साहित्य और समाज के रिश्ते का सरलीकरण नहीं किया जा सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कई बार लगता है कि साहित्य और समाज, परिवर्तन और व्यक्ति के संबंध में भूमिकाओं को बहुत जल्दी सामान्यीकृत करने के वैचारिक उत्साह में उनकी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कई बार लगता है कि साहित्य और समाज, परिवर्तन और व्यक्ति के संबंध में भूमिकाओं को बहुत जल्दी सामान्यीकृत करने के वैचारिक उत्साह में उनकी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

 

एक विचारधारी कविमित्र की बातचीत सुन रहा था जिसमें वे अपनी पीढ़ी की कविता ओर उसके द्वारा लाए गए बदलाव को देश में घट रही राजनीतिक घटनाओं और प्रवृत्तियों से सहज और आश्वस्त भाव से जोड़ रहे थे. राजनीतिक परिवर्तन पहले और स्वतंत्र भाव से हो रहा था और कविता में परिवर्तन उसकी प्रतिक्रिया में हो रहा था. हिंदी में कविता पर इन दिनों विचार और विश्लेषण करते हुए यह धारणा बहुत प्रचलित और लगभग स्वयंसिद्ध मान ली गई है कि साहित्य में परिवर्तन समाज में हो रहे परिवर्तनों का प्रतिबिंब होता है और साहित्य के किसी भी परिवर्तन को बिना इस समझ के समझा ही नहीं जा सकता.

इस समय में यह विचार दबा-छुपा है कि साहित्य में अपने से परिवर्तन संभव नहीं है- उसके सभी परिवर्तन बाहरी परिवर्तन पर निर्णायक रूप से निर्भर हैं. चूंकि ज़्यादातर बाहरी परिवर्तनों पर साहित्य का बस नहीं होता, साहित्य को मानो परिवर्तन करने का न तो अधिकार है, न ही ज़रूरत.

साहित्य और समाज का यह रिश्ता आधुनिक काल में ही बना-बढ़ाया गया है. परंपरा में देश-काल का विचार तो होता था पर साहित्यिक परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन की अभिव्यक्ति अनिवार्यतः नहीं माना जाता था. साहित्य का अपना समाज था और उससे संवाद और प्रतिक्रिया का एहतराम होता था लेकिन साहित्य को अपने से बदलने का भी अवकाश था.

अक्सर साहित्य ऐसे बदलता ही रहा है. अलबत्ता, यह परिवर्तन पहले धीमे-धीमे होता था. आधुनिक काल में उसकी गति और अवधि दोनों ही तेज़ हो गई हैं. इन दिनों ठहराव और धीरज साहित्य के गुण और कारक नहीं रह गए हैं. हम तेज़ी से, अधीर समाज में, तेज़ भागते समय में अधीर साहित्य हो गए हैं. अब तो लिखा भी तेज़ी से जाता है और उतनी ही तेज़ी से साहित्य को समझ में भी आना चाहिए.

साहित्य सामाजिक शून्य में नहीं रचा जाता. वह समाज में रहकर ही लिखा-रचा-समझा-सराहा जाता है. लेखक भाषा का उपयोग करता है जो सामाजिक संपदा होती है. एक तरह से तो भाषा में कुछ करना अपने आप में सामाजिक होना है. फिर, समाज साहित्य नहीं लिखता. लिखता तो कोई व्यक्ति ही है. समाज किसी से अपेक्षा भी नहीं करता कि वह साहित्य रचे. लिखने-रचने का काम तो कोई व्यक्ति ही अपनी ज़िम्मेदारी पर करता है.

दूसरे शब्दों में, साहित्य और समाज का रिश्ता कहीं अधिक जटिल है और उसका सरलीकरण नहीं किया जा सकता. इसी तरह परिवर्तन का व्याकरण भी जटिल है और उसे इकतरफ़ा नहीं बनाया जा सकता. कई बार अब हम किसी लेखक या कृति के बारे में यह कहते हैं कि वह अपने समय या समाज में कहीं आगे की रचना है तो उसका आशय यही है कि उसका परिवर्तन अग्रगामी है जिससे समाज और समय तत्समय पीछे हैं.

