अदालतें लोकतंत्र में चुनाव पर रोक नहीं लगा सकतीं, ये ‘बिल्कुल शक्तिहीन’ हैं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की कर्नाटक डिवीज़न में चुनाव होने संबंधी एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था. इस दौरान शीर्ष अदालत ने सभा के चुनाव कराने संबंधी कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरक़रार रखते हुए कहा कि हम चुनाव पर रोक नहीं लगा सकते, अगर यह अनुच्छेद 329 के तहत आने वाला मामला है तो हम बिल्कुल शक्तिहीन हैं.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की कर्नाटक डिवीज़न में चुनाव होने संबंधी एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था. इस दौरान शीर्ष अदालत ने सभा के चुनाव कराने संबंधी कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को बरक़रार रखते हुए कहा कि हम चुनाव पर रोक नहीं लगा सकते, अगर यह अनुच्छेद 329 के तहत आने वाला मामला है तो हम बिल्कुल शक्तिहीन हैं.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते शुक्रवार (14 जुलाई) को एक संवैधानिक प्रावधान का हवाला देते हुए कहा कि चुनाव पर रोक लगाने में अदालतें ‘बिल्कुल शक्तिहीन’ हैं, जो चुनावी मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप को प्रतिबंधित करता है.

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ ने जोर देकर कहा है कि संविधान, अनुच्छेद 329 के तहत, सीटों के आवंटन या निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन में अदालतों के हस्तक्षेप को निषेध करता है. प्रावधान में कहा गया है कि मतदान के नतीजों को केवल चुनाव याचिकाओं के जरिये ही चुनौती दी जा सकती है.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से जुड़े एक चुनावी मामले में पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ ने पूछा, ‘लोकतंत्र में, क्या आप चुनाव रोकेंगे? अगर चुनाव रोक दिया जाता है तो लोकतंत्र को लेकर क्या कहेंगे?’

इस दौरान सभा का प्रतिनिधित्व कर रहे मेहता ने तर्क दिया कि मतदाता सूची और अन्य मामलों में कई विसंगतियों और अनियमितताओं को देखते हुए सभा के कर्नाटक डिवीजन के चुनाव की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन शीर्ष अदालत ने दृढ़ता से कहा कि वह चुनाव पर रोक नहीं लगा सकती है.

पीठ ने कहा, ‘हम चुनाव पर रोक नहीं लगा सकते. अगर यह अनुच्छेद 329 के तहत आने वाला मामला है तो हम बिल्कुल शक्तिहीन हैं. 1950 के दशक में पोन्नुस्वामी फैसले से लेकर 1978 में मोहिंदर सिंह गिल मामले तक, इस अदालत ने हमेशा एक ही बात कही है.’

सुप्रीम कोर्ट ने शुरुआत से सीधे हस्तक्षेप न करने का दृष्टिकोण अपनाया है और चुनाव प्रक्रिया के हर पहलू से निपटने का काम चुनाव आयोग और अन्य प्राधिकरणों पर छोड़ दिया है, लेकिन बाद में सिद्धांतों को बदला गया कि अदालतें वास्तव में चुनाव को आगे बढ़ाने के लिए कुछ निर्देश जारी कर सकती हैं.

पीठ ने अफसोस जताया, ‘हमारे न्यायाधीश शुरुआती वर्षों में यह समझ नहीं पाए कि हमारे आदेशों और दृष्टिकोण का फायदा उठाने वाले धूर्त व्यक्ति होंगे. बाद में 1978 में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक रास्ता खोला और जस्टिस भगवती ने इसका विस्तार किया. विधायिका और कार्यपालिका पर इतना भरोसा किया गया कि वे कुछ भी गलत नहीं करेंगे, लेकिन जो कुछ हो रहा था उसे देखते हुए, उन्हें (न्यायाधीशों को) कहना पड़ा कि चलो एक रास्ता निकालते हैं, क्योंकि यह कहने से कुछ नहीं होता कि यह चुनाव याचिकाओं के अधीन है. पांच वर्षों के भीतर कितनी चुनाव याचिकाओं पर निर्णय लिया जाता है? शायद किसी पर नहीं.’

इसने 21 अप्रैल को कर्नाटक हाईकोर्ट की खंडपीठ के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, जिसमें धारवाड़ में कर्नाटक प्रांतीय सभा की प्रबंध समिति और वेतनभोगी कर्मचारियों के लिए चुनाव कराने के एकल न्यायाधीश पीठ के पिछले आदेश का अनुपालन करने का निर्देश दिया गया था.

पीठ ने आगे बताया कि 21 अप्रैल का आदेश एक अंतरिम आदेश है, जो खंडपीठ के समक्ष कार्यवाही के अंतिम परिणाम के अधीन है और इसलिए हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं बनता है.

सभा की अपील पर विचार करने से इनकार करते हुए पीठ ने कहा कि उसने जनवरी में भी चुनाव पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था, जब सभा पहले दौर में शीर्ष अदालत में आई थी. उसने सॉलिसिटर जनरल से कहा, ‘हम अब कोई विरोधाभासी आदेश पारित नहीं कर सकते.‘’

सभा की स्थापना महात्मा गांधी ने मद्रास में 1918 में की थी, जिसका उद्देश्य उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में देश के दक्षिणी राज्यों में हिंदी का प्रचार करना था.

केंद्र सरकार ने 1964 के केंद्रीय अधिनियम द्वारा सभा को राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया था और इसे एक डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दिया, जो डिग्री, डिप्लोमा और अन्य प्रमाण-पत्र प्रदान कर सकता है.

सभा को चार डिवीजन में बांटा गया है- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु. सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विवाद धारवाड़ स्थित कर्नाटक प्रांतीय सभा की प्रबंध समिति और वेतनभोगी कर्मचारियों के आसन्न चुनाव से संबंधित है.

1952 के पोन्नुस्वामी फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि अनुच्छेद 329(बी) में ‘चुनाव’ शब्द पूरी चुनावी प्रक्रिया को दर्शाता है, जो चुनाव कराने की अधिसूचना जारी करने से शुरू होती है और परिणाम की घोषणा पर समाप्त होती है, और चुनावी प्रक्रिया एक बार शुरू होने के बाद किसी भी मध्यस्थ चरण में अदालतों द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है.

अनुच्छेद 329 (बी) में कहा गया है कि संसद के किसी भी सदन या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी भी सदन के लिए किसी भी चुनाव पर सवाल नहीं उठाया जाएगा, सिवाय इससे संबंधित प्राधिकरण को प्रस्तुत की गई चुनाव याचिका और ऐसे तरीके से जो उपयुक्त विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी कानून के तहत हो.

गिल मामले में संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 329 (बी) चुनाव को पूरा करने के लिए चुनाव आयोग और उसके अधिकारियों द्वारा उठाए गए चुनावी कदमों को कानूनी चुनौतियों देने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है.

यह निर्णय एक ही समय में दो प्रकार के निर्णयों के बीच फर्क करता है. इसमें कहा गया है कि पहला उन कार्यवाहियों से संबंधित है जो चुनाव की प्रगति में बाधा डालती हैं, जबकि दूसरा चुनाव को पूरा करने में तेजी लाता है और चुनाव को आगे बढ़ाने का काम करता है.

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