समान नागरिक संहिता: गुलिस्तां में कभी भी फूल एकरंगी नहीं होते, कभी हो ही नहीं सकते

जिस सरकार को अरसे से धर्म के नाम पर भेदभावों को बढ़ाने की कोशिशों में मुब्तिला देख रहे हैं, वह उन भेदभावों को ख़त्म करने के नाम पर कोई संहिता लाए तो उसे लेकर संदेह गहराते ही हैं कि वह उसे कैसे लागू करेगी और उससे उसे कैसी समानता चाहिए होगी?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जिस सरकार को अरसे से धर्म के नाम पर भेदभावों को बढ़ाने की कोशिशों में मुब्तिला देख रहे हैं, वह उन भेदभावों को ख़त्म करने के नाम पर कोई संहिता लाए तो उसे लेकर संदेह गहराते ही हैं कि वह उसे कैसे लागू करेगी और उससे उसे कैसी समानता चाहिए होगी?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

किसी को कोई ये कैसे बताए/गुलिस्तां में कहीं भी फूल एकरंगी नहीं होते/कभी हो ही नहीं सकते/कि हर इक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं/जिन्होंने बाग एकरंगी बनाने चाहे थे/उनको जरा देखो/कि जब एक रंग में सौ रंग जाहिर हो गए हैं तो/वो अब कितने परेशां हैं, वो कितने तंग रहते हैं!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समस्याओं की जटिलताओं में जाने और उनके उपयुक्त समाधान तलाशने से परहेज रखने और ‘एक देश’ के नाम पर देशवासियों को बेहिस एकरंगी जुमलों व सरलीकरणों में उलझाने की अपनी पुरानी ‘परंपरा’ में जब भी कोई नई कड़ी जोड़ते हैं, प्रसिद्ध शायर, फिल्मी गीतकार, पटकथा लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता जावेद अख्तर की ‘हुक्मनामा’ शीर्षक नज्म की ये पंक्तियां बरबस याद आने लगती हैं.

गत दिनों, निस्संदेह, कई राज्यों की विधानसभाओं व देश की लोकसभा के आगामी चुनावों में प्रतिद्वंद्वी दलों पर बढ़त बनाने की नीयत से, उन्होंने समान नागरिक संहिता का राग अलापते हुए यह सवाल दोहराकर कि एक देश में दो विधान कैसे चलेंगे, इस ‘परंपरा’ में एक नई कड़ी जोड़ी, तो भी यह नज्म बहुत याद आई. यह पूछने का भी मन हुआ कि तब क्या देश कानून का चाबुक चलाकर सारे लोगों को-उनकी पसंद-नापसंद का खयाल रखे बिना-एकरंगी जीवन शैली अपनाने को बाध्य कर देने से ही चलेगा?

क्या किसी परिवार के कुछ सदस्य तीखी तरकारी खाकर सी-सी करने लगते और उससे परहेज बरतना चाहते हों तो दूसरों के लिए भी मिर्च-मसालों का उपभोग कानून बनाकर वर्जित कर दिया जाना चाहिए? क्या परिवारों के बीमार या बीमारी से निर्बल सदस्यों के लिए अलग से सुपाच्य व पोषक भोज्य पदार्थों की व्यवस्था नहीं की जानी चाहिए? और क्या हर किसी पर हर मामले में कानून की तलवार लटकाए रखी जानी चाहिए?

हालांकि प्रधानमंत्री का समान नागरिक संहिता को लेकर ‘एक देश, एक विधान’ की बात करना नई बोतल में पुरानी शराब पेश करने जैसा ही है, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी वे इसकी बात उठा चुके हैं. तभी 21वें विधि आयोग ने 2018 में यानी गत लोकसभा चुनाव से पहले अपनी अपीलों व नोटिसों की मार्फत इस संहिता पर लोगों के विचार आमंत्रित किए थे. लेकिन प्राप्त विचारों के आईने में ऐसी किसी संहिता को ‘सर्वथा अवांछनीय व अनावश्यक’ करार दिया था.

