भाजपा नहीं चाहती कि लोग समझें कि अयोध्या में राम मंदिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस ज़मीन से जुड़े विवाद के निपटारे के फलस्वरूप बन रहा है. वह समझाना चाहती है कि भाजपा, उसकी सरकारों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उसके आनुषंगिक संगठनों ने जी-जान न लगा रखी होती, तो उसका बनना संभव नहीं होता.
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव पास आ रहे हैं, अयोध्या में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण का सारा श्रेय अपने खाते में डालकर चुनाव में उसका लाभ उठाने की भाजपा की बेताबी बढ़ती जा रही है. यह बेताबी नहीं चाहती कि लोग समझें कि यह मंदिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नौ नवंबर, 2019 को उससे जुड़े विवाद के निपटारे के फलस्वरूप बन रहा है. वह उन्हें समझाना चाहती है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), उसकी सरकारों, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) व उसके आनुषंगिक संगठनों ने जी-जान न लगा रखी होती, तो उसका बनना संभव नहीं होता.
सवाल है कि क्या वाकई ऐसा है और क्या राम मंदिर निर्माण के भाजपा-विहिप कहें या संघ परिवार के प्रयत्न कभी भी इतने नेकनीयत या ईमानदार रहे हैं कि वे उनकी राजनीतिक सुविधाओं व लाभों के अधीन न रह जाएं? उनका दुर्भाग्य कि उनके राम मंदिर आंदोलन का इतिहास तक इसकी गवाही नहीं देता. वह बताता है कि उनकी मंदिर निर्माण की सारी कवायदें राजनीतिक लाभ का उपक्रम भर थीं- उसे हिंदुओं की आस्था का सवाल तो उन्होंने इस लाभ को लगातार बढ़ाने के लिए ही बना रखा था.
1984 से पूर्व राम मंदिर निर्माण उनमें से किसी एक के एजेंडा में ही नहीं था, जबकि संघ 1925 में स्थापित हो चुका था और उसका राजनीतिक बाजू भारतीय जनसंघ 1951 में. भारतीय जनसंघ को यावतजीवन, तो संघ को 1977 में भारतीय जनसंघ के जनता पार्टी में विलय और भाजपा के रूप में ‘पुनर्जन्म’ के बाद तक बाबरी मस्जिद में ‘तालों में बंद भगवान राम की मुक्ति’ या वहां राम मंदिर निर्माण की याद नहीं आई थी.
संघ के संस्थापक डाॅ. केशवराव बलिराम हेडगेवार और 1940 से 1973 तक उसके सरसंघचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर को भी नहीं.
उनके बरक्स अखिल भारतीय हिंदू महासभा इस मुद्दे को लेकर शुरू से ही मुखर थी और राम व कृष्ण दोनों की जन्मभूमियों के ‘पुनरुद्धार’ हेतु आंदोलन किया करती थी. एक बार उसने वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हिस्से से ‘मुसलमानों का अवैध व अनधिकार कब्जा’ हटाकर उसके ‘पुनरुद्धार’ के लिए गिरफ्तारियां भी दी थीं.
1967 के आम चुनाव में उसके घोषणा-पत्र के तेरहवें पृष्ठ पर कहा गया था: ‘हिंदू महासभा श्री विश्वनाथ मंदिर वाराणसी, अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि, मथुरा स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि आदि उन सभी मंदिरों का पुनरुद्धार करना चाहती है, जो इन दिनों मुसलमानों के अवैध अधिकार में हैं.’
1977 में केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर फूट, मोरारजी व चरण सिंह की सरकारों के पतन और 1980 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद भारतीय जनसंघ ने जनता पार्टी से अलग होकर भाजपा का रूप धारण किया तो भी उसके पांच आधारभूत सिद्धांतों में अयोध्या, मथुरा या काशी की बाबत कुछ नहीं था. उसके ये सिद्धांत थे: राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता, लोकतंत्र, सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता, गांधीवादी समाजवाद तथा मूल्यों पर आधारित साफ-सुथरी राजनीति.