कई बार लगता है कि साहित्य और समाज, परिवर्तन और व्यक्ति के संबंध में भूमिकाओं को हम बहुत जल्दी सामान्यीकृत करने के वैचारिक उत्साह में उनकी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं को नज़रअंदाज़ कर देते हैं.

कविता का मंडल

मंडला का नाम इसलिए ऐसा पड़ा कि वह नर्मदा से कई ओर घिरी है. उसी मंडला में जब ‘रज़ा स्मृति’ के अंतर्गत लगभग पचास कवियों ने, जिनमें पांच पीढ़ियों के लोग शामिल थे, दो दिनों में लगभग दस से ग्यारह घंटे कविताएं सुनाईं तो मुझे लगता रहा कि थोड़ी देर के लिए नर्मदा के साथ-साथ कविता ने भी मंडला को घेर लिया है.

सचाई अक्सर कविता को घेरती रहती है, कभी-कभी कविता को भी सचाई को घेरने का अवसर मिलना चाहिए. ऐसे मंडल से सचाई स्थगित या धूमिल नहीं हो जाती: जैसे नर्मदा अपने मंडल से मंडला शहर को दीप्ति और मोहक हराभरापन, उच्छलता देती है वैसे ही कविता ने सचाई के लिए किया.

हिंदी कविता का वितान विपुल है. उसके लिखे जाने के पिछले पचहत्तर वर्ष लोकतंत्र के अंतर्गत बीते हैं जैसे कि सकल भारतीय कविता के भी. यह अभूतपूर्व है, हालांकि कई बार हम उन बहुत सारी स्वतंत्रताओं को स्वाभाविक मान लेते हैं जो दरअसल हमें लोकतंत्र के कारण मिली हैं.

इस लोकतंत्र के संविधान ने कई पारंपरिक मूल्यों और स्वतंत्रता-संग्राम में विकसित मूल्यों को समाहित किया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रश्नांकन और आलोचना की वृत्ति, प्रश्नवाचकता, संवाद और विवाद, असहमति के अवसर और आदर आदि सभी में आज दैनिक कटौती हो रही है. यह प्रश्न उठता है कि ऐसे समय में कविता किस हद तक लोकतंत्र की चौकसी कर रही है और कवि कितनी लोकतांत्रिक नागरिकता के कर्तव्य निभा रहा है.

राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्थाएं, राजनीति और धर्म की दुरभिसंधि जैसे नागरिकों को वैसे ही कवियों को निहत्था, लाचार और विकल्पहीन बनाने पर तुली हैं. ऐसी स्थिति में, ऐसे लोकतांत्रिक संकट में क्या कविता भी लाचार और निहत्थी हो रही है? इसका सीधा-सरल उत्तर न संभव है, न मंडला में मिला.

प्रतिरोध और उदासीनता दोनों ही नज़र आए. कभी लगा कि कवि अपने प्रतिरोध को ज़ाहिर करने में कविता की शर्तें किनारे रख रहा है और कभी लगा कि प्रतिरोध का नया, शायद कुछ अटपटा या किसी हद तक बीहड़ स्थापत्य उभर रहा है. मानवीय स्थिति और नियति, मानवीय विडंबना और संभावना के कुछ रूपाकार प्रगट हुए और जब-तब बड़बोलापन और संवेदना और विवेक से रिक्त भोलापन भी. कविता का संकट यह है कि वह जटिलताओं के बीच, सभ्यतागत संकट के सामने कैसे मानवीय हो, गवाही दे सके और याद दिला सके और कविता बनी रहे.

मंडला की सड़कों पर से निकलिए तो ज़ाहिर होगा कि एक नाम-स्मृतिहीन शहर बन-बिगड़ रहा है. स्थानीयता को एक नागर सामान्यता अतिक्रमित कर रही है: किसी कल्पित शहर का संस्करण बनने की राजनीतिक-प्रशासनिक-नागरिक होड़-सी लगी है.

ऐसी ही सामान्यता कविता में भी लगातार बढ़ रही है: स्थानीयता घट रही है. स्थान भौतिक स्तर पर बदले और ध्वस्त किए जा रहे हैं: दुर्भाग्य से कविता उन ग़ायब हो रहे स्थानों का शरण्य या जगह अक्सर नहीं हो पा रही है. वह भी अस्थान हो रही है: स्थान, शहर और कविता दोनों से अपदस्थ.