सरकार को उसका यह रवैया कुछ जमा नहीं, इसलिए फिर लोकसभा चुनाव आने वाले हैं तो 22वें विधि आयोग की मार्फत इस पर फिर नागरिकों के विचार मांग लिए गए हैं और उनके विचार देने की समय सीमा 14 जुलाई से बढ़ाकर 28 जुलाई कर दी गई है. आयोग के अनुसार इस बारे में उसे अलग-अलग क्षेत्रों से अनेक अनुरोध प्राप्त हुए हैं.

यह और बात है कि इस मुद्दे पर चर्चाओं ने जोर तभी पकड़ा, जब प्रधानमंत्री ने मध्य प्रदेश में, जहां जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं, कहा कि समान नागरिक संहिता नहीं होगी तो एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियमों वाली दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा?
उनका देश को घर-परिवार के रूप में देखना बहुत अच्छी बात होता, बशर्ते ‘एक देश..’ वाले जुमले से एकजुटता व समानता की एकरंगी, मशीनी और संकीर्ण समझ पर आधारित उनका पुराना मोह ‘एक देश, एक विधान’ से बहुत आगे नहीं जा चुका होता.

दुर्भाग्य से वह इतना आगे जा चुका है कि उसकी बिना पर वे समस्याओं की जटिलता की ओर से ध्यान हटाने चलते हैं तो यह भी याद नहीं रख पाते कि कभी ‘मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात किया करते थे, जिसका अर्थ था कि उनकी सरकार लोगों के जीवन में ज्यादा दखल दिए बिना उन्हें बेहतर शासन प्रदान करेगी.

यहां याद किया जा सकता है कि इसी मोह के हाथों विवश होकर उन्होंने 2019 में दूसरी बार देश की सत्ता संभालने के फौरन बाद उसकी चुनाव सुधारों की जरूरत पूरी करने के लिए किंचित सार्थक कदम उठाने के बजाय ‘एक देश, एक चुनाव’ का जुमला उछाल दिया था. तब उनकी पहल पर न सिर्फ चुनाव आयोग, नीति आयोग और विधि आयोग ने ‘एक देश, एक चुनाव’ की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी थीं, बल्कि 19 जून, 2019 को सर्वदलीय बैठक भी बुलाई गई थी. विधि आयोग ने इस बाबत राजनीतिक पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए तीन दिवसीय सम्मेलन भी आयोजित किया था.

उन दिनों प्रधानमंत्री के रवैये से लगता था कि देश की सबसे बड़ी जरूरत यह ‘एक देश, एक चुनाव’ ही है और उसकी व्यवस्था के बाद चुनावों से जुड़ी सारी विडंबनाएं एकबारगी खत्म व लोकतांत्रिक अपेक्षाएं पूरी हो जानी हों- उनकी दूषित प्रक्रिया पूरी तरह पवित्र हो जानी हो और धनबल व बाहुबल, जाति-धर्म, संप्रदाय और क्षेत्र आदि की लाइलाज हो रही बीमारियां एक झटके में छूमंतर हो जानी हों. इतना ही नहीं, चुनावों के दिनोंदिन खर्चीले होकर विषम मुकाबलों में बदलते जाने और उनमें दागियों व अपराधियों की भागीदारी जैसी समस्याएं पलक झपकते उड़न-छू हो जानी हों.

सरकार समर्थक मीडिया इससे भी आगे बढ़कर ‘एक देश, एक चुनाव’ को सौ मर्जों की एक दवा बता रहा था और उन अंदेशों पर बात तक करने को तैयार नहीं था, जो एक देश एक चुनाव के कारण लोकतांत्रिक विविधताओं और संसदीय व्यवस्था के खतरे में पड़ जाने को लेकर जताए जा रहे थे- जैसे कि चुनावों के कारण लागू होने वाली आदर्श आचार संहिता व सरकारी मशीनरी की उसके अनुपालन में व्यस्तता ही सरकार प्रायोजित विकास कार्यों के सुचारु रूप से न चल पाने की सबसे बड़ी वजह हो, जबकि इसका एक अर्थ यह भी था ही कि चुनाव को विकास विरोधी ठहराया जा रहा था.