अलबत्ता, इसके बाद संघ ने जैसे भी बने, भाजपा का राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए विहिप को आगे कर दिया तो उसने 7-8 अप्रैल, 1984 को दिल्ली में पहली धर्म-संसद आयोजित की और उसमें ‘राम जन्मभूमि की मुक्ति’ की योजना बनाई. फिर 25 सितंबर, 1984 को सीतामढ़ी से रामजानकी रथयात्रा निकाली गई तथा 6 अक्टूबर, 1984 को सरयू के किनारे राम जन्मभूमि की मुक्ति की शपथ ली गई. तदुपरांत ‘ताला खोलो पदयात्रा’ भी निकलनी थी, लेकिन वह 31 अक्टूबर, 1984 को हुई तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत की भेंट हो गई.
भाजपा को 1984 का लोकसभा चुनाव विहिप की कोशिशों के बरक्स इस शहादत की छाया में लड़ना पड़ा तो उसको कुल दो सीटें मिलीं और प्रेक्षकों ने लिखा कि वह गांधीवादी समाजवाद के घाट पर आत्महत्या करते-करते बची है. लेकिन यही वह मोड़ था, जहां अपने राजनीतिक उन्नयन के लिए व्यग्र भाजपा समेत प्रायः सारे संघ परिवार को ‘भगवान राम की मुक्ति’ की शिद्दत से जरूरत महसूस होने लगी. तब इसके लिए उनके आंदोलन का नारा था- आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो. इसी क्रम में 18 अक्टूबर, 1985 को राम जन्मभूमि न्यास बना तथा जनवरी, 1986 में अयोध्या में संत सम्मेलन किया गया.
इसको लेकर राजनीतिक लाभ ही होड़ तब और तेज हो गई, जब फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडे ने एक वकील की अर्जी पर एक फरवरी 1986 को दूसरे पक्ष को सुने बिना बाबरी मस्जिद में 22-23 दिसंबर, 1949 को मूर्तियां रख दिए जाने के बाद से ही बंद ताले खोल देने का आदेश दे दिया. उन दिनों प्रचार था कि भाजपा व विहिप के ‘बढ़ते प्रभाव’ से परेशान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनसे उनका हिंदुत्व का कार्ड छीन लेने के उद्देश्य से अपनी ओर से प्रयास करके ये ताले खुलवाए. इसके विरुद्ध बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनी और उसने ‘भारत बंद’ का आह्वान तक किया.
जाहिर है कि अब तक इस संबंधी राजनीति का तवा खासा गरम हो चुका था. सो, जून 1989 में भाजपा ने अपनी पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) की बैठक में पहली बार मामूले को अपने खुले एजेंडा पर ले आई. जाहिर है चुनावी फायदे के लिए, जो 1989 के लोकसभा चुनाव में उसे मिला भी-उसकी सीटें दो से बढ़कर 85 हो गईं. फिर तो उसे ऐसे लाभ का चस्का-सा लग गया, जो 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा, 23 अक्टूबर को बिहार में उनकी गिरफ्तारी, भाजपा द्वारा वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापसी, विहिप द्वारा अयोध्या में 30 अक्टूबर, 1990 की ‘कारसेवा’ और उसके कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग तक जा पहुंचा.
अनंतर, भरपूर राजनीतिक लाभ की आशा में मई, 1991 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में भाजपा पहली बार इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में लाई. यह लिखकर कि जन्मस्थान पर श्रीराम मंदिर का निर्माण हमारी सांस्कृतिक विरासत व राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक है और पार्टी वहां मौजूद ढांचे को ससम्मान अन्यत्र स्थानांतरित करके ‘वहीं’ श्रीराम मंदिर बनवाने के लिए प्रतिबद्ध है. इस ‘प्रतिबद्धता’ ने उसे लोकसभा की 120 सीटें तो दिलाईं ही, साथ ही हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में पूर्ण बहुमत का ‘उपहार’ भी दिया- पहली बार.
फलस्वरूप कल्याण सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और 6 दिसंबर, 1992 को भाजपा नेताओं की उपस्थिति में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहाकर दी और उसकी जगह अस्थायी राम मंदिर बना दिया. तब दावा किया जाने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय में दिए हलफनामे के विपरीत बाबरी मस्जिद ढहवाकर कल्याण ने राम मंदिर के लिए अपनी सरकार दांव पर लगा दी, लेकिन तथ्य यह है कि बाद में किसी भाजपा या विहिप नेता ने उसके ध्वंस में अपनी कोई भूमिका स्वीकार नहीं की.
