ग्राउंड रिपोर्ट: 2002 के गुजरात दंगों में विस्थापित हुए लोगों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. दंगों के 15 साल बाद भी उनके पास न ज़मीन है न आधारभूत सुविधाएं.
अहमदाबाद में जैसे-जैसे आप सिटीज़न नगर की झुग्गियों के नज़दीक पहुंचते हैं सड़क ख़राब होती जाती है. अहमदाबाद के सबसे बड़े कूड़ाघर पिराना के नीचे बसी इस कॉलोनी तक आने के लिए कोई ढंग का रास्ता नहीं बना है.
2002 दंगों के पीड़ितों के रहने के लिए बनाई गई इस रिलीफ कॉलोनी में जैसे ही आप पहुंचते हैं पिराना के इस 75 फीट ऊंचे कचरे के ‘पहाड़’ और खुले सीवरों की बदबू आपका स्वागत करते हैं! रही-सही कसर बगल की एक केमिकल फैक्ट्री से उठते धुंए के ग़ुबार से पूरी हो जाती है.
गुजरात सरकार जिस विकास का वादा करती है वो अहमदाबाद की इन बस्तियों तक पहुंचा ही नहीं है जहां दंगों में विस्थापित हुए मुस्लिम रह रहे हैं.
जुहापुरा, सिद्दीक़ी नगर और सिटीज़न नगर जैसे इन इलाकों में न कोई स्कूल है, न कोई प्राथमिक अस्पताल या बेसिक स्वास्थ्य सुविधा. न सड़क, न साफ-सफाई की कोई व्यवस्था, न ही पीने के पानी की. जिस तरफ देखिए सरकार की उदासीनता और लापरवाही ही नज़र आती है.
42 साल के नदीमभाई सैय्यद बढ़ई का काम किया करते थे. 2002 में दंगों के दौरान नरोदा पाटिया में उनका घर और दुकान दोनों जला दिए गए. 2003 में 40 अन्य परिवारों के साथ वे सिटीज़न नगर में रहने आए.
नदीम भाई बताते हैं, ‘हमें मिले इस एक कमरे में मैं अपने 5 लोगों के परिवार के साथ रहने आया था. पर अब बच्चे बड़े हो गए हैं. मेरे बेटों की शादी हो चुकी है. नौ लोगों के परिवार के साथ इस एक कमरे के मकान में रहना मुमकिन ही नहीं है.’
बॉम्बे होटल एरिया नाम से मशहूर सिटीज़न नगर की इस बस्ती में क़रीब 40 घर हैं. यह कॉलोनी केरल मुस्लिम लीग रिलीफ कमेटी द्वारा दान में दी गई थी. तब मलप्पुरम के सांसद ई. अहमद इसके अध्यक्ष थे.
पिछले दिनों ही अहमद का इंतक़ाल हुआ है. गुजरात में फैले सभी रिलीफ कैंपों की तरह सिटीज़न नगर को भी अस्थायी कैंप के रूप में बसाया गया था पर वक़्त के साथ ये स्थायी झुग्गी में बदल गया है.
कलीम सिद्दीक़ी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने हाल ही में पिराना के कूड़ाघर को बंद करवाने के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है.
कलीम बताते हैं, ‘अगर यह लोगों का स्थायी ठिकाना बनने वाला है, तो जो लोग यहां 14 साल से राह रहे हैं, उन्हें इन घरों का मालिकाना हक़ मिलना चाहिए पर ये संस्थाएं ऐसा करने से साफ इनकार करती हैं.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘जिन मुस्लिम संस्थाओं ने इन रिलीफ कॉलोनियों में घर दान किए हैं, उनकी बेपरवाही भी (सरकार से) कम नहीं है. यह कॉलोनी एक स्थानीय बिल्डर शरीफ़ ख़ान ने बनवाई थी, पर इसका मालिकाना हक़ केरल मुस्लिम लीग ट्रस्ट के पास है. पिछले साल यहां के कुछ बाशिंदों ने केरल मुस्लिम लीग को मालिकाना हक़ देने के बारे में लिखा था. पर उनका जवाब आया कि वे केरल जाकर इस विषय में बात करें. यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग ग़रीब दिहाड़ी मजदूर हैं, वो कैसे इतनी दूर जाने की सोच सकते हैं. तब से यह मुद्दा यूं ही पड़ा है.’
