिक आचरण सभी मर्यादाहीन होने में कोई संकोच नहीं करते. राजनीति की सर्वग्रासिता, सार्वजनिक ओछापन-टुच्चापन लगभग अनिवार्य और स्वाभाविक माने जाने लगे हैं. धर्मों द्वारा, विशेषतः हिंदू धर्म द्वारा, राजनीति को अपना दुरुपयोग करने की खुली छूट दे दी गई है. धर्म इतने सत्वहीन, अध्यात्म-शून्य और स्वतंत्रता-न्याय-समता विरोधी पहले कभी नहीं हुए जितने आज हो गए हैं: धर्मों का आचरण लगातार अधार्मिक होता गया है: राजनेताओं, धर्मनेताओं, मीडिया के लोगों की आत्मरति भयावह रूप से कई गुना बढ़ गई है.
साथ ही, विशेषतः मुसलमानों और ईसाई भारतीय नागरिकों साथ राजकीय और सामाजिक दोनों तरह के भेदभाव और अत्याचार तेज़ी से बढ़े और व्यापक हुए हैं. हिंसा, लिंचिंग, बुलडोज़री, मुठभेड़ आदि को, विशेषतः अल्पसंख्यकों के प्रसंग में, सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग क़ानूनी माध्यम बड़े पैमाने पर माना जाने लगा है. संत-महंत-साधु आदि की संख्या भी बढ़ गई है और उनमें से अधिकांश आध्यात्मिक अज्ञान फैलाने में बहुत मुखर, सक्रिय और आक्रामक हैं. उनमें से कुछ ने खुलेआम ग़ैर-हिंदुओं के नरसंहार का आह्वान किया है और उनमें से बहुत कम के विरुद्ध कोई कार्रवाई हुई है.
इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बहुत काम हुआ. ठेकेदारी और रिश्वत का रिश्ता पुराना है: ज़्यादा ठेके, ज़्यादा पैसा और ज्य़ादा रिश्वत. सड़कें काफ़ी चौड़ी हुई हैं और इतनी कि पैदल चलने वाले उस पर चल नहीं सकते- मारे जाएंगे. सामाजिक दरारें भी चौड़ी की जा रही हैं. आर्थिक विकास पर पहले से औसत से कम हुई है और सभी सार्वजनिक आंकड़े अविश्वसनीय हो चुके हैं. बेकारी और बेरोज़गारी बेहताशा बढ़ गई हैं.
निज़ाम का मानना है कि जवान बेरोज़गारों को हिंदू-मुस्लिम में फंसा दो, लिंचिंग-हिंसा में ढकेल दो तो बेकारी का दंश और दर्द कम और भोंथरे हो जाएंगे. ग़रीबी कम तो नहीं हुई है पर सार्वजनिक कल्पना से बाहर फेंक दी गई है. रुपये के अंतरराष्ट्रीय मोल में भारी गिरावट होती रही है, इतनी कि चार-पांच पैसे भर बढ़त अब उपलब्धि की तरह गिनाई जाती है.
विधायकों की खुलेआम ख़रीद-फ़रोख़्त कर सरकारें गिराई-बनाई गई हैं और इसको लगभग क़ानूनी मान्यता मिलती गई है. किसानों की ज़मीनें कर्ज़ के चुकाने पर नीलाम होती रहती हैं और मनचाहे बड़े औद्योगिक घरानों की लाखों करोड़ रुपयों के कर्ज़ माफ़ किए जा रहे हैं.
अनेक संवैधानिक संस्थाएं जैसे चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स अधिकरण पूरी तरह से, पूरी बेशर्मी के साथ, सत्ता के पालतुओं और उपकरणों की तरह व्यवहार करने लगे हैं. मीडिया का एक बड़ा साधन-संपन्न और प्रभावशाली हिस्सा गोदी मीडिया हो गया है और सत्ता के हर काम के समर्थन और प्रसार में लगा है. उसे सांप्रदायिक झूठ और घृणा का व्यापक प्रसार करने में कोई संकोच नहीं होता. वह मुदित मन सत्ता का स्तुतिमंच है. मीडिया के बड़े हिस्से की स्वामिभक्ति और नैतिक पतन में आश्चर्यजनक विकास हुआ है.
