निरपराधों की हत्याएं, स्त्रियों के साथ खुली ज़्यादतियां, अपने ही मुल्क में शरणार्थी बनने को अभिशप्त लोग, क़ानून के रखवालों द्वारा अत्याचारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में ढिलाई के आरोप, हिंसा के धार्मिक या सांप्रदायिक होने के स्पष्ट पुट… हम घटनाओं के सिलसिले को दोहराते देख रहे हैं, बीच में बस एक लंबा अंतराल है.
किसी मुल्क के सफर में दहाइयां मामूली दौर कही जा सकती हैं.
मणिपुर में तीन कुकी-जो (Kuki- Zo) समुदाय की महिलाओं पर हुए यौन अत्याचार और एक उन्मादी हुजूम द्वारा उन्हें निर्वस्त्र कर निकाली गई उनकी परेड- जबकि पुलिस कथित तौर पर खामोश खड़ी थी- लगभग तीन माह पहले की इस घटना के वायरल वीडियो ने बरबस गुजरात की किसी बिलकीस बानो के साथ दो दहाई पहले हुए सामूहिक अत्याचार, उसके रिश्तेदारों की वहीं पर की गई हत्या और आज भी इंसाफ के जारी उसके संघर्ष के प्रसंग को नए सिरे से जिंदा किया है.
When you voted for Gujarat Model 2002, you got #Manipur Model 2023. Your vote, your choice.
— SANJAY HEGDE (@sanjayuvacha) July 20, 2023
ख़बरों मे यह भी बताया गया है कि जब इस जघन्य घटना पर सूबे के मुख्यमंत्री जनाब एन. बीरेन सिंह को किसी चैनल पर पूछा गया तो उन्होंने इस बात को स्वीकारने में भी कोई संकोच नहीं किया कि ‘ऐसे सैकड़ों केस हैं…’
आप कह सकते हैं कि अनजाने में ही सही इस घटना ने इन दोनों इलाकों में हुई किसी विशेष मत या पंथ संबंधी(सांप्रदायिक) एथनिक (नृजाति) हिंसा के तांडव की यादें भी ताज़ा की हैं, एक, जिसका सिलसिला आज भी जारी है और एक, जो हमारे सामने दो दहाई पहले घटित हुआ.
निरपराधों की हत्याएं, मकानों, दुकानों, धार्मिक स्थलों का आग में स्वाहा किया जाना, स्त्रियों के शरीरों के साथ खुली ज्यादतियां, अपने-अपने मकानों से खदेड़े गए और अपने ही मुल्क के अंदर शरणार्थी शिविरों में रहने के लिए अभिशप्त लोग, प्रशासनिक अमले के पक्षपाती व्यवहार के आरोप, उसकी उदासीनता और निष्ठुरता, कानून के रखवालों द्वारा अत्याचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में ढिलाई बरतने के आरोप, हिंसा के धार्मिक या सांप्रदायिक होने के स्पष्ट पुट…
ऐसा प्रतीत हो सकता है गोया हम घटनाओं के सिलसिले को दोहराते देख रहे हैं, बीच में बस एक लंबा अंतराल है. अलबत्ता शक्लें बदल गई हैं, लोग बदल गए हैं, हंगामों में शामिल तंजीमों, संगठनों के लेबल बदल गए हैं…
गौरतलब है कि मणिपुर के कांगपोकपी जिले का 4 मई का वह वीडियो, जिसमें वह तीन कुकी जो आदिवासी समुदाय की महिलाएं दिख रही हैं, उस घटना में एक पीड़िता महिला के भाई और पिता भी मार दिए गए, जो उसे बचाने के की कोशिश कर रहे थे. और उनके इर्दगिर्द एक बेहद उन्मादी समुदाय दिख रहा है, जो उन स्त्रियों के शरीरों के साथ बीभत्स किस्म की हिंसा को अंजाम दे रहा है, और जीत की एक भावना उनके मुख पर चमक रही है; गैर-समुदाय की स्त्राी के साथ ऐसा व्यवहार करके गोया वह उस जीत को मुकम्मल कर रहे है.
एक अंतहीन सामाजिक क्रूरता का प्रदर्शन हो रहा है,
अगर हम अपनी यादों को झिंझोड़ना चाहें तो दो दहाई पहले ऐसी ही तस्वीरें मुल्क के पश्चिमी सूबे में जारी हिंसाचार को लेकर हमारे टीवी स्क्रीन पर कभी कभी चमकती थीं या अख़बारों में शाया होती थीं.