घृणा के राज्य

नेल्सन मंडेला के 105वें जन्मदिन पर आयोजित एक समारोह में व्याख्यान देते हुए समाज-चिंतक आशीष नन्दी ने कहा कि घृणा पर आधारित राजव्यवस्था स्थापित करने और चलाने का प्रयत्न सदियों से चलता रहा है. उन्नीसवीं सदी में जब चार्ल्स डार्विन, कार्ल मार्क्स, सिंगमंड फ्रॉयड और किसी हद तक अलबर्ट आइन्स्टाइन ने विज्ञान को मानव जीवन और व्यापार के केंद्र में स्थापित कर दिया तो ‘रेशनेलेटी’ को सब कुछ का प्रतिमान बना दिया गया.

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही इस रेशनेलिटी के मानव-विरोधी परिणाम मिलने लगे. पश्चिम ने विकासवाद का सहारा लेकर कई समूहों, आदिवासी संप्रदायों और जातियों को सभ्य जीवन विकसित करने में असमर्थ क़रार देकर उनके संहार का उपक्रम किया. ऐसे सभी उपक्रम विकास के वैज्ञानिक तर्क पर आधारित थे. नाज़ियों द्वारा स्थापित गैस चेंबर और हिरोशिमा पर अणु बम गिराना इसी रेशनेलिटी की परिणतियां थीं. अब यह बात सप्रमाण सिद्ध हो चुकी हैं कि हिरोशिमा पर अणु बम गिराने पर इसरार सेना ने नहीं बल्कि वैज्ञानिकों ने किया था, जो बड़े क्षेत्रफल को पूरी तरह से नष्ट करने की बम की क्षमता का परीक्षण करना चाहते थे.

आशीषदा ने यह भी बताया कि यूटोपिया कल्पना में तो बहुत वांछनीय होता है पर जब उसे अमल में बदला जाता है तो वह अक्सर एकाधिपत्य में बदल जाता है: यूटोपिया तो ध्वस्त हो जाता है पर बचा रह जाता है घृणा पर आधारित और उससे स्वयं को पोसता और सशक्त बनाता राज्य.

एक समाज चिंतक के रूप में आशीषदा, कन्नड़ साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति से सहमत होते हुए, यह कहते आए हैं कि असली और सच्चा लोकतंत्र ढीला-ढाला राज्य ही हो सकता है, सख्‍़त राज्य नहीं. एकाधिपत्य को अपने को सक्रिय और सशक्त बनाए रखने के लिए यह लाज़िम होता है कि वह घृणा-हिंसा और प्रतिशोध को लोकप्रिय और लोकमान्य बनाता रहे. समाज के बड़े और प्रभावशाली हिस्से को वह सफलतापूर्वक ‘ब्रूटलाइज़’ करता है.

याद आता है कि कुछ समय पहले एक अन्य अवसर पर आशीषदा ने हमारी परंपरा में अर्द्धनारीश्वर की जो अवधारणा है, उसका एक रूपक की तरह इस्तेमाल करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक राज्य को अर्द्धनारीश्वर होना चाहिए. उनका मत है कि लोकतंत्र में राज्य पर नहीं समाज पर अधिक आग्रह, उससे अधिक अपेक्षा होना चाहिए. साधारण नागरिक के विवेक-समझ-संवेदना की लोकतंत्र में अधिक जगह होना चाहिए और समाज को राज्य को कुछ मर्यादाओं में रहने और उनका उल्लंघन करने से रोकने के लिए सक्रिय-सजग रहना चाहिए.

यह तो हर बार स्पष्ट होता है कि आशीष नन्दी हमेशा जो भी विचार करते हैं उसमें हमारे देश में जो हो रहा है उसका सीधा या परोक्ष संदर्भ होता है. वे उन बुद्धिजीवियों में से हैं जो सत्ता से और उसके बारे में सच कहने से संकोच नहीं करते. ऐसे निर्भय बुद्धिजीवी की मुखरता और उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है कि भारतविचार अदम्य है और उसे दबाने-हराने के सारे प्रयत्न और षड्यंत्र अंततः सफल न हो सकने के लिए अभिशप्त है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)