बुद्धि और ज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा के स्तर और साधनों की कमी में लगातार कमी आई है. भारत का एक भी विश्वविद्यालय संसार के दो सौ श्रेष्ठ संस्थानों की सूची में जगह नहीं पाता. ज्ञान की राजनेता खुलेआम खिल्ली उड़ाते और अज्ञान का महिमा-मंडन करते रहते हैं. बुद्धि-आधारित समाज बनाना तो दूर सारी कोशिश बुद्धि और विवेक से शून्य, ज्ञान-विपन्न, आज्ञाकारी पढ़ा-लिखा समाज बनाने की है.
भारतीय परंपरा, संस्कृति और इतिहास की मनमानी दुर्व्याख्याएं की जा रही हैं और उन्हें सत्ता के समर्थन से लागू और प्रचारित किया जा रहा है. महात्मा गांधी और नेहरू की लगभग दैनिक निंदा और अवमूल्यन किए जा रहे हैं. लोकस्मरण का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है कि लोग सच और सचाई भूल जाएं और उनकी जगह गढ़े-गढ़ाए झूठों में यक़ीन करने लगे.
अज्ञान और विस्मृति का ऐसा विस्तार अभूतपूर्व है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हर तरह से कटौती की गई है और असहमति को लगभग अपराध बना दिया गया है. उसे स्वतंत्रता का उपयोग करनेवाले अनेक बौद्धिक और पत्रकार जेल में हैं. विकास और विस्तार की यह कथा लंबी चल सकती है पर फिलमुक़ाम इतना ही: इत्यलम्.
स्वतंत्र कला का निर्भय स्वप्न
भारतीय स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष हो चुके और यह एक विडंबना ही है कि हम इस मुक़ाम पर इस स्वतंत्रता में लगातार कटौतियां होते देख रहे हैं. फिर भी, यह याद करना चाहिए कि 1947 में युवा कलाकारों के एक समूह ने एकत्र होकर नवस्वतंत्र भारत में स्वतंत्र कला का एक निर्भय स्वप्न देखा था.
इन स्वप्नदर्शियों ने अपने को ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ नाम से संगठित किया था. हमारी स्वतंत्रता रक्तरंजित आई थी और हमारी पारंपरिक धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलता बहुत दबाव और तनाव में थी: देश का बंटवारा हो रहा था. इन कलाकारों ने बड़ी निर्भीकता और गहरे विवेक से एक साथ आना तय किया: उनमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि सब शामिल थे.
एक तरह से उसमें शामिल कलाकारों की पृष्ठभूमि, कला-दृष्टि, सरोकारों आदि की बहुलता भारत की सर्जनात्मक-सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलता का कला-रूपक थी. यह भी कहा जा सकता है कि जिस बहुलता को कुल दो-तीन वर्षों बाद लागू किए जाने वाले संविधान में मूलाधार के रूप में शामिल किया जाने वाला था उस बहुलता के, ये कलाकार सृजन में, सक्रिय-मुखर अग्रदूत थे.
अभी तीनेक बरस पहले निकले कविता संकलन ‘तार सप्तक’ का इन कलाकारों को पता नहीं था पर उसमें शामिल कवियों की ही तरह ये भी ‘राहों के अन्वेषी’ थे. जिस भारतीय आधुनिकता का यह समूह प्रतिपादन कर रहा था वह औपनिवेशिक अकादमिकता का निषेध करते हुए अपनी जड़ों से जीवनी पाती पर संसार भर के लिए खुली आधुनिकता थी. उसमें दृष्टियों-शैलियों-मुहावरों आदि की बहुलता के लिए जगह थी.
इस समूह के संस्थापक सदस्यों के अलावा उसमें या उसके इर्दगिर्द और कई कलाकार शामिल हुए. उसमें से रज़ा, हुसैन, सूज़ा, राम कुमार, कृष्ण खन्ना, वासुदेव गायतोंडे, तैयब मेहता, अकबर पद्मसी आठ कलाकार, निर्विवाद रूप से, आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्यों में माने-गिने जाते हैं. भारत में इससे पहले या बाद में किसी और कला-समूह को ऐसा गौरव नहीं मिला.
औपचारिक रूप से समूह ज़्यादा दिन नहीं चल पाया. उसकी कुल एक प्रदर्शनी 1948 में हुई. लेकिन उनकी दोस्ती और संग-साथ, संवाद और सम्पर्क सबकी ज़िंदगी भर रहे और चले. वे एक-दूसरे के कटु आलोचक भी थे पर गहरे सहचर भी. अपनी राह और अद्वितीयता, असहमति और परस्पर आलोचना, संवाद और साहचर्य का यह समूह और उसके कलाकार अद्भुत और अभूतपूर्व मिसाल रहे हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)