इस बात को नहीं भुलना चाहिए कि इस उत्तरी पूर्वी राज्य में जारी एथनिक या विशेष मत संबंधी हिंसा, जिसने 150 से अधिक लोग मारे गए हैं- और जो आज भी पूरी तरह शांत नहीं हुई है- इसी बात को साबित करती है कि सूबाई हुकूमत स्थिति पर अपना नियंत्रण कायम करने में आज भी असफल हुई है. लाजिमी है कि हुकूमती पार्टी भाजपा से जुड़े मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग तेज हो गई है और सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की भी मांग बढ़ रही है.
वैसे इस हिंसाचार के बहाने ‘डबल इंजन’ सरकार की क्षमता का ढिंढोरा पीटने के दावों की असलियत भी उघाड़कर रख दी है. किसी विश्लेषक ने यह भी कहा है कि अगर डबल इंजन सरकार- अर्थात केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार नहीं होती तो मुमकिन है, हालात पर बहुत पहले काबू कर लिया गया होता!
जैसे कि अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि म्यांमार की सीमा से सटे इस उत्तरी पूर्वी राज्य में जारी रक्तरंजित घटनाक्रम की तरफ अंतरराष्ट्रीय मीडिया का भी ध्यान गया है और इसे काबू करने में सरकार की विफलता के प्रति भी आलोचना के स्वर प्रगट हो रहे हैं. इतना ही नहीं, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह मसला चर्चा के केंद्र में आ रहा है.
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब वज़ीरे आज़म मोदी फ्रांस की यात्रा पर थे- जब वहां बास्तीले दिवस के अवसर पर कार्यक्रम हो रहे थे (14 जुलाई, जिस दिन ऐतिहासिक फ्रेंच क्रांति शुरू हुई थी ) उसी दिन यूरोपीय संसद में इस मसले पर चर्चा हुई थी और चिंता प्रकट की गई थी ( बाद में भारत सरकार के प्रवक्ता ने इस चर्चा को ‘औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतिबिंबन’ कहकर सिरे से खारिज किया था)
गौरतलब है कि भारत में अमेरिकी राजदूत ने भी इस घटनाक्रम को लेकर ‘मानवीय सरोकार’ प्रगट किया था और यह भी जोड़ा था कि अगर पूछा गया तो अमेरिकी सरकार ‘किसी भी रूप में मदद करने को तैयार है ’ भले ही साथ साथ उन्होंने जोड़ा था कि यह भारत का आंतरिक मामला है.
वैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मणिपुर की घटनाओं का बढ़ता उल्लेख हम उस दौर को भी याद दिला सकता है कि जब गुजरात को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बात उठ रही थी, जब भारत के इस पश्चिमी सूबे का घटनाक्रम काफी चिंतित करने वाला दिख रहा था.
अगर महिलाओं खिलाफ होने वाली हिंसा की बात करें तो उन दिनों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, श्रीलंका आदि मुल्कों की महिला नेताओं और एक्टिविस्टों की सहभागिता से एक अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल भी बना था जिसने सांप्रदायिक दंगों के दौरान स्त्रियों के साथ हुए अत्याचारों को जानने के लिए सूबे का दौरा किया था और अपनी रिपोर्ट पेश की थी. उनके निष्कर्ष यही थे कि किस तरह आतंक पैदा करने के लिए बलात्कार को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया.
निस्संदेह, कोई भी तटस्थ प्रेक्षक इन दो घटनाक्रमों की भिन्नताओं का भी आसानी से संज्ञान ले सकेगा:
इनमें सबसे पहले नज़र आती है तथ्यसंग्रहण अर्थात फैक्ट फाइंडिंग के कामों का ही अपराधीकरण, जिसे राज्य तथा उसकी एजेसियां – अंजाम दे रही हैं, सत्य की तलाश को ही संदिग्ध बना देना.
यह ऐसी कवायद है जिसका आगाज़ भाजपा हुकूमत मे ही हुआ है. छत्तीसगढ़ की पूर्ववर्ती रमन सिंह सरकार ने किस तरह विद्वानों, कार्यकर्ताओं के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया था जब वह किसी फर्जी एनकाउंटर मामले की जांच के लिए गए थे और किस तरह वह मामला अदालत में टिक नहीं सका, यह बात इतिहास हो चुकी है.
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने निर्देश दिया था कि वह उन्हें इस कार्रवाई के लिए मुआवजा दे.
