विपक्षी दलों ने साथ आने का पहला क़दम ले लिया है, पर चुनौतियां अभी बाक़ी हैं

लगभग सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय पार्टियां मज़बूत हैं, कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. स्थानीय कांग्रेस इकाइयां इन दलों से वर्षों से मुक़ाबला कर रही हैं. अब इनका एकजुट होना, भले ही किसी बड़े मक़सद के लिए, आसान नहीं होगा.

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17-18 जुलाई को बेंगलुरु में हुई विपक्षी दलों की बैठक. (फोटो साभार: ट्विटर//@kharge)

लगभग सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय पार्टियां मज़बूत हैं, कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. स्थानीय कांग्रेस इकाइयां इन दलों से वर्षों से मुक़ाबला कर रही हैं. अब इनका एकजुट होना, भले ही किसी बड़े मक़सद के लिए, आसान नहीं होगा.

17-18 जुलाई को बेंगलुरु में हुई विपक्षी दलों की बैठक. (फोटो साभार: ट्विटर//@kharge)

भाजपा विरोध को लेकर आपस में एकजुट देश की विपक्षी पार्टियों ने अपने समूह के लिए एक ऐसा संक्षिप्त नाम रखा है, जिसने संक्षिप्त नाम रखने के सबसे बड़े उस्ताद नरेंद्र मोदी को भी हैरान कर दिया है.

अपने शासनकाल में मोदी एक के बाद एक नए-नए संक्षिप्त नामों की झड़ी लगाते रहे हैं. इनमें से कई टेढ़े-मेढ़े और अजीब जैसे थे- अमृत (अफोर्डेबल मेडिसिन एंड रिलायेबल इम्प्लांट्स फॉर ट्रीटमेंट) चमन (कोऑर्डिनेटेड हॉर्टिकल्चर असेसमेंट एंड मैनेजमेंट यूजिंग जियोइंफॉर्मेटिक्स) और यहां तक कि बापू (बायोमेट्रिकली ऑथेंटिकेडेड फिजिकल अपडेट). बिल्कुल हाल में अमेरिका में मोदी के मुखकमल से ऐसा ही एक मोती निकला- एआई. यह सिर्फ आर्टिफिशिलय इंटेलिजेंस का संक्षिप्त रूप नहीं था, बल्कि यह अमेरिका-इंडिया के लिए भी था.

बीते महीने बेंगलुरू में 26 विपक्षी दलों की बैठक में अपने समूह का नाम इंडियन नेशनल डेवेलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस तय करने का ऐलान किया, जिसका संक्षिप्त रूप ‘इंडिया’ है. समूह का पूरा नाम भले ही उतना आकर्षक न लगे लेकिन यह संक्षिप्त नाम एक होशियार निर्णय है. डेवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस का क्या मतलब है? और इसे चुनाव प्रचार में कैसे इस्तेमाल में लाया जाएगा, यह भी देखा जाना अभी बाकी है.

लेकिन फिर भी ‘इंडिया’ (आइएनडीआईए) में कुछ तो बात है, और मोदी को यह अफसोस जरूर हो रहा होगा कि ऐसा संक्षिप्त नाम उन्हें क्यों नहीं सूझा, क्योंकि इसमें वह सबकुछ है, जिससे वे प्रेम करते हैं- यह जल्दी से याद रह जाने वाला और ध्यान खींचने वाला छोटा-सा नाम है.

राजनीतिक पर्टियों और गठबंधनों के नाम काफी सामान्य और सरल हुआ करते थे, जिसके शब्दों के प्रथमाक्षरों का इस्तेमाल मीडिया में सुर्खियां लिखने में आसानी के लिए किया जाता था. आरजेडी/राजद, बीजेपी/भाजपा, डीएमके/द्रमुक, एआईएडीएमके/अन्नाद्रमुक, टीडीपी/तेदेपा, जेडी(यू)/जद(यू), सीपीआई/भाकपा, सीपीआईएम/माकपा – अक्षरों का यह खेल खूब प्रचलन में था. और जब समूहों का गठन किया गया, उनका नाम था, जनता पार्टी, तीसरा मोर्चा/थर्ड फ्रंट, यूपीए और एनडीए.

ताज्जुब की बात है कि आज केंद्र में इस वक्त एनडीए की सरकार है, जबकि हकीकत यह है कि इसमें भाजपा और मोदी का इतना ज्यादा वर्चस्व है कि दूसरा कोई मायने नहीं रखता. इसी कारण से भाजपा अपने छोटे सहयोगियों की अवमानना करके अपनी हांकने में नहीं हिचकती है. बीते सालों में अकाली दल और शिव सेना जैसे इसके सहयोगी एनडीए से बाहर निकल गए हैं.

यूपीए और एनडीए दोनों ही गठबंधन हैं, जैसा कि विपक्षियों का नया गठबंधन है. लेकिन एक ‘संयुक्त’ और ‘प्रगतिशील’ है और दूसरा ‘राष्ट्रीय’ और ‘लोकतांत्रिक’ है, हालांकि बाद वाला शब्द व्यवहार में नजर नहीं आता. वहीं आईएनडीआईए यानी इंडिया ने अपने नाम में विकासवादी को शामिल किया है, जिसमें संवृद्धि और सामाजिक न्याय दोनों की ही महक है, जो इसके सभी सदस्यों को पसंद आना चाहिए.