2002 के दंगों में लगभग 2 लाख के करीब लोग विस्थापित हुए थे. ये लोग लगभग साल भर तक दरबदर ऐसे ही भटकते रहे. उसके बाद कुछ मुस्लिम संस्थाएं और एनजीओ मदद के लिए सामने आए और 16,087 लोगों को पूरे गुजरात की 83 रिलीफ कॉलोनियों में बसाया गया. इनमें से 15 तो अहमदाबाद में मुस्लिम बहुल इलाकों में ही हैं.
होज़ेफा उज्जैनी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो मानवाधिकार संस्था ‘जन विकास’ से जुड़े हैं और इन कॉलोनियों में रहने की स्थितियों पर सर्वे कर रहे हैं.
वे बताते हैं, ‘इन 83 कॉलोनियों में से केवल 17 में घर उनमें रहने वालों के नाम पर हैं. इस वजह से यहां रहने वालों को पैनकार्ड, आधार या पासपोर्ट बनवाने या फिर लोन मिलने में ख़ासी मुश्किलें आती हैं.’
ज़्यादातर मुस्लिम संस्थाएं यहां के रहवासियों को मालिकाना हक़ नहीं देना चाहती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये लोग फिर इन घरों को बेच देंगे.
सिटीज़न नगर बनवाने वाले अहमदाबाद के बिल्डर शरीफ़ ख़ान कहते हैं, ‘जो भी इन घरों के मालिकाना हक़ चाहता है, उसका मकसद इसे बेचना ही है. पर अगर इनके पास मालिकाना हक़ होता, तब भी इसे बेचना बहुत लंबी प्रक्रिया है.’
जब ये घर दान दिए गए थे, तब केरल मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली थंगल थे. उनके निधन के बाद उनके बेटे मुनव्वर थंगल अब इस पद पर हैं. मुनव्वर से बात करने पर शरीफ़ ख़ान की ही बात की झलक दिखती है.
वे कहते हैं, ‘मैंने अभी कुछ समय पहले ही पद संभाला है, तो मैं इस बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता. हालांकि जहां तक मेरी जानकारी है ये घर दंगे में विस्थापित हुए लोगों के लिए बनाए गए थे और इन्हें वैसे ही रहना चाहिए. अगर इन घरों को बेच दिया जाएगा तो इस दान का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा. फिर भी हम देखेंगे कि इस मसले पर क्या किया जा सकता है.’
जिस ज़मीन पर ये घर बने हैं वे कुछ लोगों की निजी संपत्ति है. सिटीज़न नगर के कई मामलों में तो इन 14 सालों में राज्य सरकार ने इन ज़मीनों को गैर-कृषि योग्य ज़मीन की श्रेणी में वर्गीकृत भी नहीं किया है. न ही इन संस्थाओं ने इसके लिए कोई क़ानूनी प्रक्रिया शुरू करने का प्रयास ही किया है.
वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शमशाद पठान बताते हैं, ‘अगर इन घरों का मालिकाना हक़ इनमें रहने वालों को मिल जाता है, फिर भी वो ज़मीन उनकी नहीं होगी. वजह है कि इनमें से ज़्यादातर ज़मीनों के स्वामित्व को लेकर को स्पष्टता नहीं है न ही इन्हें गैर-कृषि योग्य ज़मीन का दर्जा मिला हुआ है. ये कॉलोनियां अस्थायी व्यवस्था के बतौर बनाई गई थीं, फिर भी इन लोगों ने यहां 15 साल गुज़ार दिए. जो दो लाख लोग उस समय विस्थापित हुए थे, उनमें से महज़ कुछ 16 हज़ार लोगों को इन बस्तियों में पनाह दी गई थी. बाकी लोग कहां गए इसका सरकार को न पता है न पता लगाने की कोई कोशिश ही की गई. आज की बात करें तो आज भी 5,000 करीब लोग इन झुग्गियों में रह रहे हैं. अगर राज्य सरकार चाहे तो आंतरिक विस्थापन का शिकार हुए इन 5,000 लोगों का पुनर्वास कोई इतना कठिन काम भी नहीं है.’
न सुकून न सहूलियत
इन घरों का मालिकना हक़ ही कोई अकेला मसला नहीं है, जिसका सामना यहां के बाशिंदे कर रहे हैं. इन बस्तियों में अधिकतर में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है.
जुहापुरा शहर की सबसे बड़ी मुस्लिम बस्ती है पर यहां पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है. अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की पाइपलाइन बगल की हिंदू-बहुल जोधपुर बस्ती तक ही है. इस मसले पर पिछले साल मार्च में एक जनहित याचिका दायर की गई थी कि कैसे शहरी व्यवस्था की योजना हिंदू बहुल क्षेत्र में तो सही से लागू की गई पर जुहापुरा में नहीं. जो पानी खरीद नहीं सकते उन्होंने चंदा इकठ्ठा करके बस्ती में बोरवेल खुदवाया है.
कलीम सिद्दीक़ी द्वारा 5 मार्च 2016 को एक जनहित याचिका में सिटीज़न नगर के 10 किलोमीटर की परिधि में आने वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के बारे में जानकारी मांगी गई थी, जिसके जवाब में अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने जो सूची भेजी है, उसमें निजी क्लीनिकों के नाम हैं, साथ ही उन्होंने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की इस लिस्ट में एसआर फकरुद्दीन नाम के किसी ‘नूरानी हक़ीम’ के क्लीनिक को भी जगह दी है!
यहां रहने वाली रेहाना बताती हैं, ‘मेरे बेटे को कोई तालीम नहीं मिली और अब वो मजदूरी करता है. मेरे शौहर भी एक दिहाड़ी मजदूर थे. कई बार ऐसे दिन भी आते थे जब कोई आमदनी नहीं होती थी. पिछले साल उन्हें सांस की तकलीफ़ हुई और दो महीने पहले वो गुज़र गए.’
‘मैंने उनके इलाज के लिए 50,000 रुपये उधार भी लिए पर फिर भी मैं उन्हें नहीं बचा पाई. काश मेरे पास पैसे होते!’, रेहाना रोते हुए अपने कमरे की ओर इशारा करती हैं, जहां वे 14 सालों से रह रही हैं, और अगले हफ़्ते इसे ख़ाली करने वाली हैं, ‘मैं वो उधार नहीं चुका सकती. जिस व्यक्ति से मैंने उधार लिया था, उसने मुझे ये कमरा ख़ाली करने को कहा है, जिससे कि जब तक मेरा बकाया पूरा नहीं हो जाता वो इसे किराये पर देकर पैसे वसूल कर सके.’
एक और रहवासी शेख़ ख़ातून बीबी कहती हैं, ‘लोग हमें सलाह देते हैं कि जो हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ जाओ, यक़ीन मानिये इसकी हमसे ज़्यादा कोशिश किसी ने नहीं की होगी. पर मैं इस बात को दिमाग से निकाल ही नहीं पाती कि हमारे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो गया था. आज वे सब दिहाड़ी मजदूर हैं क्योंकि हम उन्हें तालीम ही नहीं दिला पाए. और शायद इन सब अव्यवस्थाओं का सबसे बड़ा नुकसान यही हुआ है.’