मणिपुर में शुरू हुए हिंसाचार के बाद ऐसे कई समाचार छपे हैं कि किस तरह विद्वानों, बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह मीडिया के सामने अपनी बात रख रहे हैं, और किस तरह नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर मुकदमे कायम किए जा रहे हैं क्योंकि वह हिंसाचार के पीड़ितों से मिल रहे हैं, अपने स्तर पर परिस्थिति को जानने की कोशिश कर रहे हैं और अपने अवलोकनों को रिपोर्ट्स के जरिये जनता के सामने पेश कर रहे है.
याद कर सकते हैं कि गुजरात में 2002 में हुए हिंसाचार के बाद नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, जनतंत्र पसंद लोगों की तरफ से कई जगह लोग गए थे और उन्होंने कई रिपोर्ट्स प्रकाशित की थी, मगर उन दिनों किसी कार्यकर्ता या विद्वान के खिलाफ ऐसे केस दर्ज नहीं हुए थे.
यह अलग बात है जब इस हिंसाचार को लेकर अदालत ने कुछ फैसले सुनाए तब अग्रणी नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया. अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो ऐसी लगभग 45 रिपोर्ट्स का प्रकाशन हुआ था और कई फिल्मकारों ने हालात के बारे में छोटी-बड़ी फिल्मों का भी निर्माण किया था.
इस गणतंत्र के मुखिया द्वारा, जिसके पास कार्यकारी ताकत है अर्थात प्रधानमंत्री महोदय द्वारा मणिपुर के मसले पर बरते मौन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.
संगठित हिंसाचार शुरू होने के लगभग ढाई महीने बाद प्रधानमंत्री को मौन टूटा जरूर, मगर महज 30 सेकेंड के लिए क्योंकि कुकी जो समुदाय की महिलाओं के साथ हुए यौन अत्याचार की घटना राष्ट्र्रीय अंतरराष्ट्र्रीय मंचों में सुर्खियां बन गई थीं. उन्होंने स्त्रियों के साथ चली इस हिंसा की निंदा की, उसे राष्ट्र्रीय शर्म बताया मगर एक लफ्ज़ इस पर नहीं बोला कि सूबे में जारी एथनिक हिंसा को लेकर वह क्या सोचते हैं, किसे जिम्मेदार मानते हैं और न ही उन्होंने शांति की कोई अपील की, हिंसा से प्रभावित सूबे का दौरा करने की बात तो दूर रही.
दो दहाई पहले मुल्क के पश्चिमी सूबे में शुरू संगठित हिंसाचार के बाद मुल्क के तत्कालीन प्रधानमंत्री, एक माह के अंदर उस सूबे में पहुंचे जरूर और उन्होंने सूबाई हुकुमत को अपने राजधर्म की याद दिला दी. जाहिर है कि स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उनका यह वक्तव्य बहुत सौम्य समझा गया, लेकिन इसके बावजूद उसने प्रशासन की नाकामयाबी की बात रेखांकित अवश्य की.
वैसे यह जानने की स्थिति में अभी हम नहीं हैं कि गणतंत्र की राष्ट्रपति, जो खुद आदिवासी समुदाय से आती हैं- उन्होंने मणिपुर की हिंसा के बारे में अपनी चिंता प्रगट की है या नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री को इस संबंध में लिखा है या नहीं; लेकिन हम इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गणतंत्र के तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने दो दहाई पहले के दिनों में पश्चिमी सूबे में हिंसा का तांडव मचा था और वह पद पर अभी मौजूद थे, उस घटनाक्रम के बारे में क्या सोचा था या अपनी चिंता किस तरह प्रगट की थी.
हम यह भी जानते हैं कि इस हिंसाचार को लेकर, जिसमें सत्ताधारी हुकूमत की नाकामी के या हिंदुत्ववादी संगठनों की संलिप्तता के आरोप लगे थे, उसे लेकर बाद में जांच के लिए बने नानावटी शाह आयोग के सामने क्या कहा था. हम देख सकते हैं कि उन्होंने जो बात कही वह हुकूमत के कानों के लिए निश्चित ही सुकूनदेह नहीं लगी होगी.
एक वक्त़ था जब मुख्यधारा की मीडिया में मणिपुर अक्सर सुर्ख़ियों में रहता था जब बेहद दमनकारी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (आफस्पा) को हटाने के लिए इरोम शर्मिला ने अपना ऐतिहासिक अनशन चलाया था, जो 16 सालों तक चला.
