कई बार एकताओं व गठबंधनों से कुछ भी हासिल नहीं होता. दल मान लेते हैं कि गठबंधन कर लेने भर से बेड़ा पार हो जाएगा. लेकिन ज़मीनी स्तर पर समर्थकों के बीच बहुत-सी ग्रंथियां होती हैं. ‘इंडिया’ के घटक दलों के समर्थकों के बीच भी ऐसी ग्रंथियां कम नहीं हैं.
अच्छी बात है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा से भारतीय जनता पार्टी और उसकी नरेंद्र मोदी सरकार पर कांग्रेस को जो बढ़त मिलनी शुरू हुई और जो कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बहुत खुलकर सामने आई, अब न सिर्फ कांग्रेस बल्कि विपक्षी दलों का बड़ा हिस्सा उसे हाथ से न जाने देने को लेकर संकल्पबद्ध है और एक समय असंभव मानी जा रही विपक्षी एकता की बेल को उसने कम से कम इतनी ऊंचाई पर चढा़ दिया है कि उसे देखकर उम्मीदें हरी की जा सकें.
इनमें एक उम्मीद इन दलों द्वारा अपने गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखने में भी दिखाई देती है, जिसे लेकर उनकी बढ़त का परसेप्शन बनने लगा तो पहले तो गोदी मीडिया द्वारा यह प्रचारित किया गया कि यह नाम विपक्षी एकता के ‘सूत्रधार’ नीतीश को ही पसंद नहीं है, फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मौके-बेमौके उस पर बरसने का सिलसिला-सा शुरू कर दिया.
साफ है कि परसेप्शन बनाने में अपनी महारत की यह मात (वह भी ऐसे वक्त में जब अपने दो कार्यकालों में वे पहली बार खुद को चैतरफा घिरा हुआ पा रहे हैं और इस दौरान लाइलाज रह गई देश की कई समस्याएं उनके महानायकत्व को खुली चुनौतियां पेश कर रही हैं) उनसे सही नहीं जा रही.
सही भी कैसे जाए, अपने गुजरात के मुख्यमंत्रीकाल से ही वे अपने ज्यादातर चुनाव वास्तविक मुद्दों व सरोकारों के बजाय परसेप्शनों की बिना पर जीतते आए हैं. इसी बिना पर उन्होंने 2014 में भाजपा के परंपरागत कट्टरपंथी वोटबैंक और विकासकामी मतदाताओं को एक साथ साध लेने का असंभव करिश्मा संभव कर दिखाया था. लेकिन अब वे समझ नहीं पा रहे कि ‘इंडिया’ के विरुद्ध कैसा परसेप्शन रचें.
इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त भाजपा की राजनीतिक अस्पृश्यता के खात्मे के लिए बने जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को उन्होंने भाजपा के अकेले अपने बूते बहुमत पाते ही गैर-जरूरी मानकर हाशिये पर डाल दिया था, हड़बड़ी में उसे पुनर्जीवित करने में लग गए हैं.
निस्संदेह, यह हड़बड़ी उनके भीतर समाए डर की संतान हैं और उनका यह डर प्रमाणित करता है कि विपक्ष ने अच्छी शुरुआत की है. लेकिन चूंकि राजग कहें या भाजपा को सीधी चुनौती देने के लिए एक उम्मीदवार से अपने एक भिड़ाने का अपना सपना साकार करने के लिए वांछित वृहत्तर विपक्षी एकता के लिए अभी उसे बेहद ऊबड़-खाबड़ जमीन से गुजरना है, इसलिए बेहतर होगा कि वह इस ‘वेल बिगिन’ को ‘हाफ डन’ मानने और इस गलतफहमी में पड़ने से बचा रहे कि उसने आधा मैदान तो यों ही मार लिया है!
साफ कहें तो उसे किसी भी तरह के अतिआत्मविश्वास से बचने और याद रखने की जरूरत है कि 2019 में उसकी हार का एक ब़ड़ा कारण यह भी था कि विपक्षी एकता के अभाव में भी उसका एक हिस्सा मोदी सरकार के अपनी वादाखिलाफियों के समुद्र में डूब जाने को लेकर आश्वस्त था. इसी आश्वस्ति के चलते वह पुलवामा कांड के बाद ‘घर (पाक) में घुसकर मारने वाली एयरस्ट्राइक’ से बने या बदले हुए माहौल को नहीं पढ़ पाया और बाजी गंवा बैठा.
