वन संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए 400 से अधिक पारिस्थिकीविदों ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को लिखे पत्र में कहा है कि यह सिर्फ़ संशोधन नहीं है, बल्कि एक पूरी तरह से नया अधिनियम है. इसके तहत कथित तौर पर बुनियादी ढांचे के विकास के लिए आवश्यक मंज़ूरियों से छूट दे दी गई है.
नई दिल्ली: 400 से अधिक पारिस्थितिकीविदों के एक समूह – जिनमें प्रसिद्ध शिक्षाविदों से लेकर छात्र और शोधकर्ता तक शामिल हैं – ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को वन संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों के बारे में पत्र लिखकर अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं. संशोधन विधेयक संसद के आगामी मानसून सत्र में चर्चा के लिए आने के लिए तैयार है.
पारिस्थितिकीविदों ने विधेयक को लेकर चार प्रमुख चिंताओं पर प्रकाश डाला है और कहा है कि मौजूदा अधिनियम में संशोधन करने के बजाय यह इसे पूरी तरह से परिवर्तित करने का प्रयास प्रतीत होता है.
हस्ताक्षरकर्ताओं का कहना है, ‘हम दृढ़ता से मानते हैं कि वर्तमान वन (संरक्षण) अधिनियम 1980, सुप्रीम कोर्ट के डब्ल्यूपी 202/9 के फैसले के साथ मिलकर प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं और इनके बेहतर एवं प्रभावी कार्यान्वयन की आवश्यकता है.’
पत्र में कहा गया है, ‘सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध वर्तमान आंकड़ों को देखते हुए हममें से प्रत्येक भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा की स्थिति के बारे में गहराई से चिंतित है. भारत के केवल 21 फीसदी भूमि क्षेत्र में वन हैं, और इसका केवल 12.37 फीसदी ही अक्षुण्ण प्राकृतिक वन (बहुत घना और मध्यम घना जंगल) है.’
पत्र में आगे लिखा है कि भारत के जंगलों की पहले से ही नाजुक स्थिति को देखते हुए और जमीनी स्तर पर हमारे विविध अनुभवों के आधार पर हमें वन संरक्षण संशोधन विधेयक, 2023 के बारे में गंभीर चिंताएं हैं, जो हाल ही में संयुक्त संसदीय समिति से पारित हुआ है. वास्तव में, कोई यह तर्क दे सकता है कि यह सिर्फ एक संशोधन नहीं है, बल्कि एक पूरी तरह से नया अधिनियम है.
इसके मुताबिक, ‘परामर्श चरण के दौरान कई संगठनों ने प्रस्तुतियां प्रदान कीं और उनकी चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया गया. हम विधेयक में कई मुद्दों को फिर से उजागर करने और अपने सांसदों एवं मंत्रियों से इस कदम पर पुनर्विचार करने का आग्रह करने के लिए लिख रहे हैं.’
पत्र में चार बिंदुओं में अपनी चिंताओं को रेखांकित करते हुए पहले बिंदु को शीर्षक दिया गया है, वन क्षेत्रों का पुनर्वर्गीकरण.
इसको लेकर पत्र में कहा गया है, ‘नई धारा 1ए, उपधारा 1 देश में वनों के वर्गीकरण के संबंध में भ्रम पैदा करती है, जिसमें कहा गया है कि वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) केवल 25 अक्टूबर 1980 या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज क्षेत्रों पर लागू होगा. इससे वैध आशंकाएं पैदा हो गई हैं कि संशोधन टीएन गोदावर्मन बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले को अमान्य कर देगा, जिसमें अदालत ने एफसीए के दायरे का विस्तार करते हुए जंगल के अर्थ की व्याख्या की थी.’
दूसरे बिंदु का शीर्षक है, सीमा क्षेत्रों के पास की परियोजनाओं और सुरक्षा उद्देश्य वाली परियोजनाओं को छूट प्रदान करना.
इसमें कहा गया है, ‘संशोधन से अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के 100 किमी के भीतर सुरक्षा संबंधी बुनियादी ढांचे के लिए वन मंजूरी की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी. ये क्षेत्र देश में सबसे अधिक पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों का घर हैं, जिनमें पूर्वोत्तर भारत के जंगल, लद्दाख और स्पीति के उच्च ऊंचाई वाले रेगिस्तान, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अल्पाइन वन और पश्चिम भारत की खुली झाड़ियां और रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र शामिल हैं.’
आगे कहा गया है, ‘देश के विभिन्न हिस्सों में सुरक्षा संबंधी अन्य बुनियादी ढांचे को भी वन मंजूरी से छूट दी गई है, जिसका मतलब है कि देश का हर हिस्सा सैन्य बुनियादी ढांचे से प्रभावित हो सकता है.’
पत्र के अनुसार, ‘हालांकि देश की सैन्य सुरक्षा सुनिश्चित करना एक प्राथमिकता है, लेकिन यह हमारी पारिस्थितिक सुरक्षा गंवाने की कीमत पर नहीं होना चाहिए. ये प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से बढ़ते अप्रत्याशित मौसम पैटर्न के खिलाफ बफरिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इनके नुकसान के परिणामस्वरूप अधिक विस्थापन होगा और आंतरिक सुरक्षा जोखिम बढ़ जाएगा.’
पश्चिमी हिमालय में हाल ही में आई बाढ़ से पता चलता है कि बुनियादी ढांचे के विकास से प्रभावित क्षेत्रों में भूस्खलन के कारण संपत्ति का सबसे अधिक विनाश हुआ है.
चिंता के तीसरे बिंदु के रूप में ‘चिड़ियाघरों, सफ़ारी पार्कों और इको-टूरिज्म गतिविधियों को प्रदान की जाने वाली छूट’ पर बात की गई है.
पत्र में लिखा है, ‘एक चिड़ियाघर या सफारी पार्क की तुलना जंगल से नहीं की जा सकती है. रोजगार पैदा करने के लिए इको-टूरिज्म भी एक महत्वपूर्ण सहायक गतिविधि है, लेकिन इसे वन मंजूरी से छूट देने का मतलब यह होगा कि पर्यटन प्रकृति से आगे निकल जाएगा. इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इको-टूरिज्म परियोजनाओं में अक्सर बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य होते हैं, जो प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए हानिकारक होता है.’
पत्र में संशोधन की धारा 2 का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘केंद्र सरकार किसी भी अन्य उद्देश्य के लिए मंजूरी से छूट प्रदान कर सकती है. इससे वन भूमि पर कई सहायक गतिविधियों का द्वार खुल सकता है, जिनके लिए अब मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी.’
चिंता के अंतिम बिंदु के रूप में स्थानीय मानव समुदायों के हितों और अधिकारों के हनन की बात की गई है. पत्र में कहा गया है, ‘इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाओं को मंजूरी प्रक्रिया से छूट देने का मतलब यह होगा कि अब वनवासियों से सलाह नहीं ली जाएगी.’
पत्र में कहा गया है कि ‘वन अधिकार अधिनियम- 2006’ के तहत किसी भी परियोजना पर कार्य करने से पहले स्थानीय समुदायों की ग्राम सभाओं से सहमति प्राप्त करना अनिवार्य है. यह अधिकार आदिवासी समुदाय ने वर्षों के संघर्ष के बाद पाया है. ऐसी संभावना है कि एफसीए में प्रस्तावित संशोधन वनों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य लोगों के अधिकारों पर कुठाराघात करेगा.
पत्र में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री से आग्रह किया गया है कि इस संशोधन विधेयक को विशेषज्ञों के साथ अतिरिक्त परामर्श के बिना संसद में पेश नहीं किया जाना चाहिए.
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