याद कर सकते हैं कि मणिपुर तब भी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्ख़ियों में आया था जब 17 असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने बुजुर्ग महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था क्योंकि वह थांगजाम मनोरमा के साथ हुए बलात्कार और हत्या का विरोध कर रही थीं.
मणिपुर में लंबे समय से सक्रिय महिलाओं का सामाजिक संगठन ‘मीरा पैबी’ भी अक्सर चर्चा में रहता आया है, जो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सक्रिय रहता आया है और उसने खतरनाक कानूनों के खिलाफ भी लगातार संघर्ष किया है.
आज वह तमाम प्रसंग अतीत के हो चुके हैं. यह एक नया मणिपुर आप के सामने है. न्यू इंडिया का नया मणिपुर- जहां विगत लगभग तीन महीने से जारी आपसी हिंसाचार अभी थमा नहीं है.
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वैसे सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के लंबे इतिहास के बावजूद यह समझना मुश्किल हो सकता है कि मणिपुर में जारी इस आंतरिक हिंसाचार की तरफ- जिसके एथनिक, धार्मिक, आदिवासी-गैरआदवासी तमाम पहलू हैं- और जो इतने दिनों से रुका नहीं है, इसकी तरफ शेष मुल्क का ध्यान जल्दी नहीं गया, इस हिंसाचार ने नागरिक समाज को उस तरह झकझोरा नहीं जैसा कि दो दहाई पहले गुजरात की घटनाओं ने दहलाया था.
आखिर उसके लिए तीन कुकी जो महिलाओं पर यौन अत्याचार के वीडियो के वायरल होने का क्यों इंतज़ार करना पड़ा, जबकि गुजरात की घटनाओं की प्रतिक्रिया विदेशों में भी बड़े पैमाने पर सुनाई दी. वहां की हुकूमतों पर इतना दबाव पड़ा कि उस हिंसाचार के मास्टरमाइंड कहे जा सकने वाले लोगों के विदेश यात्राएं मुश्किल हुई थीं.
क्या इसकी वजह यही है कि मणिपुर एक छोटा-सा सूबा है, जिसकी आबादी बमुश्किल 30 लाख के आसपास है, जबकि गुजरात एक बड़ा और संपन्न सूबा है (आबादी 70 मिलियन से अधिक) या क्या इसकी वजह है कि शेष भारत हमेशा से ही उत्तर-पूर्वी राज्यों के हालात को लेकर अनजान-सा बना रहता है?
या इसकी वजह है कि मणिपुर में जारी हिंसाचार में मेईतेई (आबादी का 53 फीसदी हिस्सा)- जिनमें से अधिकतर हिंदू हैं तथा जो घाटी में रहते हैं और कुकी मुख्यतः ईसाई हैं, जो आदिवासी समुदाय में शामिल माने जाते हैं और जिनकी आबादी 30 फीसदी से कम है और इन दो समुदायों के बीच के रिश्तों में विगत कुछ सालों में विभिन्न वजहों से तनाव बढ़ा है और मणिपुर उच्च अदालत द्वारा मेईतेई को भी जनजाति में शामिल करने के निर्णय ने (जिसके अमल पर सुप्रीम कोर्ट की रोक लगी है) चिंगारी का काम किया या इसकी वजह यह है कि इस इलाके में तनाव का जारी रहना शेष भारत में बहुसंख्यकवादी हिंदुत्व एजेंडा को मजबूती देता है?
या इसकी प्रमुख वजह यह है कि संघ-भाजपा द्वारा जो बहुसंख्यकवादी हिंदुत्व के जिस एजेंडा को बढ़ाया जाता रहा है, उसके प्रति पूरे भारत में 2,000 के दिनों में तुलनात्मक तौर पर कम आकर्षण था और अब यह आकर्षण, स्वीकार्यता बढ़ी है, जो इस बात का संकेत करता है कि भारत रैडिकल ढंग से बदल गया है.
ऐसे तमाम सवाल हो सकते हैं…
जब गुजरात 2002 घटित हो रहा था तब यह देखा गया कि वह आज़ाद भारत का पहला ऐसा दंगा है जो टीवी नेटवर्क के माध्यम से ‘सजीव’ (लाइव) हमारे बेडरूम में पहुंचाया गया है और यह एक तरह का खतरे का संकेत भी था कि यह जाना जाए कि जनता के मानस में कितनी गहराई तक ‘अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता’ ने घर किया है.