यहां यह भी गौरतलब है कि ‘एक देश, एक विधान’ के ही नाम पर पांच अगस्त, 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम की मार्फत संविधान का अनुच्छेद 370 हटाने और जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीनकर दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने के बाद प्रधानमंत्री ने 73वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से कहा था कि ‘हमने जीएसटी के माध्यम से वन नेशन वन टैक्स के सपने को साकार किया. उसी प्रकार पिछले दिनों ऊर्जा के क्षेत्र में वन नेशन वन ग्रिड का काम भी सफलतापूर्वक संपन्न किया. हमने वन नेशन वन मोबिलिटी कार्ड की व्यवस्था विकसित की. इसी तरह अब देश को एक देश एक चुनाव की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है.’ उन्होंने इस जरूरत को देश के एकीकरण की प्रक्रिया से भी जोड़ डाला था.

सवाल है कि क्या आज की तारीख में बेहतर नहीं होता कि समान नागरिक संहिता की बात करने से पहले वे अपने इस तरह के सारे सरलीकरणों के नतीजों पर एक नजर डाल लेते? सोच लेते कि ‘एक देश, एक विधान’ के नाम पर जम्मू कश्मीर के लोगों की राय लिए बिना अनुच्छेद 370 के उन्मूलन व उसके विभाजन से उसे या देश को किस समस्या से निजात मिल पाई?

‘एक देश, एक कर’ के नाम पर जीएसटी, जिसे कई लोग गब्बर सिंह टैक्स कहते हैं, थोपे जाने से क्या मिला और कुछ मिला तो क्यों पेट्रोलियम पदार्थों को उसके दायरे में नहीं लाया जा रहा? इसी तरह ‘एक देश, एक राशन कार्ड’, ‘वन नेशन, वन ग्रिड’, ‘वन नेशन वन मोबिलिटी कार्ड’ व ‘एक देश, एक बाजार’ की ‘उपलब्धियां’ क्या हैं?

अगर ये ‘उपलब्धियां’ देश के खुश होने लायक हैं तो प्रधानमंत्री समान नागरिक संहिता या कि ‘एक देश, एक विधान’ से आगे बढ़कर ‘एक देश, एक शिक्षा व चिकित्सा प्रणाली तक क्यों नहीं जाते? क्यों सरकार के सबसे बड़े उपक्रम रेलों में भी ‘एक देश, एक जैसे कोच’ वाला व्यवस्था नहीं है और यात्रियों की जेब के हिसाब से उसका विलोम लागू है? क्यों ‘एक देश, एक आय’ की कल्पना करते भी डर लगता है और क्यों सुखों व समृद्धियों के न्यायोचित बंटवारे की बात भी आकाशकुसुम ही बनी हुई है?

कोई पूछे कि एक प्रतिशत अमीर कितने प्रतिशत गरीबों के सपनों व संपत्तियों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं, तो जवाबी आंकड़ा लगातार बढ़ता क्यों जा रहा है. जवाहरलाल नेहरू के वक्त की वह बहस, जिसमें प्रधानमंत्री पर हो रहे खर्च को आम लोगों की आय के परिप्रेक्ष्य में रखकर उसकी लानत-मलामत की जाती थी, अब अप्रासंगिक क्यों मान ली गई है?

इतनी आर्थिक व सामाजिक गैरबराबरियों के रहते कौन गारंटी दे सकता है कि रंग-रूप, वेश व भाषा आदि की अलग-अलग पहचानों, अनेकताओं, बहुलताओं व विविधताओं से भरे इस देश में समान नागरिक संहिता उसकी एकजुटता व एकीकरण में सहायक समानता ला पाएगी? क्या होगा, अगर उसका इकहरापन एक देश, एक नायक या एक देश, इकहरा लोकतंत्र और एक देश, एक ही पक्ष तक ले जाने लगे?

जिस सरकार को हम अरसे से धर्म के नाम पर भेदभावों को बढ़ाने की कोशिशों में मुब्तिला देख रहे हैं, वह उन भेदभावों को खत्म करने के नाम पर कोई संहिता लाए तो उसे लेकर संदेह गहराते ही हैं कि वह उस संहिता को कैसे लागू करेगी और उससे उसे कैसी समानता अभीष्ट होगी?

जैसा कि जावेद अख्तर कहते हैं, अगर वह समानता इकहरी या एकरंगी होगी तो जब एक रंग में सौ रंग जाहिर होने लगेंगे तो हम कितने परेशान और तंग होने को अभिशप्त हो जाएंगे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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