इस तरह से देखें, तो पहला कदम उठा लिया गया है. बड़ी संख्या में पार्टियां साथ आई हैं. वे एक मकसद से एकजुट हुई हैं और वे शक्तिशाली भाजपा से मुकाबला करने के लिए कृत संकल्प है. उनके संयुक्त बयान को सामूहिक संकल्प कहा गया, जो एक संयुक्त प्रतिज्ञा को दिखाता है. एक नया नाम चुना गया है और उम्मीद की जा रही है कि एक साझा कार्यक्रम की जल्दी ही घोषणा की जाएगी. राजनीतिक विरोधियों ने साथ मिलकर चाय पी है और यहां तक कि एक-दूसरे को गले भी लगाया है.

आम आदमी पार्टी भी इस समूह में शामिल हो गई है, जिसने पटना में हुई विपक्षी दलों की पहली बैठक मे दिल्ली अध्यादेश के मसले पर समर्थन नहीं देने के लिए कांग्रेस की आलोचना की थी. कभी राहुल गांधी पर हमला करते नहीं थकने वाली ममता बनर्जी अब उन्हें अपना पसंदीदा बताती हैं; वे अपनी इच्छा से एक ऐसे गठबंधन का हिस्सा बनी हैं, जिसमें उनके दो प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी हैं.

हर किसी ने कम से कम ऊपरी तौर पर कांग्रेस को लेकर, जिससे वे अपने-अपने राज्यों में लड़ रही हैं, अपने शत्रुता भाव का त्याग कर दिया है. वह कांग्रेस जो इन्हीं सूबाई दलों के हिसाब से घमंडी पार्टी हुआ करती थी, अब एक ऐसी पार्टी के तौर पर सामने आ रही है, तो दोस्ताना और सहयोगपूर्ण है और जिसे बराबरी की कुर्सी पर बैठने से कोई ऐतराज नहीं है.

मल्लिकार्जुन खड़गे की बात करें, तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनके चुनाव की आलोचना करने वाले सभी संशयवादियों को हैरान किया है. उन्होंने न सिर्फ अपनी पार्टी के नेताओं को अच्छी तरह से संभाला है (जैसे कि कर्नाटक में) बल्कि विपक्ष के दिग्गजों को भी कूटनीतिक तरीके से साथ लेकर चलने में कामयाब हुए हैं और हर किसी को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे हैं कि कांग्रेस सत्ता के पीछे नहीं भाग रही है, बल्कि दूसरों की ही तरह सामाजिक न्याय और भारत के विचार की रक्षा में उसकी ज्यादा दिलचस्पी है.

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की सफलता का नतीजा यह निकला है कि अब उन्हें एक साथी राजनीतिज्ञ के तौर पर ज्यादा गंभीरता से लिया जाता है. संवाद की जिम्मेदारी खड़गे पर छोड़ने के फैसले का भी फायदा हुआ है.

लेकिन इस खुशनुमा दृश्य को यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए कुछ गंभीर समझौतों और सामंजस्यों की दरकार होगी. और साथ ही सबसे अहम तौर पर जो कि सबसे ज्यादा कठिन भी होगा, सीटों के आपस में बंटवारों की जरूरत होगी. इसके लिए बेहद एहतियात के साथ संवाद की जरूरत होगी और इनके केंद्र में कांग्रेस रहेगी.

लगभग सभी राज्यों में जहां क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत हैं, कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. स्थानीय कांग्रेस इकाइयां इन पार्टियों से वर्षों से मुकाबला कर रही हैं. अब इनका एकजुट होना, भले ही किसी बड़े मकसद के लिए, आसान नहीं होगा.

मिसाल के लिए क्या, आम आदमी पार्टी, जो दिल्ली की प्रमुख पार्टी है, देश की राजधानी में कांग्रेस के साथ सीट साझा करेगी? पंजाब का हाल भी ऐसा ही है, जहां कांग्रेस एक साल पहले तक सत्ता में थी. बंगाल में क्या होगा जहां ममता बनर्जी और कांग्रेस में (और माकपा के बीच, जो मामले को और जटिल बना देता है) छत्तीस का आंकड़ा है. तमिलनाडु जैसी जगहों में यह ज्यादा मायने नहीं रखता, लेकिन बिहार में यह सवाल उठेगा, जहां नीतीश कुमार की अपनी आपत्तियां होंगी.

दूसरी तरफ कांग्रेस भले ही कितना भी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार दिखाए, वह अपना हिस्सा चाहेगी और सभी राज्यों में गठबंधन के सहयोगियों से सीटों की मांग करेगी. आज भी पार्टी की दूसरे राज्यों के अलावा पंजाब, दिल्ली, बंगाल और महाराष्ट्र में मौजूदगी है. दूसरे दल निश्चित ही कांग्रेस के ‘घमंडी’ रवैये झुंझलाएंगे. किसी को पसंद हो या न हो, विपक्षी दलों में कांग्रेस ही है जिसकी राष्ट्रीय पहचान है और यह उसे खलनायक बनाएगा.

इन सारी चीजों को भाजपा दिलचस्पी के साथ देखेगी और इसे अनदेखा करने की स्थिति में नहीं होगी. पहले ही भाजपा ने 37 दलों का कुनबा अपने इर्द-गिर्द जमा कर लिया है, जो दिखाता है कि यह अपने सबसे बड़े वोट चुंबक के बावजूद किसी तरह का कोई जोखिम नहीं उठाना चाह रही है. आने वाले महीनों में यह इंडिया गठबंधन में दिखाई पड़ने वाली किसी भी दरार का हरसंभव फायदा उठाने के लिए अपनी सारी शक्तियों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकेगी.

विपक्षी दलों की बैठक के बाद भले सभी पार्टियां गले मिलते दिख रही हों, लेकिन चुनाव से पहले इसे कई चुनौतियों से पार पाना होगा.

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