‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ दुनिया के सभ्य होने के बाद इंसान के बर्बर इतिहास का लेखाजोखा है

पुस्तक समीक्षा: राजनीति से क्रूर और असभ्य होते लोग हर समय अपने देश के हिटलरों के साथ खड़े रहते हैं, इसलिए आज भी हिटलर अपना काम किए जा रहा है. अपने अंदर छिपी इस हिटलरी क्रूरता को पहचानने और रोकने के लिए भी गरिमा श्रीवास्तव की 'आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा' को पढ़ा जाना ज़रूरी है.

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(फोटो साभार: वाणी प्रकाशन)

पुस्तक समीक्षा: राजनीति से क्रूर और असभ्य होते लोग हर समय अपने देश के हिटलरों के साथ खड़े रहते हैं, इसलिए आज भी हिटलर अपना काम किए जा रहा है. अपने अंदर छिपी इस हिटलरी क्रूरता को पहचानने और रोकने के लिए भी गरिमा श्रीवास्तव की ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ को पढ़ा जाना ज़रूरी है.

(फोटो साभार: वाणी प्रकाशन)

मणिपुर में कुकी-जोमी महिलाओं के साथ मेईतेई समुदाय का वीभत्स सुलूक और बलात्कार की आती खबरों के बीच गरिमा श्रीवास्तव की ‘आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा’ पढ़ी. वर्तमान खबरों और पुस्तक में दर्ज इतिहास, सबसे गुजरते हुए लगा कि पोलैंड, जर्मनी का होलोकास्ट, बांग्लादेश युद्ध और मणिपुर आपस में गड्डमड्ड हो गए हैं. हर जगह एक ही कहानी दोहराई जा रही है. हर जगह दुश्मन समुदाय को सबक सिखाने के लिए, औरतों को रौंदा जा रहा है. औरतें ही नहीं छोटी बच्चियां भी युद्धीय मर्दानगी का शिकार बन रही हैं, क्योंकि वे मादा इंसान हैं.

धरती पर जितने भी जीव हैं, उनमें सबसे दिमागदार- इंसानों में ही ऐसा होता है कि वे दूसरे कबीले, समुदाय, धर्म, जाति, नस्ल, राष्ट्र की औरतों पर यौन हमले और बलात्कार का इस्तेमाल दुश्मन खेमे को अपमानित करने, उन्हें नीचा दिखाने के लिए करते हैं. हां, बिल्कुल, बाकी जीवों में ये बंटवारे भी नहीं होते. दुखद ये भी है कि पीड़ित समुदाय के मर्द भी अपनी सामंती भीरूता, अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए दुश्मन के यौन हमले का शिकार बनी अपने समुदाय की औरतों को गले लगाना तो दूर, उन्हें अपनाते भी नहीं हैं. इसी कारण युद्ध आमतौर पर न जाने कितनी औरतों को घरविहीन, राष्ट्रविहीन कर देता है.

इसी सच्चाई को गरिमा श्रीवास्तव ने अपने उपन्यास ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा’ में दर्शाया है. यह उपन्यास दुनिया के अलग-अलग हिस्सों की तीन अलग-अलग औरतों की अधूरी प्रेम कथा है, जो दरअसल अपने प्रेमियों के इसी मर्दवादी मानसिक बाड़े के कारण ठुकराई गई हैं, या इसके कारण औरतों ने खुद उनसे दूरी बना ली है. सच है जब तक दुनिया जाति, धर्म, राष्ट्र, के बंटवारे में बंटी रहेगी, प्रेम भी मुकम्मल नहीं हो सकेगा, क्योंकि यह बंटवारा दिमागों में एक कंटीला बाड़ बनाता है, जो प्रेम में रुकावट पैदा करता है.

इस उपन्यास में बांग्लादेश युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध मौजूद है, साथ ही किताब के नाम से ही जाहिर होता है कि इसमें हिटलर की नस्लीय घृणा, तानाशाही से उपजा होलोकास्ट मौजूद है, जहां यहूदी, पोलिश, जिप्सी, समलैंगिक, सोवियत राजनीतिक बंदी सभी कैद कर हिंसक तरीकों से रौंदे जा रहे हैं, लेकिन औरतें इस होलोकास्ट का दोहरा शिकार हैं, उनके साथ भयानक यौन हिंसा हो रही है, ऐसी कि पढ़कर लिखे हुए से भी आंख मूंद लेने का जी हो आए. लेकिन ये सच्चाई है, जिससे आंख नहीं फेरा जा सकता.