भाजपा को उम्मीद थी कि 1996 के लोकसभा चुनाव में इस ध्वंस के बूते वह लोकसभा में सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच जाएगी. मगर उसे 161 सीटें ही मिलीं और सबसे बड़ी पार्टी होकर भी वह महज तेरह दिन के लिए सरकार में रह सकी, क्योंकि राजनीतिक रूप से अस्पृश्य मानकर किसी भी अन्य दल ने उसे समर्थन नहीं दिया.
1998 में उसने कुछ दलों के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर सत्ता पाने के लिए राम मंदिर मुद्दे छोड़ दिया तो एक बार फिर सिद्ध हुआ कि वह उसके लिए आस्था के बजाय राजनीतिक सुविधा का ही मामला है. 1996 से 2004 के बीच उसने केंद्र में तीन सरकारें बनाईं और तीनों बार अपना पूर्ण बहुमत न होने के बहाने इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही डाले रखा- इस दृष्टिकोण को भी कि यह आस्था का मामला है और अदालत इसका फैसला नहीं कर सकतीं.
2001 में विहिप ने यह भ्रम रचने के लिए कि भाजपा के मुद्दा छोड़ने के बावजूद वह राम मंदिर निर्माण के लिए प्रयासरत है, 15 मार्च, 2002 से राम मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान कर दिया, मगर अंततः गोधरा कांड व गुजरात दंगों के बीच ‘शिलादान’ करके ‘खुश’ हो गई!
इस बीच विवाद की अदालती सुनवाई भी चलती रही और मध्यस्थता के प्रयास भी. 30 सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट का विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके तीन दावेदारों में बांट देने का फैसला आया, फिर नौ नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय का, जिसके अनुसार मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक भूमि देकर एक ट्रस्ट की देख-रेख में मंदिर बनाया जा रहा है.
अब चतुर भाजपा चुनाव जीतने के लिए अदालती फैसले का श्रेय भी लूट लेना चाहती है. चाहती है कि किसी को याद न रह जाए कि इससे पहले मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग पर उसका रवैया इतना विवादित था कि उसके विरोधी तो विरोधी पुराने सहयोगी भी उसे और उसकी मोदी सरकार को घेरते हुए कहते थे- ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे’.
2003 में अटल के उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी मंदिर निर्माण हेतु विशेष विधेयक की मांग ठुकरा दी थी. फिर अटल के बाद और मोदी से पहले का अपना वक्त अपनी हार्डलाइनर छवि बदलते और दो-दो चुनाव हारते हुए काटा था.
यों, संघ परिवार की राम मंदिर के प्रति प्रतिबद्धता की पोल 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोले जाने के बाद ही खुल गई थी. तब, जब अयोध्या-फैजाबाद के शांतिकामी नागरिकों ने मसले का दोनों पक्षों को स्वीकार्य व सर्वमान्य समाधान ढूंढकर सद्भावपूर्वक मंदिर निर्माण का रास्ता साफ कर दिया था. विहिप नेता अशोक सिंघल भी इस समाधान के पक्ष में थे और संघ के हिन्दी व अंग्रेजी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ व ‘द ऑर्गनाइजर’ भी.
दैनिक ‘जनमोर्चा’ के तत्कालीन संपादक (अब स्मृतिशेष) शीतला सिंह ने अपनी ‘अयोध्या: राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ शीर्षक पुस्तक में इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि बाद में संघ के तत्कालीन प्रमुख बालासाहब देवरस ने अशोक सिंघल से कह दिया कि राम मंदिर तो देश में बहुत हैं, अयोध्या में एक और बन गया तो क्या हो जाएगा? इसलिए हमें उसके निर्माण की चिंता छोड़कर, उसके लिए किए जा रहे आंदोलन के जरिये हिंदुओं में आ रही चेतना का लाभ उठाना और देश की सत्ता पर कब्जा करना चाहिए.
विडंबना देखिए कि अब उनकी पार्टी सत्ता पर काबिज है तो उसी राम मंदिर के निर्माण का श्रेय लेकर अपनी सत्ता की उम्र बढ़ाना चाहती है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)