यह एक विचलित करने वाला एहसास था कि आज़ाद भारत के संस्थापकों में, जिन्होंने भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक आज़ादी की लड़ाई को नेतृत्व दिया था – धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता निर्विवाद थी और वह जनतंत्र की मजबूत नींव डालना चाह रहे थे, लोकतंत्र की संस्थाओं को मजबूती से खड़ा करना चाह रहे थे, लेकिन उसका सामाजिक आधार काफी कमजोर है और उसके लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता है.
क्या वह डॉ. आंबेडकर नहीं थे जिन्होंने हमें आगाह किया था कि ‘भारत में जनतंत्र भारतीय जमीन पर एक ऊपरी परतनुमा है, जो सारतः गैर जनतांत्रिक है.’ (Democracy in India is only a top dressing on an Indian soil, which is essentially undemocratic.)
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उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का वह एक दौर था जब वह नारा चर्चित था ‘आज बंगाल जो सोचता है, भारत कल सोचेगा.’ यह एक तरह से बंगाल में राजा राममोहन राॅय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि के आगमन के बाद बौद्धिक जगत में मची खलबली की ओर इशारा कर रहा था. लगभग 20 साल पहले इस नारे को एक नया ट्विस्ट मिला. भारत के पश्चिमी सूबे की चिंताजनक स्थिति को रेखांकित करते हुए नारा निकला था ‘आज गुजरात में जो घटित हो रहा है…’
आज जबकि उत्तरी पूर्वी मणिपुर भी उथल पुथल में है और लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं की नाकामयाबी बार-बार उजागर हो रही है, क्या उस नारे को नई शक्ल में ढालना मौजूं नहीं होगा ‘आज मणिपुर में जो घटित हो रहा है…’
हम याद कर सकते हैं कि राष्ट्र्रीय महिला आयोग की मुखिया ने मणिपुर में यौन अत्याचार की घटनाओं के बारे में और आयोग के सामने प्रस्तुत हुई यौन अत्याचार की घटनाओं के बारे में क्या कहा? उन्होंने दावा किया कि आयोग द्वारा ऐसी शिकायत की गई थी लेकिन कि मणिपुर के अधिकारियों ने जवाब नहीं दिया.
अंत में , विगत दो दहाई के दरमियान भारत गुणात्मक तौर पर बदला है.
‘न्यू इंडिया’ के नाम पर भारत का एक तरह से नया रूप हमारे सामने है जहां जिन बुनियादी सिद्धांतों पर उसका गठन हुआ था, उनका व्यवहार में परित्याग किया जा रहा है और रफ्ता-रफ्ता ही सही, उसे हिंदू राष्ट्र्र की दिशा में ढकेला जा रहा है.
शायद अब वक्त़ आ गया है कि नए विवेक और ऊर्जा के साथ और नई ताकतों को साथ जोड़ते हुए ऐसी किसी संभावना को खारिज कर सकें और हम अपने आप को उस सपने के साकार होने के लिए नए सिरे से प्रतिबद्ध हों जहां सभी समुदाय शांति से एक दूसरे के साथ रह सकें और संप्रदाय/धर्म के नाम पर किसी के साथ दुजाभाव न मुमकिन हो.
शायद हम उस मिथक से भी हमेशा के लिए तौबा करें कि ‘हमारा समाज सहिष्णु रहा है.’ जिसके बारे में आज प्रबुद्ध तबके का हिस्सा भी काफी बातें करता है. आखिर कोई समाज, कोई कौम जो हाशियाकृत तबके के लोगों को समान दर्जे का मनुष्य न मानती हो, उसे सहिष्णु कैसे कहा जा सकता है?
वह वायरल वीडियो और सर्वाइवर्स द्वारा दी गई गवाहियां इस बात का एक और प्रमाण हैं कि किस किस्म के बर्बर और अपराधी हमारे समाज में पलते हैं, जो किसी मामूली घटना से उद्वेलित होकर ‘गैरों’ के खिलाफ भयानक क्रूरता को अंजाम दे सकते हैं और महिलाओं के शरीरों के साथ खुले में, तमाम लोगों के बीच छेड़छाड़ करने से एक विचित्र किस्म की खुशी हासिल कर सकते हैं.
विडंबना ही है कि ऐसे निर्दयी, बर्बरों को राजनीतिक शह भी मिलती है और दोनों के बीच आपस में सामंजस्य रहता है, तालमेल रहता है. और हम अपने पथरीले मौन से ऐसे बलात्कारियों को ‘संस्कारी ’ होने का प्रमाणपत्र देखते रहते हैं और इस बात से भी गुरेज नहीं करते कि उनका सार्वजनिक अभिनंदन हो रहा है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)