इस बार ऐसा न हो, इसके लिए उसका कुछ जमीनी सच्चाइयों से वाकिफ रहना जरूरी है. इनमें पहली यह कि जिस भाजपा, राजग या नरेंद्र मोदी से उसका मुकाबला है, उनके लिए लोकतंत्र सत्ता की प्रतिद्वंद्विता की सुविधा भर का मामला है- अपरिहार्य आदर्श या विश्वास का नहीं.
इसी के चलते जहां वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग को लग रहा है कि वे हार के डर से संसद में अपने बहुमत का दुरुपयोग कर चुनाव न कराने के अतिवादी फैसले तक जा सकते हैं, पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक को अंदेशा है कि वे चुनाव जीतने के लिए अयोध्या में राम मंदिर या किसी बड़े भाजपा नेता पर हमला भी ‘प्रायोजित’ कर सकते हैं.
ऐसा कुछ न हो तो भी, चुनावी मुकाबले को विपक्ष के लिए विषम बनाने के लिए चुनावों की निष्पक्षता से खेल करते तो उन्हें यह देश कई बार देख ही चुका है. अब इस खेल के लिए उनके पास उनके ‘मास्टरस्ट्रोकों’ के गुन गाने और उन्हें ‘चाणक्य’ बताने वाला मीडिया तो है ही, चुनाव आयोग और दूसरी संवैधानिक संस्थाएं व एजेंसियां भी उनके अरदब में हैं.
महात्मा गांधी की हत्या के बाद से ही सांस्कृतिक संगठन के चोले में राजनीति करता आ रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वनामधन्य आनुषंगिक संगठन भी (जो कभी अपने प्रतिद्वंद्वियों से सामने आकर नहीं लड़ते और पीठ पीछे की कवायदों में अपना सानी नहीं रखते.) उनके कवच-कुंडलों का काम कर ही रहे हैं. निष्कवच विपक्ष भाजपा से प्रत्यक्ष मुकाबले में उलझता है तो भाजपा की ये प्रच्छन्न भुजाएं उसकी जीत आसान बनाने हेतु कुछ भी उठा नहीं रखतीं.
एक और कठोर जमीनी सच यह है कि विपक्षी एकता का तकिया गैर-भरोसेमंद या कीचड़ सने हाथों वाले नाजुक वक्त में सरकारी जांच या कानून प्रवर्तन एजेसियों के दबाव में आ सकने वालों पर होगा तो उसकी नाव भंवर में तो क्या किनारे पर ही डूब सकती है. (पढ़िए: एजेंसियों का दुरुपयोग करके डुबोई जा सकती है.) उसके पास इससे बचाव का एक ही तरीका है: वह बंदों को गिने ही नहीं, तौले भी, ताकि विपक्षी एकता नेताओं की एकता के बजाय जन-एकता बन सके.
हां, उसे ऐसी एकता के लिए जनता का संवैधानिक व लोकतांत्रिक प्रशिक्षण तो करना ही होगा, जनता को अपनी भी बनाना होगा. हाल के बरसों में जनप्रशिक्षण का यह जरूरी काम एकदम से छोड़ दिए जाने के कारण ही भाजपा के लिए उसे ‘अपनी जनता’ (पढ़िए: मोदी भक्तों) में बदलना आसान होता गया है. बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने ऐसे ही थोड़े कहा था, कि कोई भी विचार कितना ही अच्छा क्यों न हो, अजर-अमर नहीं होता. उसे जिंदा रखने के लिए खाद-पानी देना पड़ता है.
इस खाद-पानी के बगैर कई बार एकताओं व गठबंधनों से कुछ भी हासिल नहीं होता. उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा द्वारा अपनी पुरानी दुश्मनी भुलाकर किया गया गठबंधन इसकी मिसाल है. उन्होंने मान लिया था कि उनके गठबंधन कर लेने भर से मैदान सर हो जाएगा. लेकिन वह सर नहीं हुआ, क्योंकि जमीनी स्तर पर उनके समर्थकों के बीच बहुत-सी ग्रंथियां थीं. इंडिया के घटक दलों के समर्थकों के बीच भी ऐसी ग्रंथियां कम नहीं हैं. अगर वे बनी रहीं तो? जवाब साफ है.
हां, विपक्ष को यह मृगतृष्णा भी नहीं ही पालनी चाहिए कि भाजपाई खेमा लोकसभा चुनाव को मोदी सरकार की वादाखिलाफियों, विफलताओं या भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली, नफरत, डर व संगठित हिंसा आदि के मुद्दों पर आसानी से केंद्रित हो जाने देगा.