जो पढ़ा नहीं जा रहा उसे 1939 से 45 तक लाखों लोगों ने सचमुच झेला था. आउशवित्ज़-बिर्कानेयु के संग्रहालय में मौजूद तथ्यात्मक सामग्री उनकी कहानियों को बयान करती हैं, जिसे उपन्यास के पात्र एक दूसरे को बताते हैं. दुनिया के सभ्य होने के बाद इंसान इतने बर्बर इतिहास से गुजरा हैं यह एहसास रोंगटे खड़े कर देता है. कोई सामान्य इंसान जितनी यातनाओं की कल्पना कर सकता है, ये उससे कई गुना अधिक यातनादायी और भयावह है.

वर्तमान समय के प्रति सचेत दृष्टि रखते हुए इन तथ्यों को पढ़ते हुए लगता है यह आज की ही कहानी है. आज जेलें इन यातनागृहों का छोटा रूप हैं, जिसे मैंने साक्षात देखा, महसूसा भी है. आउशवित्ज़ के यातना शिविर में पाखाने और खाने की लाइनों और उसके लिए मारामारी की बात पढ़कर जेलें याद आती हैं, जो इस लोकतंत्र पर हंसते हुए मौजूद हैं.

जेलों की बात छोड़ भी दें, तो भारत में ऐसे ही होलोकास्ट की तैयारी कर ली गई है. नागरिकता कानून के पहले चरण एनआरसी के लिए असम में जो डिटेंशन कैंप बनाए गए गए हैं, उनकी खबरें बेहद धीमी गति से बाहर आ रही हैं. वहां बड़ी संख्या में ‘बाहरी’ के नाम पर मुसलमान कैद किए जा रहे हैं. वहां यह सब दोहराया जा रहा हो, तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी. एक लोकतांत्रिक कहलाने वाले देश में यह सब होना और भी शर्मनाक बात है. इसे खतरे की घंटी के रूप में देखा जाना चाहिए.

किसी बाहरी साम्राज्यवादी ताकत से लड़ना एक राष्ट्रीयता के लोगों को एकजुट करता है और एक-दूसरे के प्रति उदार बनाता है, लेकिन राष्ट्र ‘वाद’ का उन्माद इंसान को न जाने कितने खांचों में बांट देता है और उन्हें कितना क्रूर बना सकता है, इसे इस उपन्यास में आसानी से देखा जा सकता है.

इसके तथ्यात्मक विवरण पढ़कर सवाल उठता है कि इंसान आखिर इतना क्रूर कैसे हो सकता है? बिना किसी वजह के कैसे कोई किसी बच्चे, वृद्ध, किसी निरीह को उसकी मौत तक पीट सकता है, निर्विकार भाव से उसे नंगा करके मरने के लिए भेज सकता है? दरअसल एक अकेले हिटलर की नस्लीय घृणा की सनक के कारण होलोकास्ट नहीं घटित हुआ, हिटलर की सनक कइयों के दिमाग का हिस्सा बनीं इसलिए यह घटित हुआ. यह घृणा की राजनीति थी, जिसका संचार लोगों के दिमागों में किया गया और वे ज़ॉम्बी बन गए.

उपन्यास में इसका जिक्र है कि इस नफरती हिंसा में लिप्त कई लोगों ने बाद के साक्षात्कारों में कहा कि ‘उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है, उन्होंने सिर्फ ऊपर के आदेश का पालन किया.’ लेकिन यह सच नहीं है. उन्होंने ऊपर के आदेश का पालन इसलिए किया, क्योंकि उसका दिमाग उस क्रूर राजनीति, जिसे फासीवाद कहते हैं, की चपेट में आ चुका था.

हम अपने देश में भी तो ऐसा होता देख रहे हैं. बिलकीस बानो गुजरात में हुई ऐसी ही क्रूरता का एक प्रतीक है, बलात्कारियों हत्यारों को प्रोत्साहित करने के लिए क्या-क्या किया जा रहा है, सबकी आंखों के सामने है. अखलाक और जुनैद इस क्रूरता का प्रतीक हैं, जिनके हत्यारों को जेल से निकालकर माला-फूल पहनाई गईं, यह भी सबने देखा. बस्तर में आदिवासी महिलाओं के स्तन दबाकर देखा गया कि वो दूध पिलाने वाली माताएं हैं या नहीं, योनि में पत्थर भरे, बच्चों के हाथ काटे, उन्हें भी सम्मानित किया गया. कश्मीर की एक नन्हीं बच्ची के बलात्कार और हत्या के बाद हत्यारों बलात्कार के आरोपियों के समर्थन में तिरंगा रैली निकाली गई. यह सब दिन के उजाले में खुल्लमखुल्ला हुआ क्योंकि यह एक राजनीति है, जो लोगों को सोचे-समझे तरीके से क्रूर और असभ्य बनाती है, जिसे ‘फासीवाद’ कहा जाता है.

होलोकास्ट की क्रूरता इसी राजनीति का नतीजा था. इस राजनीति से क्रूर और असभ्य होते लोग हर समय अपने देश के हिटलरों के साथ खड़े रहते हैं, इसलिए आज भी हिटलर अपना काम किए जा रहा है. अपने अंदर छिपी इस हिटलरी क्रूरता को पहचानने और रोकने के लिए भी इस किताब को पढ़ा जाना जरूरी है. इस राजनीतिक क्रूरता ने मानव इतिहास को कलंकित किया है, जिसकी दोहरी शिकार औरते हुई हैं.