अकारण नहीं कि हिंदुत्व व मोदी के चेहरे के चुनाव जीतने के लिए नाकाफी होने के ‘ऑर्गनाइजर’ के आकलन के बावजूद यह खेमा हिंदुत्व के मतदाताओं पर भरपूर इमोशनल अत्याचार करने वाले प्रोजेक्ट पर ही काम कर रहा है.
वह वाराणसी के ज्ञानवापी विवाद को अयोध्या विवाद से भी बड़ा मुद्दा बनाने के फेर में है, जबकि अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का श्रेय लूटना पहले से उसकी योजना का हिस्सा है- आगामी जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उक्त मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के वक्त देशव्यापी ‘राम महोत्सव’ का आगाज भी, जिसमें हिंदुत्व का जयघोष कर मंदिर निर्माण में सफलता को दूसरे स्वतंत्रता दिवस जैसा अवसर बताया जाएगा.
इस अवसर पर मंदिरों में रामचरित मानस व हनुमान चालीसा का पाठ तो होगा ही, प्राण-प्रतिष्ठा के बाद की रात हर घर के सामने कम से कम पांच दीपक जलाए जाएंगे. इसी तरह के एक और इमोशनल अत्याचार के लिए ‘स्मार्ट टेंपल मिशन’ के तहत देश-देशांतर के मंदिरों को ‘टेंपल कनेक्ट’ कार्यक्रम के जरिये एक दूसरे से जोड़ने का भी मंसूबा है.
मणिपुर में हिंसा व हैवानियत का जो कहर बरपा हो रहा है, कल को वह भी भाजपाई खेमे के लोकसभा चुनाव के प्रोजेक्ट का ही हिस्सा साबित हो तो ताज्जुब नहीं. जानकार कहते हैं कि आज की तारीख में भाजपा संगठित व सांप्रदायिक हिंसाओं की सबसे बडी लाभार्थी बन गई है, जबकि मणिपुर और गुजरात-2002 में महज इतना फर्क है कि गुजरात में अल्पसंख्यक मुसलमान निशाने पर थे और मणिपुर में ईसाई आदिवासी हैं.
बहुत संभव है कि जैसे कई भाजपा नेता गुजरात 2002 का औचित्य सिद्ध करते नहीं शरमाते, कल शेष देश में मणिपुर 2023 का औचित्य सिद्ध करते भी नजर आने लगे. वैसे भी मणिपुर 2023 उनकी नफरत की राजनीति की ही परिणति है.
सवाल है कि सांप्रदायिकता को दुश्मन नंबर एक बताने वाला जो विपक्ष अब तक सांप्रदायिकता से कुछ इस तरह लड़ता आया है कि वह घटने के बजाय बढ़ती ही गई है, कोई सबक लेकर उससे लड़ने की अपनी रणनीति बदलेगा या हमेशा की तरह लड़ाई को हार्ड बनाम सॉफ्ट हिंदुत्व का रूप देकर भाजपा के ट्रैप में फंसेगा और उसकी जीत पक्की कर देगा?
उसके ‘इंडिया’ के पास भाजपा के हिंदुत्व से जुड़े उलझाने वाले सवालों का सुस्पष्ट व लोकतांत्रिक जवाब होगा या नहीं? फिर 2019 के चुनाव प्रचार में राहुल को हिंदू ‘सिद्ध’ करने के लिए उनका जनेऊ दिखा चुकी कांग्रेस इस बार उनकी मोहब्बत की दुकानों में क्या प्रदर्शित करेगी? जिस लोकतंत्र व संविधान को बचाने की बात कर रही है, उसकी प्रस्तावना या कड़वा कड़वा थू मीठा-मीठा गप की तर्ज पर कुछ ‘साॅफ्ट-साॅफ्ट’?
इस लिहाज से उनकी भारत जोड़ो यात्रा के अगले चरण पर देशवासियों की नजर रहेगी. वे देखना चाहेंगे कि उनकी दुकान में पेश किया जा रहा इंडिया का वैकल्पिक राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक एजेंडा कितना वैकल्पिक है? और क्या उसमें इतनी दृढ़ता है कि वह भाजपा व उसके एनडीए को अपनी सुविधा व लाभ के चुनावी मुद्दे चुनने व एजेंडा तय करने से रोक पाए?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)