उपन्यास में एक कहानी बांग्लादेश के 1971 के युद्ध की पृष्ठभूमि की है. जहां पाकिस्तानी सेना और भारत समर्थित मुक्तिवाहिनी, दोनों औरतों पर हिंसक यौन हमले करती हैं. युद्ध और जातीय, धार्मिक दंगे मानो पुरुषों के अंदर छिपे बैठे शैतान को निकलने का बहाना देता है. ये बताता है कि पुरुष सभ्य नहीं हुआ है, उसे जब भी अवसर मिलता है, वह औरतों पर हमले करने से बाज नहीं आता. युद्ध का समय, दंगों का समय उसका असली रूप उजागर करता है, जैसे इन दिनों मणिपुर में उजागर हो रहा है.

उपन्यास की पात्र भी इन हमलों का शिकार होती है और इस कारण पति द्वारा त्याग दी जाती है. इस हमले में इस पात्र की बेटी पर हुए यौन हमलों का विवरण पढ़कर फूट-फूटकर रोने का जी होता है. यह रोना वर्तमान की घटनाओं के साथ मिल जाता है. हमारे ही ‘राष्ट्र’ के अंदर मौजूद एक राज्य तीन महीने से युद्ध झेल रहा है, युद्ध में औरतें बलात्कार और कई तरीके से यौन हिंसा झेल रही हैं, अपने घरों से उजड़े लोग राहत कैंपों में रहने को मजबूर हैं. यह कल्पना कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि वहां भी छोटी बच्चियों के साथ वही सब कुछ हो रहा होगा, जो उपन्यास की छोटी टिया के साथ हुआ. पितृसत्तात्मक सरकारें ऐसी हिंसा पर चुप रहती हैं. यहां भी चुप हैं. क्या यह चुप रहना सामान्य क्रिया है?

इस उपन्यास को पढ़ने के दौरान ही ‘ओपेनहाइमर’ फिल्म को लेकर विवाद शुरू हुआ, कि इसका नायक परमाणु बम बनाने वाला, भगवद गीता से प्रेरणा लेने वाला वैज्ञानिक अपने अंतरंग क्षणों में गीता के श्लोक क्यों पढ़ रहा है? संयोग है कि इस उपन्यास में भी एक यहूदी वैज्ञानिक रेनाटा अपनी पत्नी के साथ के अंतरंग क्षणों में अचानक यहूदी प्रार्थना ‘कादिश’ पढ़ने लगता है, मानो मृतात्माओं से माफी मांग रहा हो. उसकी पत्नी डर जाती है. इस विख्यात यहूदी वैज्ञानिक की स्मृतियों में 1939-45 तक जर्मनी में चली नस्लीय फासिस्ट हिंसा के शिकार बाप-दादाओं की कहानियां मौजूद हैं. इन स्मृतियों के कारण उसका जीवन सामान्य नहीं रह पाता है, उत्साहविहीन, आवेगविहीन जीवन.

यह पीड़ित नस्ल की स्मृतियां है, जबकि फिल्म में परमाणु बम बनाने वाला वैज्ञानिक है, जिसकी स्मृतियां पीड़क ही हैं, जो भगवद गीता के उपदेशों से अपने कृत्यों के लिए सहारा खोज रहा है, लेकिन सामान्य वह भी नहीं रह पाया.

फासीवादी राजनीति ने राष्ट्र, धर्म, नस्ल, जाति लिंग, यौनिकता के आधार पर लोगों के दिमाग को क्रूर और हिंसक बनाया है, औरतें इस हिंसा का दोहरा शिकार होती आई हैं, वे इंसान नहीं, बल्कि पुरुषों की संपत्ति मानी जाती हैं, इसलिए दुश्मन की संपत्ति के साथ उन्हें भी रौंदना हिंसक दिमाग वाले अपना कर्तव्य समझते हैं. मणिपुर से तो और भी दुखद खबर यह आ रही है कि मेईतेई समुदाय की औरतों का संगठन ‘मीरा पाइबी’ जिन्होंने 2004 में भारतीय सेना की यौन हिंसा के खिलाफ नग्न प्रदर्शन किया था, इस समय वे कुकी औरतों को खोजकर उनसे बलात्कार करने के लिए अपने समुदाय के पुरुषों को उकसा रही हैं. फासीवादी क्रूरता बढ़ती जा रही है, सत्ता से प्रभावित लोगों के दिमाग पूरी तरह इसकी गिरफ्त में है. यह उपन्यास शायद इस क्रूर बनाने वाली राजनीति को इतिहास का सबक सिखा सके.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)